गरीबी का समाधान क्रय शक्ति वृद्धि या सुविधा विस्तार

1 स्वाभाविक रूप से गरीब और अमीर शब्द अर्थहीन है क्योकि ये शब्द सापेक्ष होते है । कोई भी व्यक्ति अपने से उपर वाले की तुलना मे गरीब होता है और नीचे वाले की तुलना मे अमीर ।

2 राज्य व्यवस्था के कुछ दायित्व होते है और कुछ स्वैच्छिक कर्तव्य । सुरक्षा और न्याय राज्य के दायित्व होते है । कमजोरो की मदद करना राज्य का दायित्व नही होता सिर्फ कर्तव्य मात्र होता है ।

3 क्रय शक्ति का बढना और सुविधाओ का देना बिल्कुल अलग-अलग तरीके माने जाते है, यद्यपि दोनो का परिणाम एक ही होता है ।

4 लोकतांत्रिक सरकारे आमतौर पर लोकहित की जगह लोकप्रिय कार्यो पर अधिक ध्यान देती है । भारत मे भी यही हो रहा है । कमजोर सरकारो के लिये तो यह विशेष रूप से आवश्यक है ।

राज्य का दायित्व होता है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा करने मे कोई भी बाधा न आने दे । किसी को भी किसी भी परिस्थिति मे सहायता करना राज्य का दायित्व नही है । क्योकि प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा करे । फिर भी स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा के होते हुए भी जो लोग बिल्कुल ही स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा नही कर सकते उनके जीवन यापन के उद्देश्य से काफिला पद्धति के अनुसार राज्य का कर्तव्य होता है कि वह बिल्कुल ही असहाय और पिछड चुके लोगो का जीवन बचाने मे मदद करे । मै समझता हॅू कि इस प्रकार के पिछडे लोगो की संख्या कुल आबादी की 1 प्रतिशत से भी कम होती है, किन्तु होती  अवश्य है और उनकी मदद करना राज्य का कर्तव्य भी है किन्तु राज्य अपने को समाज का सहायक न मानकर मालिक मानना शुरू कर देता है जो गलत है । इसके लिये राज्य समाज को वर्गो मे बांटकर स्वयं को एक बिचौलिये की भूमिका मे स्थापित कर लेता है । इसके लिये राज्य आर्थिक व्यवस्था को सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानता है । अधिक से अधिक टैक्स लेना और अधिक से अधिक सुविधाए देना सबसे अच्छा तरीका माना जाता है । इसके लिये अनेक तरीके अपनाये जाते हैं । 1 सभी लोगो से टैक्स लेना और कमजोरो की मदद करना । 2 अमीर लोगो से टैक्स लेना और सबको राहत देना । 3 अमीर लोगो से टैक्स लेना और गरीब लोगो को राहत देना । वर्तमान सरकार इन सबसे हटकर एक चौथे मार्ग पर चल रही है । वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष का उपयोग कर रही है । गरीब लोगो पर अप्रत्यक्ष कर लगाकर उसे प्रत्यक्ष सहायता दी जाती है तो संपन्न लोगो पर प्रत्यक्ष कर लगाकर उन्हे अप्रत्यक्ष सहायता दी जाती है । इस आर्थिक तरीके से दोनो वर्ग प्रसन्न रहते है । आर्थिक दृष्टि से समाज मे अनेक प्रकार के विभाजन किये जाते है । इनमे उत्पादक और उपभोक्ता, गरीब और अमीर, श्रमजीवी और बुद्धिजीवी, बेरोजगार और रोजगार प्राप्त, शहरी और गरीब आदि कई तरीके अपनाये जाते हैं । सरकारे उत्पादक और उपभोक्ता के नाम पर दो वर्ग बना देती है । दोनो से अलग-अलग तरीके से टैक्स लेती है और दोनो को अलग-अलग तरीके से सुविधाए देती है । कोई भी सरकार हर आदमी को न उत्पादक कहती है न उपभोक्ता जबकि प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप मे उत्पादन भी करता है और उपभोग भी । कभी प्याज सस्ता हो गया तो उत्पादको पर दया कर देती है कभी मंहगाई हो गई तो उपभोक्ताओ पर दया कर देगी । यदि प्याज मंहगा हो गया और आलू सस्ता हो गया तो इससे किसको परेशानी हुई यह समझ मे नही आया । बिचौलिये की भूमिका मे सरकारे लोकप्रियता के लिये कुछ न कुछ करती रहती है । कुछ राजनेता तो जीवन भर सिर्फ यही काम करते रहते है । कोई गरीबी रेखा के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाता रहता है तो कोई दूसरा अमीरी रेखा के नाम पर । कोई व्यक्ति उपभोक्ताओ के लिये निरंतर संघर्ष करता है तो कोई दूसरा उत्पादको के लिये । कोई व्यक्ति ग्रामीण आबादी के लिये प्रयत्नशील रहता है, तो कोई दूसरा शहरी आबादी के लिये । 74 वर्ष बीतने के बाद भी स्वतंत्र ओैर लोकतांत्रिक भारत मे किसी एक भी आर्थिक समस्या का समाधान नही हुआ, क्योकि जब कोई समस्या हो तब तो उसका समाधान हो सकता है, लेकिन जब कोई समस्या ही भारत मे स्पष्ट न हो तब समाधान किस बात का । भले ही अस्तित्वहीन समस्याओ का आभास कराया जा रहा है, और उसके परिणाम स्वरूप सिर्फ वर्ग संघर्ष ही हो सकता है । समस्या का समाधान नही हो सकता । इसके विपरीत सरकारो की गलत नीतियो के कारण आर्थिक विषमता बढती जा रही है । इस आर्थिक विषमता के बढने का मुख्य कारण राज्य की यह गलत नीति है कि कमजोर लोगो की क्रय शक्ति को बढने देने की अपेक्षा उन्हे अधिक से अधिक सुविधाए देकर संतुष्ट रखा जाये । इस प्रकार की सुविधाए देने से अनेक लाभ दिखते है । इससे टैक्स वसूलने और सुविधाए देने के नाम पर भ्रष्टाचार भी खूब होता है । इस प्रणाली से आम लोगो की प्रशंसा भी बहुत मिलती है । इससे समाज मे वर्ग संघर्ष बढकर राज्य बिचौलिये की भूमिका मे भी स्थापित हो जाता है । तथा इस प्रणाली से आम जनता राज्य आश्रित होती चली जाती है, जिसे हम एक प्रकार की गुलामी मानते है और राज्य जिसे अपनी सफलता मानता है ।

