भारतीय संविधान की एक समीक्षा

भारतीय संविधान की एक समीक्षा 

पूरी दुनियां मे छोटी-छोटी इकाइयों से लेकर राष्ट्रीय सरकारो तक के अपने-अपने संविधान होते हैं और उक्त संविधान के अनुसार ही तंत्र नीतियां भी बनाता है और कार्य भी करता है किन्तु हम वर्तमान लेख मे भारतीय संविधान तक समीक्षा करने तक सीमित है ।

       तानाशाही और लोकतंत्र बिल्कुल विपरीत प्रणालियां हैं । तानाशाही में शासन का संविधान होता है और लोकतंत्र मे संविधान का शासन । भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इसलिये हम कह सकते है कि यहां संविधान का शासन है भी और होना भी चाहिये । दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशो मे संविधान का शासन माना जाता है । स्वाभाविक है कि लम्बे समय के बाद संविधान मे कुछ बदलाव की आवश्यकता होती है । यदि हम पूरी दुनिया का आकलन करें तो अन्य लोकतांत्रिक देशो मे भी वर्तमान संविधान अपेक्षित परिणाम नही दे पा रहे किन्तु यदि हम भारत का आकलन करे तो भारतीय संविधान सत्तर वर्षो मे ही विपरीत परिणाम देता रहा है और यह गति आज तक बढ रही है । दुनिया के संविधान बनाने वालों की यदि समीक्षा करें तो हो सकता है कि उनसे कुछ भुल ही हुई हो अथवा लम्बा समय बीतने के बाद कुछ परिस्थितियां बदली हों । किन्तु भारतीय संविधान बनाने वालो से अनेक भूले तो हुई ही किन्तु उनकी नीयत पर भी संदेह होता है ।

       यदि हम लोकतंत्र को ठीक-ठीक परिभाषित करें तो लोकतंत्र का अर्थ होना चाहिये लोक नियंत्रित तंत्र । भारतीय संविधान निर्माताओ ने इसे बदल कर लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित कर दिया । वेसे तो पूरी दुनिया  मे कही भी लोकतंत्र की आदर्श परिभाषा स्पष्ट नही है किन्तु भारत में तो दुनिया से अलग लोकतंत्र की अपनी अलग परिभाषा बना ली । ऐसा लगता है कि हमारे संविधान निर्माताओ मे सत्ता प्राप्त करने की बहुत ज्यादा जल्दी थी । आदर्श स्थिति मे तंत्र प्रबंधक होता है और लोक मालिक किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओ ने तंत्र को प्रबंधक की जगह शासक कहना शुरू कर दिया, जिसका अर्थ हुआ कि लोक मालिक नही बल्कि शासित है । तंत्र के अधिकार लोक की अमानत होते है किन्तु हमारे तंत्र से जुडे लोगो ने उन्हे अमानत न समझ कर अपना अधिकार मान लिया ।

           पूरी दुनिया मे न तो संविधान की कोई स्पष्ट परिभाषा बनी न ही मूल अधिकार की । यहां तक कि अपराध, गैर कानुनी, अनैतिक की भी अलग-अलग व्याख्या दुनिया मे नही हो पाई । राज्य का दायित्व क्या हो और स्वैच्छिक कर्तव्य क्या हो, यह भी नही हो पाया । दुर्भाग्य से हमारे संविधान निर्माताओ ने जल्दबाजी मे या नासमझी मे इस प्रकार की परिभाषाओ पर चिंतन मंथन करने की अपेक्षा विदेशी संविधानों की नकल करना उचित समझा । परिणाम आपके सामने है कि आज तक ऐसे गहन मौलिक विषयो को कभी परिभाषित नही किया गया । न ही भारत मे और न ही दुनिया मे । संविधान की परिभाषा यह होती है कि तंत्र के अधिकतम और लोक के न्युनतम अधिकारो की सीमाएँ निश्चित करने वाले दस्तावेज को संविधान कहते है और व्यक्ति के अधिकतम तथा तंत्र के न्यूनतम अधिकारो की सीमाएं निश्चित करने का कार्य कानून कहा जाता है । कानून तो तंत्र के द्वारा बनना स्वाभाविक है किन्तु संविधान या तो लोक के द्वारा बनाया जायेगा अथवा लोक और तंत्र की समान भुमिका होगी । किन्तु हमारे संविधान निर्माताओ ने तंत्र को ही संविधान संशोधन के असीम अधिकार दे दिये जिसका अप्रत्यक्ष अर्थ हुआ कि भारत मे संविधान तंत्र नियंत्रित हो गया  अर्थात तंत्र की तानाशाही हो गई । संविधान के मौलिक सूत्रो का निर्माण समाजशास्त्र का विषय है और व्यावहारिक स्वरूप या भाषा राजनीति शास्त्र का । भारत का संविधान बनाने मे मौलिक सोच भी राजनेताओ की रही और भाषा देने मे भी लगभग अधिवक्ताओ का ही अधिक योगदान रहा । परिणाम हुआ कि भारत की संवैधानिक संरचना वकीलो के लिये स्वर्ग के समान बन गई ।  

