भारत की अर्थनीति और आर्थिक बजट

दुनियाँ में आर्थिक दृष्टि से दो ही प्रणालियाँ प्रचलित रही हैं- 1 पूँजीवाद 2 साम्यवाद । इस्लाम की पहचान धार्मिक आधार पर है, आर्थिक पर नहीं । भारत लम्बे समय से गुलाम रहने के कारण अपनी कोई आर्थिक पहचान नहीं बना सका । पश्चिम के अधिकांश देश पूँजीवाद के समर्थक हैं तो वामपंथी अधिकांश देश साम्यवादी अर्थव्यवस्था के । यह अलग बात है कि पिछले कुछ वर्षों से साम्यवादी देश भी धीरे-धीरे पूँजीवाद की तरफ सरक रहे है ।

         पश्चिम के देश अन्य देशों का शोषण करके अपनी प्रगति करते हैं । वे उन्नत तकनीक का लाभ उठाकर दुनियाँ के देशों में अपना सामान निर्यात करते हैं । उस निर्यात से प्राप्त लाभ से वे विकास करते है । पश्चिम के अधिकांश देश श्रम अभाव देश है तथा श्रम बहुल देशों से श्रम आयात करना उनकी मजबूरी है । दूसरी ओर साम्यवादी देश मनुष्य को अपनी राष्ट्रीय सम्पत्ति समझते है, विष्व व्यवस्था के स्वतंत्र सदस्य नहीं। साथ ही वे अपना श्रम बाहर नहीं जाने देना चाहते। यही कारण है कि वे प्रषानिक दृष्टि से कडे़ प्रतिबंध लगाकर श्रम को अपने पास रोक कर रखते है। साथ ही उनकी मजबूरी है कि वे दुनियां में अपना सामान निर्यात करने के लिए श्रम को सस्ता भी रखें। यदि साम्यवादी देषों में श्रम महंगा हो जायेगा तो उनका निर्यात प्रभावित होगा और यदि कडे़ प्रषासन द्वारा श्रम को रोक कर नहीं रखा गया तो उनका श्रम दूसरे देषों में चला जायेगा। इस तरह पॅूजीवादी अर्थव्यवस्था वाहृय शोषण पर टिकी हुई है, तो साम्यवादी व्यवस्था आंतरिक शोषण पर । क्योकि साम्यवाद मनुष्य को एक प्राकृतिक प्राणी न मानकर राष्ट्रीय सम्पत्ति मानता है। इसी तरह पष्चिम के पूॅजीवादी देश बुद्धि को अपने विकास का महत्वपूर्ण हथियार मानते है, तो वामपंथी देश श्रम को।

     भारत मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहाॅ श्रम की बहुलता है, जहाॅ लोकतंत्र है, जहाॅ मानव संसाधन विकास मंत्रालय है। इसका अर्थ हुआ कि भारत मानव को संसाधन मानता है, राष्ट्रीय सम्पत्ति नहीं। भारत सन् 1991 तक वामपंथी अर्थव्यवस्था के पीछे-पीछे चला।  सन् 1991 के बाद भारत पूॅजीवाद की तरफ सरक कर मिश्रित अर्थव्यवस्था का देश बन गया। नरेन्द्र मोदी के आने के बाद भारत पूरी तरह पॅूजीवाद के साथ हो गया। अब भारत दोनांे प्रकार की विचारधाराओं से आर्थिक आधार पर प्रतिस्पर्धा कर रहा है। परिणाम हुआ कि पष्चिम के पॅूजीवादी देश भारत की तेज गति पर लगाम लगाने के लिए कई हथकंडे अपना रहे हैं। भारत में ये लोग पर्यावरण और मानवाधिकार के नाम पर अपने एजेंट खडे़ करके विकास की गति को कमजोर  करते रहते हैं। दूसरी ओर चीन भी लगातार प्रयत्न करता है कि भारत में श्रम मूल्य बिल्कुल न बढे़ क्योंकि यदि भारत में श्रम मूल्य बढ़ेगा तो चीन बिल्कुल सटा होने के कारण वहाॅ के श्रमजीवियों में असंतोष बढ़ेगा । यही कारण है कि भारत के साम्यवादी लगातार प्रयास करते है कि भारत में कृत्रिम ऊर्जा बहुत सस्ती रहे, और वह श्रम मूल्य बिल्कुल न बढ़ने दे ।

