अफजल गुरू और फांसी की सजा

भारतीय संसद पर आक्रमण की योजना के प्रमुख सूत्राधार होने के अपराध में सर्वोच्च न्यायालय ने भी अफजल गुरू की फांसी की सजा की पुष्टि कर दी। अफजल गुरू ने राष्ट्रपति जी से क्षमा की अपील की फांसी की सजा की न्यायालय से पुष्टि और राष्ट्रपति जी से क्षमा याचना के साथ ही याचना के पक्ष विपक्ष में तर्क और दबावों का भी क्रम प्रारंभ हो गया। वामपंथी, मुस्लिम बहुमत तथा हिन्दु अल्पमत, सजा मांफी के पक्ष में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आगे आया तो दक्षिणपंथी, मुस्लिम अल्पमत तथा हिन्दुओं का बहुमत ऐसी किसी भी मांफी के विरूद्ध था। राष्ट्रपति जी ने प्रार्थनापत्र गृह मंत्रालय को भेज दिया जहाँ वह अब भी विचाराधीन है।

 सजा माफी के पक्ष में मुख्य रूप से छः बातें प्रकाश में आई हैं-

(1) अफजल गुरू ने क्षमा याचना की है। क्षमा याचना के मुद्दे पर विचार करते समय दो बात विचारणीय होती है , (क) अपराधी ने भावनाओं में बहकर अपराध कर दिया जिसका उसे बाद में पश्चाताप हुआ, (ख) अपराधी अब तक अपने कार्य को ठीक मानता था किन्तु अब उसे विश्वास हो गया कि उसका कार्य गलत था। अफजल गुरू के मामलें में दोनों बातें नहीं हैं। अफजल ने जो काम किया वह पूरी तरह सोच समझ कर किसी योजना के अन्तर्गत किया, क्षणिक आवेश में नहीं। अपराध करने से लेकर सजा घोषित होने तक कहीं भी उसे अपने किये का पश्चताप नहीं रहा। राष्ट्रपति जी को प्रेषित पत्र के बाद भी उसके व्यवहार से कहीं भी ऐसा स्पष्ट नहीं है कि उसे अपने किये का पछतावा हो। बीस पृष्ठों को आवेदन ही इस बात का प्रमाण है कि उसमें याचना कम और तर्क अधिक होंगे। भारत में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जिसे विश्वास हो कि अफजल को अपने किये पर पछतावा हैं।

(2) किसी भी व्यक्ति को फांसी देना अमानवीय है। इसलिये अफजल की भी फांसी अमानवीय है। भारत के वामपंथी, मानवाधिकारवादी तथा तथाकथित धर्म निरपेक्ष लोग यही तर्क दे रहे हैं। धनंजय की फांसी के समय भी इन्होने यही प्रश्न उठाया थ। कोई भी सजा मानवीय न होती है न हो सकती है। सजा का आधर यह होता है कि वह (क) पीड़ित की संतुष्टि, (ख) अपराधी के मन में सुधार और (ग) समाज पर प्रभाव तथा न्यूनतम अमानवीय के बीच संतुलन पैदा करने वाला होना चाहिये। अफजल के मामलें में पीड़ित की संतुष्टि का प्रश्न ही नहीं है और न ही अपराधी के सुधार का है। विचारणीय प्रश्न यह है समाज पर फांसी का प्रभाव कितना पड़ सकता है। भारत में जघन्य अपराधों का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। ऐसे अवसर पर विचारणीय प्रश्न यह नहीं है कि दण्ड अमानवीय हो या मानवीय है। विचारणयीय प्रश्न यह है कि दण्ड कितना प्रभावोत्पादक है। जो लोग दण्ड के मानवीय और प्रभावोत्पादक होने के दोनों पक्षों को साथ में विचारार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं ऐसे लोगों के विचार तो इस विचार मंथन में शामिल किये जाने योग्य हैं किन्तु जो लोग दण्ड के प्रभाव की चिन्ता छोड़कर सिर्फ दण्ड के मानवीय अमानवीय होने का तर्क देते हें वे या तो बकवास मात्र मानकार विचार मंथन से दूर हटाने योग्य हैं या वे किसी दूरगामी योजना के अंतर्गत दण्ड की मानवता का प्रश्न उठाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। दण्ड के समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन के आधार पर मेरा यह मत बना है कि भारत की वर्तमान आपराधिक पृष्ठभूमि को देखते हुए दण्ड व्यवस्था को कुछ और अधिक कठोर तथा अमानवीय करने की आवश्यकता है जिसके अन्तर्गत यदा-कदा प्रतीक स्वरूप सार्वजनिक फांसी की प्रथा शुरू कर दी जाय। जो लोग भी फांसी की सजा के विरूद्ध आवाज उठाते हैं उनमें से एक भी आवाज ऐसी नहीं है जिसने दण्ड के प्रभावशाली होने की कोई चिन्ता की हो। यदि ये लोग फांसी की सजा का कोई प्रभावकारी विकल्प प्रस्तुत किये बिना फांसी हटाने की बात कर रहे हैं उन्हें इस चर्चा से दूर करना ही उचित है।

