ग्राम संसद अभियान

ग्राम संसद अभियान

दो कथानक विचारणीय हैं-
1) प्रबल राक्षस किसी तरह मर ही नहीं रहा था क्योंकि कथानक के अनुसार उसके प्राण सात समुद्र पार पिंजरे में बंद तोते के गले में थे। तोते को मारते ही राक्षस की मृत्यु हो गई।
2) रावण को राम कितना भी मारते थे किन्तु वह मरता नहीं था क्योंकि उसकी नाभि में अमृतकुंड था। विभीषण ने राम को बताया और जब नाभि पर आक्रमण हुआ तब रावण मरा।
हम भारत की वर्तमान राजनैतिक और सामाजिक स्थिति का आकलन करे तो भौतिक उन्नति तेज गति से हो रही है । जीवन स्तर सबका सुधर रहा है। नैतिक पतन भी बहुत तेजी से हो रहा है। ग्यारह समस्याएँ लगातार बहुत तेजी से बढ रही है-(1) चोरी, डकैती,लूट (2) बलात्कार (3) मिलावट कमतौलना (4) जालसाजी, धोखाधडी (5) बल प्रयोग, हिंसा ,आतंकवाद (6) भ्रष्टाचार (7) चरित्रपतन (8) साम्प्रदायिकता (9) जातीय कटुता (10) आर्थिक असमानता (11) श्रम शोषण। स्वतंत्रता के बाद ये सभी ग्यारह समस्याएँ लगातार बढ रही हैं और भविष्य में भी किसी के समाधान के कोई लक्षण नहीं दिखते। इनमें से पहली 5 समस्याएँ तंत्र की निष्क्रियता के कारण बढी हैं तो अंतिम छः तंत्र की अतिसक्रियता के कारण बढी हैं।
तंत्र हमेशा लोक को गुलाम बनाकर रखना चाहता है और लोकतंत्र में लोक ही मतदाता होता है। इसलिए तंत्र मतदाताओं को 10 प्रकार के नाटको के माध्यम से उलझाकर भ्रम में रखता है।
1) समाज में आठ आधारों पर वर्ग विभाजन करके वर्ग विद्वेष फैलाना और उसे वर्ग संघर्ष तक ले जाना।
2) समस्याओं का ऐसा समाधान खोजना कि उस समाधान से ही एक नई समस्या पैदा होती हो।
3) समस्या की प्रवृत्ति के विपरीत समाधान की प्रकृति।
4) राष्ट्र शब्द को ऊपर उठाकर समाज शब्द को नीचे गिराना।
5) वैचारिक मुद्दों पर बहस को पीछे करके भावनात्मक मुद्दों को आगे लाना।
6) समाज को शासक और शासित में बांटकर दोनों के मनोबल में फर्क करने का संगठित प्रयास।
7) समाज द्वारा स्वयं को अपराधी मानने की भावना का विकास।
8) शासन की भूमिका बिल्लियों के बीच बंदर के समान।
9) आर्थिक असमानता वृद्धि का प्रजातांत्रिक स्वरूप।
10) प्राथमिकताओं के क्रम में सुरक्षा और न्याय की अपेक्षा जन कल्याणकारी कार्यो का उच्च स्थान रखना।


तंत्र से जुडी तीनों इकाईयाॅ इन दस प्रकार के नाटको में ईमानदारी से एक जुट होकर लगी रहती हैं। भले ही अन्य मामलों में वे आपस में क्यों न निरंतर टकराती रहें। समाज को तोडकर रखने के लिए वर्ग विद्वेष और वर्ग संघर्ष का सहारा लिया जाता है उसके लिए 8 आधार निश्चित हैं-1 धर्म 2 जाति 3 भाषा 4 क्षेत्रियता 5 उम्र 6 लिंग 7 गरीब अमीर 8 किसान मजदूर। सभी राजनैतिक दल निरंतर आठों आधारों पर लगातार सक्रिय रहते हैं। सात आधारों पर तो समाज को तोडा जाता है और लिंग भेद का आधार परिवार को भी पूरी तरह तोड रहा है। कोई उत्तर नहीं देता कि यदि सारे देष में मुसलमान और इसाई शून्य हो जावें तो ग्यारह में से दस समस्याओं पर धार्मिक एकीकरण का क्या प्रभाव होगा। कोई गरीबी अमीरी रेखा के नाम पर समाज को तोड रहा है किन्तु कभी यह उत्तर नहीं मिला कि ऐसा होने से आर्थिक असमानता को छोडकर बाकी 10 समस्याओं पर क्या प्रभाव पडेगा।
देशभर में इन समस्याओं के समाधान के लिए आन्दोलन भी बहुत होते रहे हैं। अनेक आन्दोलनों में देश की करोडो अरबों की सम्पत्ति बरबाद हो जाती है। बडी संख्या में लोग अपनी जान तक दे रहे हैं किन्तु समस्याएँ घटने की अपेक्षा बढती ही जा रही हैं। समाज में जो भी आन्दोलन या टकराव हो रहे हैं वे भौतिक सुविधाओं के नाम पर हो रहे हैं। आज तक एक भी ऐसा आन्दोलन नहीं चल रहा है जो लोक और तंत्र के बीच गुलाम और मालिक सरीखी दूरी को कम करने के लिए हो। सुविधा और स्वतंत्रता में से स्वतंत्रता की बात करने वाले कोई नहीं दिखते। सब सुविधाओं की बात करते हैं। आज इसी का परिणाम है कि लोक और तंत्र के बीच मालिक और गुलाम सरीखे संबंध बन गये हैं। तंत्र ने वोट देने का अधिकार देकर बाकी सारे अधिकार अपने पास समेट लिये है। लोक भिखारी और तंत्र दाता बन गया है।