          भारत मे असहाय लोगो की संख्या एक प्रतिशत से भी कम है, किन्तु हम दुनियां की नकल करते हुए अमीरी गरीबी की परिभाषा बदलते रहते है । वर्तमान समय मे गरीबी की विश्वस्तरीय परिभाषा 2 डालर अर्थात एक सौ चालीस रूपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन है । अभी तक भारत मे गरीबी की परिभाषा करीब 40 रूपये प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन मानी जा रही है । इस प्रकार की अदलती-बदलती परिभाषाओ के चक्कर मे भारत की गरीबी 70 वर्षो तक आकडो के खेल मे उलझी रही और भविष्य मे भी इसी तरह उलझी रहेगी । लेकिन यदि वास्तव मे इस समस्या को समाप्त करना है तो एक सीधा सा मार्ग है, कि आम लोगो को सुविधाए देना बंद करके उनकी क्रय शक्ति को स्वतंत्रता पूर्वक बढने दिया जाये । व्यक्ति तीन प्रकार के होते है । 1 वे जिनकी कुल आय के प्रमुख साधन श्रम होता है । 2 वह जिसकी आय के प्रमुख साधन श्रम के साथ बुद्धि से भी जुडा रहता है । तीसरा वह होता है जिसके पास श्रम, बुद्धि और धन मिलाकर आय के श्रोत बन जाता है । स्वाभाविक है कि जिस व्यक्ति के पास सिर्फ श्रम ही एक मात्र माध्यम है वही व्यक्ति गरीब हो सकता है । कोई अन्य किसी भी परिस्थिति मे गरीब हो ही नही सकता जब तक कोई विशेष परिस्थिति न आ जाये ।  स्वाभाविक है कि श्रम की मांग बढे और श्रम का मूल्य बढे । यही एक मात्र तरीका क्रय शक्ति बढाने के काम आता है । सरकारे कई प्रकार के उपाय कर के क्रय शक्ति को बढने से रोकती है और इस प्रकार गरीबो को सहायता देकर अपने जाल मे फंसाती है । गरीब ग्रामीण श्रमजीवी कृषि उत्पादक के उत्पादन और उपभोग पर भी कर लगाया जाता है । मुझे आश्चर्य होता है कि साईकिल पर भारी टैक्स लगा कर टैक्टर को छूट दी जाती है । सब प्रकार के खाद्य तेलो पर टैक्स लगाकर मिट्टी तेल और बिजली को सस्ता किया जाता है । कपास पर भारी टैक्स लगाया जाता है, और कपडा सस्ता बाटने का नाटक किया जाता है । राजनीति से जुडा हर व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधाए दिलाने मे सक्रिय रहता है । कभी नही सोचता कि यदि लोगो की क्रय शक्ति बढ जाये तो उन्हे न सरकारी स्कूल चाहिये न ही सरकारी अस्पताल । वे स्वतंत्रता पूर्वक अपनी इच्छानुसार अपनी आवश्यकताओ की पूर्ति कर सकते है । किन्तु क्रयशक्ति की तुलना मे सुविधाए देने का तरीका अधिक सुविधाजनक और लाभदायक माना जा रहा है । मेरा ऐसा मानना है कि यदि कृत्रिम उर्जा की भारी मूल्य वृद्धि कर दी जाये और सभी प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिये जाये तो आम लोगो की क्रयशक्ति इतनी हो जायेगी कि उन्हे किसी भी प्रकार से राज्य सहायता पर निर्भर नही रहना होगा । लेकिन राज्य सरकारे लोकप्रियता के लिये कृत्रिम उर्जा को सस्ता करके अप्रत्यक्ष रूप से बडे लोगो को प्रसन्न रखना चाहती है तो दूसरी ओर गरीबो को सस्ता अनाज देकर भी प्रसन्न रखना उनकी मजबूरी है