अभिमान, स्वाभिमान, निरभिमान
कुछ सर्वमान्य सिद्धांत हैं-
1 किसी इकाई का प्रमुख जितना ही अधिक भावनाप्रधान होता है, उस इकाई की असफलता के खतरे उतने ही अधिक बढते जाते हैं । दूसरी ओर जिस इकाई का संचालक जितना ही अधिक विचार प्रधान होता है उस इकाई की सफलता के अवसर उतने ही अधिक होते है ।
2 भावनाप्रधान व्यक्ति का नेतृत्व अपनी इकाई को नुकसान पहुचाता है तथा अन्य इकाईयों को लाभ । विचार प्रधान नेतृत्व अपनी इकाई को तो लाभ पहुचाता है किन्तु अन्य के लिए लाभदायक भी हो सकता है और हानिकारक भी ।
3 भावनाप्रधान नेतृत्व न तो समस्याओं का समाधान कर सकता है न ही समस्याएं बढ़ाता है । विचार प्रधान नेतृत्व ही समस्याओं का विस्तार भी कर सकता है और समाधान भी ।
4 चाहे व्यवस्था व्यक्तिगत हो, पारिवारिक हो अथवा सामाजिक । व्यवस्था प्रमुख को हमेशा भावना और बुद्धि के बीच समन्वय करने वाला होना चाहिए ।
5 भावनाप्रधान व्यक्ति हमेशा शरीफ होता है और बुद्धिप्रधान आमतौर पर चालाक या धूर्त । बुद्धि और भावना का समन्वय ही समझदारी मानी जाती हैं ।
हम यहाँ मान, अपमान,सम्मान, अभिमान, स्वाभिमान,निरभिमान जैसे विषय पर चर्चा कर रहे है और इस चर्चा में भी अभिमान स्वाभिमान और निरभिमान मुख्य विषय हैं । मैं जानता हॅू कि विषय पूरी तरह नीरस और अरुचिकर है । मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए तो ऐसी व्याख्या करना बहुत ही कठिन है किन्तु मंथन योजना के अंतर्गत यह नीरस और कठिन विषय शामिल है । इसलिए अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार मंथन के अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग मेरे पास नहीं है ।
चाहे स्वाभिमान हो या निरभिमान और अभिमान, सबका संबंध भावनाओं से ही है । कोई भी बुद्धिप्रधान व्यक्ति इन तीनों मानों से लिप्त नहीं होता क्योंकि व्यक्ति चाहे निरभिमानी हो अथवा स्वाभिमानी किसी समस्या का समाधान नहीं कर पाता, चाहे वह मामला इकाईगत प्रगति से जुड़ा हो अथवा सामाजिक समाधान का । समस्याएं पैदा करने में तो मुख्य रुप से बुद्धिप्रधान व्यक्ति की ही प्रमुख भूमिका होती है । निरभिमानी की तो समस्याएं पैदा करने में कभी कोई भूमिका होती ही नहीं । अभिमानी व्यक्ति अवश्य कभी-कभी समस्याएं पैदा कर लेता है । जो व्यक्ति अपनी योग्यता और क्षमता का ठीक-ठीक आकलन न करके अपनी क्षमता बहुत अधिक मान लेता है और तदनुसार दूसरों के साथ व्यवहार करता है ऐसे व्यक्ति को अभिमानी माना जाता है । अभिमानी तो हमेशा गलत ही होता है । स्वाभिमानी और निरभिमानी परिस्थितिजन्य अच्छे और गलत हो सकते है । जब समाज की परिस्थितियां ठीक हो और प्रत्येक को व्यवस्था के द्वारा न्याय मिलने की पर्याप्त संभावना हो तब व्यक्ति को निरभिमानी होना चाहिए,स्वाभिमानी नहीं । किन्तु जब व्यवस्था ही गड़बड़ हो, न्याय मिलने की संभावना न हो तब व्यक्ति को स्वाभिमानी होना चाहिए क्योकि ऐसे समय में निरभिमान समाज के लिए घातक होता है । इस संबंध में एक बात और विचारणीय है कि ब्राम्हण, वैष्य तथा श्रमजीवी प्रवृत्ति का व्यक्ति आमतौर पर स्वाभिमानी नहीं हो सकता । क्षत्रिय अर्थात राजनैतिक सत्ता संघर्ष में लिप्त व्यक्ति या तो स्वाभिमानी होता है या तो अभिमानी । राजनीति से जुड़ा व्यक्ति कभी निरभिमानी हो ही नहीं सकता क्योंकि राजनीति से जुडा व्यक्ति विद्वान, विचारक, व्यवसायी, श्रमिक भले ही कुछ भी हो किन्तु मान अपमान सम्मान से बहुत अधिक प्रभावित नहीं होते । ऐसे लोग परिस्थितियों के आधार पर भी समझौता कर लिया करते है । कहावत है कि एक कम्बल में चार साधु आराम से पूरी रात गुजार सकते है किन्तु एक राज्य में दो राजपुरुष न कभी स्वयं चैन से रहेंगे, न ही दूसरों को रहने देंगे क्योंकि हर मामले में उनका स्वाभिमान या अभिमान आड़े आ जाता है ।
मैंने इस संबंध में बहुत विचार किया और पाया कि भारत की वर्तमान राजनैतिक परिस्थितियों में आम लोगों को अपना स्वाभिमान बनाये रखने की आवश्यकता है क्योंकि राजनीति सम्पूर्ण समाज पर हावी हो गई है और राजनेताओं का इसी में हित है कि समाज के अन्य लोग सिर झुकाकर चलने की आदत डाल लें । परिस्थितियां बहुत विकट हैं । किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा । अभिमान को कुचलने के लिए कोई निरभिमानी नेतृत्व सफल नहीं हो सकेगा । इसलिए वर्तमान परिस्थितियां बहुत जटिल है और इन जटिल परिस्थितियों में समाज को बहुत सोच समझकर आगे बढ़ना चाहिए ।
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