विवाह पारंपरिक या स्वैच्छिक

कुछ स्वीकृत सिद्धान्त है

1 प्रत्येक महिला और पुरुष के बीच एक  प्राकृतिक आकषर्ण होता है । यदि आकर्षण सहमति से हो तो उसे किसी परिस्थिति मे बाधित नही किया जा सकता,  अनुशासित किया जा सकता है । इस अनुशासन का नाम विवाह है ।

2 प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता असीम होती है । उसकी सहमति के बिना उसकी कोई सीमा नही बनाई जा सकती । विवाह ऐसी सीमा बनाने का एक सहमत प्रयास है ।

3 जब तक किसी व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारो पर आक्रमण न हो  तब तक राज्य को उसमे कोई हस्तक्षेप नही करना चाहिये ।

4 यदि किसी व्यक्ति की कोई स्वतंत्रता समाज पर दुष्प्रभाव डालती है तब समाज उसे अनुशासित कर सकता है, किन्तु बाधित नही ।

5 रक्त संबंधो के शारीरिक संबंधो से संतानोत्पत्ति पूरी तरह वर्जित है । फिर भी इसे अनुशासित ही कर सकते है प्रतिबंधित नही । 

6 चार उद्देश्य के संयुक्त लाभ के लिये विवाह व्यवस्था बनाई गई है 1 इच्छा पूर्ति, 2 संतानोत्पत्ति, 3 सहजीवन की ट्रेनिंग, 4 वृद्ध माता पिता की कर्ज मुक्ति ।

7 स्वतंत्रता, उच्चश्रृखलता तथा अपराध अलग-अलग होते है । स्वतंत्रता असीम होती है, उच्चश्रृखलता को समाज अनुशासित कर सकता है, तथा अपराध रोकना राज्य का दायित्व है ।

              रक्त संबंधो के अंतर्गत संतानेत्पत्ति को सम्पूर्ण मानव समाज मे वर्जित किया गया है । मै नही कह सकता कि यह प्रतिबंध वैज्ञानिक है अथवा परम्परागत । किन्तु यह प्रतिबंध सारी दुनियां मे मान्यता प्राप्त है । प्राचीन समय मे शरीर विज्ञान जितना विकसित था उस आधार पर इस मान्यता को अस्वीकार करने का  कोई आधार भी नही दिखता । इसलिये आवश्यक है कि भिन्न परिवारो के लड़के और लडकियां के एक साथ रहने की सामाजिक व्यवस्था की जाये । भिन्न परिवारो के स्त्री पूरूषो को एक साथ जीने की व्यवस्था ही विवाह पद्धति है । विवाह के चार लक्ष्य निर्धारित है । 1 शारीरिक इच्छा पूर्ति, 2 संतानोत्पत्ति, 3 सहजीवन की ट्रेनिंग, 4 माता-पिता से ऋण मुक्त होना । प्राचीन समय मे शारीरिक इच्छा पूर्ति की तुलना मे अन्य तीन को अधिक प्राथमिकता प्राप्त थी । किन्तु पिछले कुछ वर्षो से शारीरिक इच्छा पूर्ति को अन्य तीन की तुलना मे अधिक महत्व दिया जाने लगा है । इस बदलाव के कारण परिवार व्यवस्था भी टूट रही है तथा अनेक सामाजिक विकृतियां पैदा हो रही है । इस अव्यवस्था पूर्ण बदलाव मे साम्यवादी विचार की सबसे अधिक भूमिका पाई जाती है । जे एन यू संस्कृति उच्श्रृखलता को हमेशा प्रोत्साहित करती है । क्योकि वर्ग संघर्ष का विस्तार साम्यवाद का प्रमुख आधार है और जे एन यू संस्कृति उसकी प्रमुख संवाहक । 

        पारंपरिक विवाह मे तीन का समिश्रण आवश्यक था 1 वर वधु की स्वीकृति, 2 परिवार की सहमति, 3 समाज की अनुमति । जब विवाह पद्धति मे कुछ विकृतियां आई और बाल विवाह को अधिक प्रोत्साहन दिया जाने लगा तब वर वधु की स्वीकृति की प्रथा बंद हो गई । यहां तक कि कई बार तो ब्राम्हण और ठाकुर ही मिलकर विवाह तय कर देते थे जिसे परिवार समाज तथा वर-वधु  को मानना पड़ता था । जब विवाह प्रणाली मे भ्रष्टाचार होने लगा तब परिवार के सदस्यो ने कमान संभाली और जब परिवार के सदस्य भी दहेज के लालच मे बेमेल विवाह कराने लगे तब यह कार्य वर-वधु ने अपने हाथ मे ले लिया । किन्तु इस बदलाव के भी दुष्परिणाम  देखने मे आये क्योकि अनेक मामलो मे वर-वधुओ ने शारीरिक इच्छा पूर्ति को एक मात्र प्राथमिकता देनी शुरू कर दी । यह भी एक  विकृति है जो बहुत जोर पकड़ रही है और इसके परिणाम स्वरूप   समाज मे समस्याएं पैदा हो रही है । इस विकृति के कारण परिवार टूट रहे है बच्चो के संस्कार बिगड रहे है तथा वृद्ध माता पिता के साथ भी संबंध खराब हो रहे है।