       भारतीय संविधान मे कुछ कमियां प्रारंभ से ही दिखती हैं । (1) संविधान को हमेशा स्पष्ट अर्थ प्रदाता होना चाहिये, द्विअर्थी नही । आज स्थिति यह है कि न्यायालय तक संविधान की विपरीत व्याख्या करते देखे जाते है । ऐसा महसूस हो रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच के उपर भी कोई और बेंच होती तो फुल बेंच के अनेक निष्कर्ष बदल सकते थे ।

(2) परन्तु के बाद मूल अर्थ न बदलकर अपवाद ही आना चाहिये किन्तु भारत के संविधान मे परन्तु के बाद उसके मूल स्वरूप को ही बदल दिया जाता है । भारत मे धर्म जाति, लिंग का भेद नही होगा । सबको समान अधिकार होगे । किन्तु महिलाओ,  अल्प संख्यको, आदिवासियों, पिछडों के लिये विशेष कानून बनाये जा सकते है । स्पष्ट है कि भारत की 90 प्रतिशत आबादी समानता के अधिकारो से वंचित हो जाती है ।

(3)  धर्म जाति भाषा लिंग आदि के भेद समाज के आंतरिक मामले है जबकि परिवार, गांव, जिले व्यवस्था की इकाइया है । भारतीय संविधान ने परिवार, गांव, जिले को तो संविधान से बाहर कर दिया और धर्म जाति भाषा   लिंग भेद को संविधान मे घुसा दिया । परिणाम हुआ कि वर्ग समन्वय टूटा और वर्ग विद्वेष, वर्ग संधर्ष बढ गया ।

(4)  संविधान बनाने वालो ने तंत्र के दायित्व और स्वैच्छिक कर्तव्य का अंतर नही समझा । तंत्र का दायित्व होता है सुरक्षा और न्याय और स्वैच्छिक कर्तव्य होता है अन्य जन कल्याणकारी कार्यो मे सहायता । संविधान निर्माताओ ने सुरक्षा और न्याय की तुलना मे जन कल्याण को अधिक महत्व दिया । यहां तक कि संविधान मे व्यावहारिकता का भी पूर्णतः अभाव रहा । ऐसी-ऐसी आदर्शवादी घोषणाएँ कर दी गई जो संभव नही थी । उसका परिणाम हुआ अव्यवस्था ।

(5)  संविधान निर्माताओ ने उददेष्यिका मे नासमझी मे समानता शब्द शामिल कर दिया जबकि समानता की जगह स्वतंत्रता शब्द होना चाहिये था । उन्होने समानता का अर्थ भी ठीक-ठीक नही समझा । आर्थिक असमानता की तुलना मे राजनैतिक असमानता अधिक घातक होती है । हमारा संविधान आर्थिक व सामाजिक असमानता को अधिक महत्व देता है और उसके कारण राजनैतिक असमानता बढती चली जाती है ।

(6) सिद्धान्त रूप से कमजोरो की सहायता मजबूतो का कर्तव्य होता है, कमजोरो का अधिकार नही । हमारे संविधान निर्माताओ ने इस सहायता को कमजोरो का अधिकार बना दिया । इसके कारण अक्षम और सक्षम के बीच वर्ग विद्वेष वर्ग संघर्ष बढा । मजबूतो को कमजोरो ने सहायक न मानकर शोषक मान लिया।

               किसी संविधान मे यदि एक मौलिक कमी हो तो वह अकेली कमजोरी भी दूरगामी प्रभाव डालती है । किन्तु भारतीय संविधान मे तो सारी कमियां ही विद्यमान हैं और हर साख पर उल्लू बैठा है के अन्जाम के आधार पर परिणाम स्पष्ट दिख रहा है । आज यदि भारत की जनता बढती हुई अव्यवस्था के समाधान के लिये किसी तानाशाह का भी सम्मान करने को तैयार है तो यह दोष जनता का न होकर हमारे संविधान निर्माताओ का ही माना जाना चाहिये । इसलिये मै समझता हॅू कि कही न कही संविधान निर्माताओ की नीयत मे भी खराबी थी तभी उन्होने संविधान संशोधन तक के अधिकार लोक से छीनकर तंत्र को दे दिये तथा लोकतंत्र की परिभाषा पूरी तरह बदल कर लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित कर दी ।