तंत्र ने बहुत चालाकी से संविधान को एक तरफ अपनी ढाल बनाया है तो दूसरी तरफ अपनी मुटठी में कैद रखा है। एक तरफ संविधान को भगवान सरीखे प्रचारित किया जाता है। तो दूसरी ओर जब चाहे तभी तंत्र बिना लोक से पूछे संविधान में मनमाना संशोधन कर देता है और वह संशोधन लोक की इच्छा के रुप में प्रचारित कर दिया जाता है। इसका अर्थ हुआ कि संविधान तंत्र को हमेशा अघोषित सुरक्षा देता है दूसरी ओर तंत्र संविधान का मनमाना दूरुपयोग भी करता रहता है। स्पष्ट है कि भारत में संविधान का शासन है और संविधान पर तंत्र का एकाधिकार है। इसलिए जब तक संविधान तंत्र के एकाधिकार से मुक्त नहीं होता तब तक समस्याओं के समाधान की शुरुवात नहीं हो सकती। तंत्र ने लोक को व्यवस्था में भी सहयोगी माना है और संविधान निमार्ण में भी। इस सहयोग की भावना को सहभागी की दिशा में बदलने की आवश्यकता है अर्थात संविधान संशोधन में लोक और तंत्र एक दूसरे के सहभागी हों। यह स्थिति नहीं होना ही समस्याओं के समाधान की सबसे बडी बाधा है और इस बाधा को दूर किये बिना न रावण रुपी तंत्र पर अंकुश लग सकता है न ही राक्षस रुपी तंत्र पर अंकुश लग सकता है न ही राक्षस को पराजित किया जा सकता है।

इस दिशा में सम्पूर्ण भारत में एक ऐसा अभिनव प्रयास हो रहा है जिसे हम ग्राम संसद अभियान के नाम से कह सकते हैं । इस अभियान के अन्तर्गत पूरे देश के करीब दस लाख गावों और वार्डो को ग्राम संसद का नाम और स्वरुप दिलाये जाने की योजना है। ये ग्राम संसदे मिलकर 543 सदस्यों का चुनाव करेंगी जो निर्दलीय आधार पर चुने जायेंगे। इसे संविधान सभा कहा जायेगा। संविधान सभा वर्तमान संविधान की पूरी समीक्षा करके संशोधन के प्रस्ताव तैयार करेगी तथा वर्तमान संसद को विचारार्थ देगी। यदि किसी सुझाव पर संविधान सभा और वर्तमान संसद अंतिम रुप से असहमत होंगे तो दस लाख ग्राम संसदे उस सुझाव पर अंतिम निर्णय देंगी। मेरे विचार से यह एकमात्र प्रयास है जिस पर सब लोगों को लगना चाहिए। ग्राम संसद अभियान को देश भर में जनजागरण के रुप में फैलाने का दायित्व व्यवस्थापक समूह कर रहा है। एक वर्ष में अब तक 400 जिलो में शुरुवात हो चुकी है। अन्य जिलों में भी प्र्रगति जारी है। रामानुजगंज जिले के एक विकासखंड में सघन अभियान शुरू हो चुका है यदि कोरोना बीमारी काबू मे रही तो आगामी अप्रैल में रामानुजगंज में देश भर के लोगो की दो दिनों का एक राष्ट्रीय योजना सम्मेलन आयोजित है। इस सम्मेलन में आगे की योजना बनेगी। प्रस्ताव है कि यह अभियान सिर्फ जागरण तक ही सीमित होगा। किसी आन्दोलन की दिषा में नहीं जायेगा। किसी भी परिस्थिति में कोई कानून नहीं तोड़ा जायेगा। एक या डेढ वर्ष के बाद आगे के समीक्षा होगी । यह कार्यक्रम किसी संगठन का नहीं होकर जनजागरण का है। इसलिए इसमें शामिल होने के लिए सब लोग स्वतंत्र हैं और आयोजको के अनुसार देश भर के करीब सौ लोग इसमें शामिल हो सकते है।

जहाँ तक मेरी जानकारी है उसके अनुसार यह एकमात्र प्रयास है जो सही दिशा में सही तरीके से आगे बढ रहा है। यह प्रयास सरकार के खिलाफ नहीं है। संविधान के खिलाफ भी नहीं है बल्कि लोक और तंत्र के बीच मालिक और गुलाम के समान असीमित दूरी को घटाने की दिशा में प्रयास है। सारे देश में व्यवस्था परिवर्तन अभियान के नाम से अनेक संगठन कार्य कर रहे है मैने स्वयं सबको समझा। मैं आश्वस्त हूँ कि व्यवस्था परिवर्तन की दिशा में सक्रिय अन्य सभी संगठन व्यवस्था में सुधार तक सीमित है। उन्हें व्यवस्था परिवर्तन का वास्तविक अर्थ ही नहीं मालूम। लोक और तंत्र के बीच तंत्र से सुविधाये लेना व्यवस्था परिवर्तन नहीं है बल्कि व्यवस्था परिवर्तन तो यह है कि वर्तमान लोक और तंत्र के बीच अधिकारों की असीम असमानता-समानता तक आवे। मैं स्वयं द्विदिवसीय इस कार्यक्रम में रह सकता हूँ। मैं चाहता हूँ कि हमारे अन्य पाठक या विद्वान भी अन्य साथियों सहित कार्यक्रम में आए और हम आप सब मिलकर ग्राम संसद अभियान की इस योजना को अपने सुझाव मार्गदर्शन या सहयोग पर विचार करें।