(3) पाकिस्तान से संबंधो पर बुरा असर पड़ेगा। प्रश्न उठता है कि क्या अफजल गुरू को पाकिस्तान अपना मानता है? पूरी दुनिया जानती है कि संसद पर होने वाले हमले से प्रत्यक्ष या अप्रत्क्ष सहानुभूति पाकिस्तान की रही किन्तु क्या पाकिस्तान उसे प्रत्यक्ष करना चाहेगा? जो भी लोग अफजल की फांसी को पाकिस्तान से जोड़कर प्रस्तुत कर रहे हैं वे भारी भूल कर रहे हैं। अफजल की फांसी से पाकिस्तान को आन्तरिक रूप से चाहे जितना कष्ट हो किन्तु उसका लेश मात्र प्रभाव भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता। कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला जी ने तो पाकिस्तान में होने वाली प्रतिक्रिया के संबंध में यहाँ तक कह दिया कि अफजल की फांसी के परिणाम स्वरूप पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ का तख्ता भी पलटा जा सकता है जिसका दुष्प्रभाव भारत की शान्ति वार्ता पर पड़ेगा। आश्चर्य होता है कि ऐसे गंभीर राजनेता भी अपनी भावनाएँ व्यक्त करते समय ऐसे ऐसे अतिवादी तर्को का सहारा ले लेते हैं जो तर्क सामान्य व्यक्ति भी कुतर्क मानता है।

(4) सम्पूर्ण भारत और विशेष रूप से कश्मीर में भयानक अशान्ति हो सकती है। फारूक जी ने इस संबंध में तर्क प्रस्तुत किया कि अफजल की फांसी से पूरे भारत में अशान्ति हो जायेगी। आतंकवादी जजों की भी हत्या कर सकते है। आवंकवादी कार्यवाही के कारण पूरे भारत के हिन्दू मुस्लिम रिश्ते भी नष्ट हो सकते हैं। कश्मीर में भी आग लग जायेगी। ’’फारूक अब्दुल्ला ने जो कुछ कहा वह अत्यन्त आपत्तिजनक होते हुए भी इस लेख में विचारणीय नहीं है, क्योंकि उन्हें जब भूल का अनुभव हुआ तो उन्होंने और कश्मीर के मुख्यमंत्री गुलामनवी आजाद जी ने अपने उकत कथन के भवार्थ को कुछ पलटने का प्रयास किया। दूसरी बात यह भी है कि जो आदमी अफजल की फांसी के कारण पाकिस्तानी राष्ट्रपति के तख्ता पलट तक के तर्क दे सकता है वह यदि भारत के किसी जज की हत्या, भारत में अशान्ति, कश्मीर में आग लगने जैसी बात करे तो हमें ऐसी अनर्गल बातों को ओर ऐसी अनर्गल बातें करने वाले को गंभीर विचार विमर्श में शामिल नही करना चाहिये। किन्तु भारत में कई लोगों ने इतनी आशंका तो अवश्य व्यक्त की है कि इससे सम्पूर्ण भारत में अशान्ति का वातावरण बनेगा। इससे आतंकवाद बहुत अधिक सक्रिय हो सकता है। इससे मुसलमानों के मन में दुख हो सकता है आदि। ऐसी आशंकाओं में कुछ यथार्थ भी हो सकता है। प्रश्न उठता है कि क्या अब तक की भारत में शान्ति व्यवस्था कट्टरपंथियों की दया पर निर्भर है? क्या वे जब चाहें तब इस शान्ति को प्रभावशाली ढंग से ध्वस्त कर सकते हैं? यदि सच में ऐसा है तो यह तो गंभीर चिन्ता का विषय है। मुझे तो ऐसा कभी नहीं लगता कि आतंकवादी फिदायनी दस्ते बनकर मरने तक के कार्य शुरू कर चुके हैं तो ऐसी कल्पना बेमानी होगी कि आतंकवादी आतंक फैलाने में कोई कसर छोड़ रहे हैं।