      भारत में भी पूरी दुनियां की तरह प्रतिवर्ष आर्थिक बजट बनाया जाता हैं । बजट का बहुत महत्व होता है क्योंकि आर्थिक बजट ही श्रम को सस्ता रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं, तथा लोकतंत्र होने के कारण श्रम को धोखे में रखना भी आवश्यक है । भारत एक श्रम बहुल देश है, और भारत का बहुमत श्रमजीवी है । यही कारण है कि भारत पूरा प्रयत्न करता है कि श्रम और बुद्धि के बीच अंतर बढ़ता चला जाये । घाटे की अर्थव्यवस्था पर चलना आवश्यक है, गरीब ग्रामीण श्रमजीवी के उत्पादन और उपभोग की सभी वस्तुओं पर अधिक से अधिक कर लगाकर शिक्षा पर खर्च करना भी आवश्यक है । ऐसा बजट ही श्रम को धोखा भी दे सकता है तथा उसकी मूल्यवृद्धि भी रोक कर रख सकता है ।

       मैं जानता हूँ कि वर्तमान परिस्थितियों में तत्काल आदर्श बजट नहीं रखा जा सकता किन्तु इस वर्ष उस दिशा में चलने की शुरुवात तो हो सकती है । आदर्श बजट में पाँच लक्ष्य शामिल होना चाहिए- 1. अकेन्द्रीयकरण 2. अपराध नियंत्रण 3. आर्थिक असमानता में कमी 4. श्रम की मांग और मूल्यवृद्धि 5. समान नागरिक संहिता । अकेन्द्रीयकरण के लिए केन्द्र सरकार को न्याय, सुरक्षा, विदेश जैसे विभाग अपने पास रखकर शेष सम्पूर्ण आर्थिक राजनैतिक व्यवस्था तथा पूर्ण स्वायत्तता परिवार, गाँव, जिला, प्रदेश और केन्द्र सभा को दे देनी चाहिए । केन्द्र सभा का अर्थ है सेना, पुलिस, विदेश न्याय को छोड़कर अन्य सभी विभाग जो नीचे की इकाइयाँ उन्हें सौंपे ।

       सरकारों का बजट दो प्रकार से बनता है- 1. सब लोगों से टैक्स लिया जाये तथा गरीबों को छूट दी जाये । 2. अमीरों से टैक्स लिया जाये तथा सबको छूट दी जाये । विशेष परिस्थिति में ही अमीरों से टैक्स लेकर गरीबों को छूट दी जाती है किन्तु सामान्यतया ऐसा नहीं होता । आदर्श अर्थव्यवस्था यह है कि सभी प्रकार के उपयोग की प्राथमिकता के आधार पर सूची बनाकर नीचे से तब तक कर लगाया जाये जब तक सरकार का बजट पूरा न हो जाये । दूसरी ओर यदि बजट बनाने वालो पर श्रमजीवियों के विरुद्ध बुद्धिजीवियों पूँजीपतियों का अधिक प्रभाव हो तो बजट बनाने में दो प्रकार की चालाकी होती हैं । 1. जो वस्तु गरीब ग्रामीण, श्रमजीवी के अधिक उपयोग की हो उन पर अप्रत्यक्ष कर लगाकर उन्हें प्रत्यक्ष सब्सिडी देना । 2. जो वस्तु सम्पन्न शहरी बुद्धिजीवी अधिक उपयोग करते हो उन पर प्रत्यक्ष कर लगाकर अप्रत्यक्ष सब्सिडी देना । रोटी, कपड़ा, मकान, दवा ऊपर से क्रम में आते है तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन आदि उसके बाद । भारत की राजनैतिक व्यवस्था टैक्स और सब्सिडी के मामले में भी दूसरे प्रकार का उपयोग करती हैं । सब जानते है कि रोटी, कपड़ा, मकान, दवा आदि आम उपभोक्ता वस्तुएँ हैं तथा इनका गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी अधिक उपयोग करते है । दूसरी ओर कृत्रिम ऊर्जा गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी कम उपयोग करते है, अमीर, शहरी, बुद्धिजीवी लोग अधिक । सरकार रोटी, कपड़ा, मकान, दवा जैसी वस्तुओं पर अप्रत्यक्ष कर लगाकर गरीबों को प्रत्यक्ष छूट देती है । दूसरी ओर कृत्रिम ऊर्जा पर कम कर लगाकर शहरी, अमीर, बुद्धिजीवी लोगों को सब प्रकार की अप्रत्यक्ष छूट देती है । साथ ही सरकारें अपने बजट में आवागमन को भी सस्ता करने की भरसक कोशिश करती हैं जबकि प्राथमिकता के क्रम में आवागमन रोटी, कपड़ा, मकान, दवा के बाद ही आता है । हम अपने बजट में इस स्थिति को बिल्कुल पलट देंगे ।   