          हम भारतीय संविधान के कुछ परिणामो की व्याख्या करें । 1 भारतीय संविधान का पहला परिणाम  यह दिख रहा है कि तंत्र शरीफो,  गरीबो, ग्रामीणो,  श्रमजीवियों के विरूद्ध धूर्तो, अमीरों,  शहरीयों, बुद्धिजीवियों  का मिला जुला षणयंत्र दिखने लगा है । 2 स्पष्ट दिख रहा है कि संसद एक जेल खाना है जिसमे हमारा भगवान रूपी संविधान कैद है । संविधान एक ओर तो संसद की ढाल बन जाता है तो दूसरी ओर संविधान संसद की मुठ्ठी मे कैद भी है । 3 न्यायपालिका और विधायिका के बीच ऐसी अधिकारो की छीना-झपटी दिख रही है जैसे लूट के माल के बटवारे मे दिखती है । 4 लोक और तंत्र के बीच दूरी लगातार बढती जा रही है । लोक हर क्षेत्र मे तंत्र का मुखापेक्षी हो गया है । यहा तक कि तंत्र और लोक के बीच शासक और शासित भावना तक घर कर गई है । 5 समाज के हर क्षेत्र मे वर्ग समन्वय के स्थान पर वर्ग विद्वेष बढ रहा है । 6  तंत्र का प्रत्येक अंग हर कार्य मे समाज को दोष देने का अभ्यस्त हो गया है । तंत्र का काम सुरक्षा और न्याय है । किन्तु तंत्र इसके लिये भी लोक को ही दोषी कहता हे । यहा तक कि कुछ वर्ष पूर्व भारत के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और विपक्ष के नेता तक ने कहा या कि संविधान दोषी नही है बल्कि उसका ठीक-ठीक पालन नही होता । पालन न करने वाले दोषी है । दोषी संविधान है, व्यवस्था है, तंत्र है और समाज मे हम सुधरेगें जग सुधरेगा जैसा गलत विचार प्रसारित किया जा रहा है । 7 भारत मे लगातार अव्यवस्था बढती जा रही है । भौतिक विकास तेज गति से हो रहा है और उससे भी अधिक तेज गति से नैतिक पतन हो रहा है ।

                समस्याओ पर हमने विचार किया किन्तु समाधान भी सोचना होगा । समस्या विश्वव्यापी है किन्तु समाधान की शुरूआत भारत कर सकता है और भारत की शुरूआत हम आप कर सकते है। 1 परिवार  और गांव को तत्काल संवैधानिक अधिकार दिये जाने चाहिये । इससे तंत्र का बोझ घटेगा और तंत्र सुरक्षा और न्याय की ओर अधिक सक्रिय हो सकेगा । 2 संविधान को संसद के जेलखाने के से मुक्त कराने की पहल होनी चाहिये । संविधान संशोधन के अंतिम अधिकार तंत्रमुक्त किसी इकाई को दिये जाने चाहियें । 3 लोक तंत्र, मूल अधिकार अपराध, समानता आदि की वर्तमान भ्रम पूर्ण मान्यताओ को चुनौती देकर वास्तविक अर्थ स्थापित करने का प्रयास करना चाहिये । 4 संविधान कानून आदि शब्दो की भी स्पष्ट परिभाषा बननी चाहिये । भले ही अब तक दुनियां मे न बनी हो । संसदीय लोकतंत्र को बदल कर सहभागी लोकतंत्र की दिशा मे बढना चाहिये । 5 सांसद को दल प्रतिनिधि की जगह जन प्रतिनिधि होना चाहिये । संसदीय लोकतंत्र को बदलकर निर्दलीय व्यवस्था की ओर जाना चाहिये । जिस तरह आज संसद असंसदीय दृश्य प्रस्तुत करती है वह हमारे लिये शर्म और चिन्ता का विषय है । भारतीय संविधान मे कुछ मौलिक सुधार की आवश्यकता है । ऐसे सुधार भी होने चाहिये ।

   मुझे विश्वास है कि भारतीय संविधान की कमजोरियों को दूर करने की हमारी कोशिश विश्वव्यापी परिवर्तन की दिशा मे ले जा सकती है हमे इस दिशा मे विचार मंथन करना चाहिये ।