          यह स्पष्ट है कि वर्तमान विवाह प्रणाली बहुत दोषपूर्ण है क्योकि विवाह मे सिर्फ वर-वधु ही एक साथ नही होते बल्कि दो परिवारो का मिलन होता है, तथा कुछ सामाजिक प्रभाव भी होता है । परिवार और समाज का अनुशासन पूरी तरह हट जाने से समाधान कम और समस्याए अधिक बढ़ रही है। फिर भी यह उचित नही होगा कि विवाह की पारंपरिक प्रणाली को ही आवश्यक कर दिया जाय । दोनो ही प्रणालियों मे अपने-अपने गुण दोष है,  इसलिये एक तीसरी प्रणाली को विकसित किया जाना चाहिये जिसके अनुसार वर-वधु को विवाह मे स्वीकृति आवश्यक हो किन्तु परिवार की सहमति और सामाजिक अनुमति को भी किसी न किसी स्वरूप मे शामिल किया  जाय। इसका अर्थ हुआ कि यदि कोई व्यक्ति इस अनुशासन को तोड़कर विवाह करता है तो ऐसे विवाह को परिवार अस्वीकृत कर सकता है और समाज भी बहिष्कृत कर सकता है । फिर भी परिवार और समाज को किसी भी रूप मे यह अधिकार नही होगा कि वह दोनो के संबंधो मे कोई बाधा उत्पन्न कर सके । हर प्रकार को प्रेम विवाह को स्वीकृति तो देनी ही होगी । भले ही आप उसे बहिष्कृत कर सकते है । वर-वधु को पति-पत्नी के रूप मे रहने की स्वतंत्रता है किन्तु यह बाध्यता नही हो सकती कि माता-पिता बिना सहमति के सास-ससुर मान लिये जाये । इस तरह समाज का और परिवार को यह कर्तव्य होगा कि वह प्रेम विवाह को निरूत्साहित करे, प्रोत्साहित नहीं जैसा कि वर्तमान मे हो रहा है । संपिड विवाह प्रत्येक व्यक्ति की मौलिक स्वतंत्रता है किन्तु समाज द्वारा निषिद्ध है । इसका अर्थ हुआ कि रक्त संबंधो के अंतर्गत किसी भी विवाह को पूरी तरह  अमान्य का देना चाहिये, किन्तु ऐसे संबंधो केा भी आप बल पूर्वक   नही रोक सकते । उन्हे आप प्राथमिकता के आधार पर बहिष्कृत ही कर सकते है । वर्तमान परम्परागत परिवार व्यवस्था  संपिड संबंधो पर नियंत्रण का एक बहुत ही अच्छा तरीका है जहां भाई बहन के बीच यौन आकर्षण को भावनात्मक रूप से विकर्षण के रूप मे बदल दिया जाता है । अर्थात बचपन से ही परंपरागत रूप से व्यक्ति के स्वभाव मे ऐसी भावना शामिल हो जाती है कि वह परिवार के सदस्यो के प्रति आमतौर पर आकर्षित नही होती । बल्कि आम तौर पर विकसित होती है ।

    विवाह प्रणाली कैसी हो और कैसे हो यह या तो वर वधु का विषय है अथवा परिवार का या विशेष स्थिति मे समाज का । इस मामले मे किसी भी रूप मे सरकारी कानून का कोई हस्तक्षेप नही होना चाहिये ।