                  वर्तमान समय में भारत का वार्षिक बजट केन्द्र सरकार तथा प्रदेश सरकारों का मिलाकर चालीस लाख करोड़ का हैं । मैं इसे बढ़ाकर पचास लाख करोड़ करना चाहता हूँ । इसकी आय के लिए मैं दो प्रकार के टैक्स प्रस्तावित करता हूँ -1. सम्पूर्ण व्यक्तिगत सम्पत्ति पर अधिकतम दो प्रतिशत वार्षिक कर 2. कृत्रिम ऊर्जा के सभी संसाधनों का मूल्य ढाई गुना करना । मेरा अनुमान है कि सम्पत्ति कर से करीब पच्चीस लाख करोड़ तथा कृत्रिम ऊर्जा मूल्यवृद्धि से भी पच्चीस लाख करोड़ प्राप्त होकर वार्षिक बजट पूरा हो जायेगा । अन्य किसी प्रकार का कोई टैक्स नहीं लगाना पड़ेगा । बल्कि वर्तमान में जारी केन्द्र और प्रदेश स्तर के सभी प्रकार के कर समाप्त कर दिये जायेंगे । वर्तमान में सेना, पुलिस, न्याय पर चार लाख करोड़ का खर्च होता है, इसे दस लाख करोड़ तक बढ़ाया जायेगा । पुराना कर्ज और ब्याज चुकाने में चार लाख करोड़ खर्च होता है इसे बढ़ाकर छः लाख करोड़ कर दिया जायेगा । इक्तीस लाख करोड़ रुपये में बीस हजार रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिमाह के आधार पर जीवन भत्ता के रुप में परिवारों को उनकी सदस्य संख्या के आधार पर दे दिया जायेगा । जिसमें करीब इक्तीस लाख करोड़ रुपया खर्च होगा । शेष तीन लाख करोड़ बचेगा, जो विशेष परिस्थिति के लिए रहेगा ।

      इस तरह के बजट से अर्थव्यवस्था लगभग अकेन्द्रित हो जायेगी । सुरक्षा और न्याय भी निश्चित हो जायेगा, श्रम मूल्य बढ़ेगा तथा श्रम बुद्धि और धन के बीच असमानता अपने आप कम हो जायेगी । प्रत्येक व्यक्ति को समानता के आधार पर टैक्स तथा सुविधा मिलने से समान नागरिक संहिता का भी काम हो जायेगा । शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, वैज्ञानिक शोध आदि विभाग या तो अपनी व्यवस्था स्वयं करेंगे अथवा सभाएँ टैक्स लगाकर या अन्य माध्यमों से पूरा करेंगी । क्योंकि इक्तीस लाख करोड़ केन्द्र सरकार नीचे वालों को दो हजार रुपया प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह के रुप में दे रही है ।

      मैं समझता हॅू कि कृत्रिम ऊर्जा मूल्यवृद्धि से निर्यात प्रभावित हो सकता है । किन्तु हम विदेशी प्रतिस्पर्धा के आधार पर निर्यात मूल्यों में अतिरिक्त छूट देकर उसे संतुलित कर सकते है । कृत्रिम ऊर्जा मूल्यवृद्धि से भारत का श्रम भी उत्पादन में लगेगा तथा उत्पादन में वृद्धि होगी । विशेष लाभ ये होगा कि प्रतिवर्ष भारत में दस प्रतिशत विदेशी तेल का आयात घटता जायेगा तथा पांच-सात वर्षो मे पूरी तरह समाप्त हो जायेगा । उसकी जगह बिजली सौर ऊर्जा आदि काम में आने लग जायेंगे । इस तरह मैं समझता हूँ कि भारत का एक नया आर्थिक ढांचा बनाया जा सकता है जो भारत को आंतरिक न्याय तथा विदेशों से प्रतिस्पर्धा में भी सहायक होगा ।