(5) इससे मुसलमानों में गलत संदेश जायेगा। यह बात भी कई तरफ से उठी है। मुख्य प्रश्न यह है कि भारत का मुसलमान अफजल को आतंकवादी मानता है कि मुसलमान। यद्यपि अफजल को माफ करने के पक्ष में ज्यादा मुसलमानों ने आवाज उठाई किन्तु कुछ मुसलमानों ने अफजल को आतंकवादी मानकर फांसी का समर्थन भी किया है। यह एक शुभ लक्षण है। यदि साम्प्रदायिक मुसलमानों के वोटों की चिन्ता करके फांसी में हेर-फेर हुआ तो धर्म निरपेक्ष मुसलमानों की आवाज और कमजोर हो जायेगी जिसका परिणाम ज्यादा खराब होगा।

(6) अफजल को ठीक से न्याय नहीं मिला। यह तर्क देने वालों का मुख्य आधार यह है कि अफजल उक्त आक्रमण से सीधा संबंध न होकर योजनाकार मात्र था। उनकी नजर में योजनाकार का अपराध अपराधी से छोटा ही हो सकता है, बड़ा नहीं। मेरा अपना विचार यह है कि योजनाकार का अपराध संलिप्त से अधिक गंभीर होता है कम नहीं। अपराधी प्रेरित थे और अफजल प्रेरक। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद अफजल को निर्दोष कहने वालों में न्याय भाव कम दिखता है और अपनत्व ज्यादा। अफजल को निर्दोष सिद्ध करते समय तो इन्हीं की नजर में न्यायालय न्याय का मंदिर था। अब एकाएक वहाँ कैसे अन्याय हो गया?

     कुछ लोगों ने अफजल की फांसी के समर्थन में प्रदर्शन किये। उनके मुख्य दो तर्क थे।

(1) कानून व्यवस्था मजबूत होगी। इनके इस तर्क में दम है। अफजल को फांसी होने से भारत में न्याय और कानून पर विश्वास बढ़ेगा। यह तर्क सामान्य जनों के लिये तो ठीक है किंतु यह तक जब वे लोग प्रस्तुत करते हैं जिन्होने गोडसे की फांसी का विरोध किया था तब थोड़ा सा कुतर्क लगता है। गोडसे के अपराध की तुलना में अफजल का अपराध न अधिक वीभत्स है न गंभीर। अफजल के कृत्य के परिणामों की अपेक्षा गोडसे के कृत्य का अधिक गंभीर दुष्परिणाम हुआ। गांधी का विकल्प आज तक नहीं बन सका। गांधी की हत्या के समर्थक जब अफजल फांसी में औरों से ज्यादा आगे-आगे उछलते हैं तो कहीं न कहीं ’’बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा और बिल्ली उसका लाभ उठाने के लिये टूट पड़ी ’’ जैसी कहावत की गंध आती है। भाजपा इस प्रकरण का लाभ उठाना चाहती है जो स्वभाविक भी है किन्तु भाजपा को ऐसे गंभीर मुद्दों पर जन उभार का अवसर देना चाहिये, राजनैतिक लाभ हानि का नहीं। अफजल की फांसी का मुद्दा कोई साधारण मुद्दा नहीं जिसे राजनैतिक लाभ हानि की भेंट चढ़ाया जायें।

(2) राष्ट्रपति के क्षमादान की न्यायिक समीक्षा संभव है। मेरे विचार में यह एक खतरनाक परंपरा होगी। आज न्यायपलिका विधायिका की अपेक्षा अधिक संवेदनशील है, किन्तु भविष्य में भी न्यायपालिका का पतन कभी नहीं होगा यह बात गारंटी से नहीं कही जा सकती। हम पतित विधायिका और कार्यपालिका मिलकर वोटों के लालच में अफजल की फांसी को आजीवन कारावास में बदल भी दे तो कोई आसमान नहीं टूटने वाला है कि हम उक्त मामले को पुनः न्यायिक समीक्षा की वकालत करने लग जावें।

     अफजल की फांसी के पक्ष विपक्ष में सारे तर्को पर विचार करने के बाद मेरा यह मत है कि विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका को मिलकर इस मामलें में अपराधी की सार्वजनिक फांसी का आदेश प्रसारित करना चाहिये। यही आज की समय की मांग है और न्याय का तकाजा। इसके लिये किस पक्ष को क्या करना होगा यह बताना मेरा काम नहीं। मेरा काम तो सिर्फ परिस्थितिजन्य आवश्यकता की ओर इशारा करना मात्र है कि ऐसे खतरनाक अपराधी को सार्वजनिक फांसी देकर हम दुनिया के आतंकवाद को एक मजबूत आतंकवाद विरोधी संदेश देने में सफल हो सकेंगे।