          परम्परागत विवाहो की तीन मान्यताए है । 1 हिन्दूओ मे विवाह को जन्म जन्मांतर का संबंध माना गया है, तो  इसाइयों मे स्त्री पूरूष  के बीच आपसी समझौता और मुसलमानो मे पूरूष द्वारा महिलाओ का उपयोग । वर्तमान दुनियां मे भारतीय परम्पराये कमजोर पड़ रही है तथा इस्लामिक विवाह पद्धति को अमानवीय समझा जा रहा है । परस्पर समझौता की प्रणाली की ओर सारी दुनियां बढ़ रही है । मेरे विचार से यह व्यवस्था कोई गलत भी नही है । जिस प्रणाली के आधार पर परिवार व्यवस्था का सुचारू  संचालन हो सके उस व्यवस्था  को चलने देना चाहिये चाहे वह कोई भी व्यवस्था क्यो न हो। इसके बाद भी इस्लाम की व्यवस्था पूरी तरह गलत है क्योकि उस व्यवस्था मे स्वतंत्रता और समानता को पूरी तरह एक पक्षीय तरीके से बाधित किया गया है । पद्धति चाहे कोई भी हो, किसी भी प्रकार से चले किन्तु वह व्यक्ति परिवार और समाज तक ही सीमित हो सकती है । राज्य की उसमे किसी प्रकार की कोई भूमिका  नही हो सकती । भारत की परंपरागत प्रणाली मे राज्य की किसी प्रकार की कोई भूमिका थी  भी नही ।  यह तो अंग्रेजो के आने के  वाद राज्य अपनी दादागीरी  करने लगा । राज्य ने इस प्रणाली  मे अनावश्यक छेडछाड की, प्रतिबंध लगाये और तोडफोड़ पैदा की । वाल विवाह, वेश्यावृति नियंत्रण,  बारबाला प्रतिबंध, बहु विवाह प्रतिबंध, महिला सशक्तिकरण, युवा वृद्ध सशक्तिकरण  सहित ऐसे कानून बना दिये गये जिन्होने इस सामाजिक व्यवस्था को विकृत कर दिया । जब प्रत्येक व्यक्ति को मौलिक स्वतंत्रता है तब पति-पत्नी को अलग अलग होने से राज्य कैसे रोक सकता है । कोई भी किन्ही दो व्यक्तियो को अलग-अलग होने से किसी भी कानून के अंतर्गत नही रोक सकता किन्तु भारत मे तलाक के लिये भी सरकार  की अनुमति लेनी पड़ती है । दो लोग आपसी सहमति से शारिरीक  संबंध बनाते है तो इसमे सरकार का हस्तक्षेप  क्यो? दो लोग विवाह करने के लिये आपस मे सहमति से पैसे का लेन-देन करते है तो इसमे सरकर का दखल क्यो? निकम्मी सरकारे बलात्कार तो नही रोक सकती किन्तु वेष्या जैसे घृणित कार्य को रोकने के लिये पहरा करती है । हम किस उम्र मे विवाह करते है कितने विवाह करते है, कब संबंध विच्छेद करते है अथवा हम अपने परिवार मे महिला को सशक्त रखना चाहते है या पूरूष को ये सब परिवार के आंतरिक मामले है, कानून के नही । कानून अपने दायित्व पूरे नही कर पाता और महिला पूरूष के बीच सहमत और आंतरिक संबंधो मे हस्तक्षेप  करता है । किसी भी प्रकार  का कोई भी सरकारी हस्तक्षेप गलत है । आज कल की सरकारे तो प्रेम विवाह तक को प्रोत्साहित कर रही हैं जो पूरी तरह गलत है । प्रेम विवाह किसी भी स्थिति मे  न तो प्रोत्साहित किया जा सकता है न ही उसे कानून से रोका जा सकता है । समाज इसे बल पूर्वक रोकना चाहता है और सरकार प्रोत्साहित करती है ।

     मेरे विचार से विवाह प्रणाली को परिवार और समाज के साथ अनुशासित होना चाहिये । प्रेम विवाह का प्रोत्साहिन बंद होना चाहिये । विवाह तलाक दहेज जैसे किसी भी मामले मे सरकार का हस्तक्षेप  बंद होना चाहिये । सहमत सेक्स प्रत्येक व्यक्ति का मौलिक अधिकार  है । इसे किसी भी परिस्थिति मे किसी कानून अथवा बल प्रयोग द्वारा नही रोका जा सकता ऐसी सामाजिक धारणा बननी चाहिये । साथ ही यह विचार भी आना चाहिये कि परिवार व्यवस्था सहजीवन की पहली पाठशाला है । उस पाठशाला मे प्रवेश करने के लिये विवाह  व्यवस्था एक अच्छा समाधान है । यह बात भी आम लोगो को समझाई जानी चाहिये । परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था के प्रति जो विरोध का वातावरण राजनेताओ तथा विशेष कर वाम पंथियो द्वारा समाज मे बनाया जा रहा है इसे भी पूरी तरह रोका जाना चाहिये और हर तरह का ऐसा प्रयत्न होना चाहिये जिसमे विवाह की पवित्रता बनी रहे ।

     आजकल न्यायालय भी इन मामलो मे बिना सोचे समझे  निर्णय कर रहे है । लिव इन रिलेशनशिप व्यक्ति की स्वतंत्रता तो है किन्तु उसे सामाजिक मान्यता नही दी जा सकती । यदि न्यायालय लिव  इन रिलेशनशिप को सामाजिक मान्यता दे देते हैं और विवाह  प्रणाली पर कानूनी प्रावधान लागु करते है तो स्वाभाविक है कि विवाह प्रणाली निरूत्साहित होगी और लिव इन रिलेशनशिप प्रोत्साहित । स्वाभाविक है कि ऐसे प्रयत्नो से प्रेम विवाह प्रोत्साहित होगे और परिवार सहमति के विवाह निरूत्साहित । खाप पंचायत के आपराधिक आदेशो को रोका जा सकता है किन्तु गिने चुने आपराधिक  हस्तक्षेप  को माध्यम बनाकर खाप पंचायतो के सामाजिक प्रयत्नो को नही रोका जा सकता । आज कल देखने मे आ रहा है कि भारत के न्यायालय जब मन मे आता है तब कानून का सहारा ले लेते है और जब मन मे आता तब जनहित को परिभाषित करने लग जाते है । न्यायालयो को भी इस मामलो मे और अधिक गंभीर होना चाहिये विवाह संबंध दो व्यक्तियो के संबंध है, दो परिवारो के संबंध है और समाज व्यवस्था को ठीक ढंग से विकसित करने का एक बडा माध्यम है। उससे खिलवाड़ करना ठीक नही ।