गांधी, भगतसिंह, सुभाष चंद्र बोस

गांधी, भगतसिंह, सुभाष चंद्र बोस

कुछ सर्वस्वीकृत सिद्धांत हैं -

1 गुलामी कई प्रकार की होती है। धार्मिक राजनैतिक सामाजिक । समाधान का तरीका भी अलग अलग होता है।

2 मुस्लिम शासनकाल में भारत धार्मिक, अंग्रेजो के शासनकाल में राजनैतिक तथा स्वतंत्रता के बाद सामाजिक रुप से गुलाम माना जाता है।

3 व्यक्ति दो प्रकार के होते है- 1 त्याग प्रवृत्ति प्रधान 2  संग्रह प्रवृत्ति प्रधान। संग्रह तब तक अपराध नहीं होता जब तक किसी अन्य की स्वतंत्रता में बाधा न पैदा हो।

4 समाज व्यक्तियों का समूह होता है, व्यक्ति समूहों का समूह नहीं ।

5 परिवार समाज निर्मित इकाई होती है प्राकृतिक इकाई नहीं। परिवार समाजव्यवस्था की पहली इकाई माना जाता है।

 6 नीति और नीयत में बहुत अंतर होता है। ठीक नीयत गलत नीति की तुलना में गलत नीयत ठीक नीति अधिक घातक होते हैं।

  

              भारत ने विदेशी मुसलमानों की भी गुलामी देखी थी और अंग्रेजो की भी। मुसलमानों की गुलामी का स्वरुप धार्मिक अधिक था, राष्ट्रीय कम ।  अंग्रेजो की गुलामी राष्ट्रीय अधिक थी धार्मिक कम। स्वतंत्रता संघर्ष के समय दो अलग अलग प्रयत्न हो रहे थे। एक प्रयत्न संघ की ओर से था जो किसी भी परिस्थिति में मुसलमानों की गुलामी को सदा के लिए टाल देना चाहता था। दूसरा प्रयत्न गांधी सुभाष भगत सिंह का था जो राष्ट्रीय स्वतंत्रता को अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। राष्ट्रीय गुलामी की तुलना में उनकी नजर में स्वतंत्रता के बाद भी मुस्लिम गुलामी का कोई खतरा नहीं था। स्वतंत्रता संघर्ष में लगे व्यक्तियों में भी कुछ त्याग प्रधान थे तो कुछ राजनैतिक सत्ता के लिए स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल थे। गांधी भगत सिंह सरीखे लोग त्याग प्रधान प्रवृत्ति के थे। तो नेहरु जिन्ना सुभाषचंद्र बोस सत्ता संघर्ष को जोडकर  चल रहे थे। गांधी स्वतंत्रता संघर्ष को राजनैतिक स्वतंत्रता के साथ साथ सामाजिक स्वतंत्रता को भी जोडकर सक्रिय थे, तो अन्य लोग राष्ट्रीय स्वतंत्रता को ही अंतिम पडाव मान रहे थे। सामाजिक स्वतंत्रता की उन्हं चिंता नहीं थी। यदि हम गांधी सुभाष और भगत सिंह की तुलनात्मक विवेचना करें तो त्याग के आकलन में सबसे उपर भगत सिंह का नाम आता है उनके बाद  गांधी और अंत में सुभाषचंद्र बोस। यदि हम नीतियों के आधार पर तुलना करें तो सबसे अधिक सफल नीति गांधी की मानी जाती है उनके बाद सुभाषचंद्र बोस की और उनके बाद भगत सिंह की। भगत सिंह की तो किसी प्रकार की कोई दीर्घकालिक योजना थी ही नहीं। उन्हें तो एक भावनात्मक त्याग के रुप में देखा जा सकता है। लेकिन गांधी के पास एक सुनियोजित योजना थी । यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष के परिणामों का आकलन करें तो गांधी की भूमिका ही एकमात्र सफल हो सकी। यह कहना बिल्कुल गलत है कि स्वतंत्रता संघर्ष की सफलता में क्रांतिकारियों की भूमिका का भी कोई सहयोग रहा। गांधी को भारत में स्वतंत्रता संघर्ष प्रारंभ करने के पहले दक्षिण अफ्रीका का भी पूरा पूरा अनुभव था। उन्होने स्वतंत्रता संघर्ष की ट्रेनिंग दक्षिण अफ्रीका से ही ले ली थी। वहाँ भी उन्हें अंग्रेजो से ही मुकाबला था और अहिंसा ही उनका आधार था । वहाँ की ट्रेनिंग के बाद ही गांधी अपनी नीतियों की सफलता के प्रति पूरी तरह आश्वशस्त थे। जबकि सुभाषचंद्र बोस की ट्रेनिंग दूसरे प्रकार के समूह के साथ हो रही थी। भगत सिंह को तो ऐसी कोई विशेष ट्रेनिंग हुई ही नहीं थी। इसलिए यह स्पष्ट है कि यदि गांधी अपनी नीतियों से हटकर भगत सिंह या सुभाषचंद्र बोस के साथ संघर्ष में शामिल भी हो गये होते तो सफलता में कोई बहुत बडा फर्क नहीं आने वाला था। गांधी भी एक दो बम फेककर फांसी चढ गये होते लेकिन यदि भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस अलग लाईन पर न चलकर गांधी की लाईन पर चले होते तो स्वतंत्रता और जल्दी मिल जाती। भारत का विभाजन भी रुक सकता था और यह भी संभव है कि स्वतंत्रता के बाद नेहरु सरीखे व्यक्ति को नेता बनाने की जरुरत नहीं पडती । मैं स्पष्ट हॅू कि स्वतंत्रता संघर्ष में गांधी और सुभाष के बीच किसी प्रकार की कोई तुलना करना उचित नहीं है।

                 यदि हम हिंसा और अहिंसा की बात करें तो यह भी परिस्थिति अनुसार ही आकलन किया जा सकता है। यदि  भारत साम्यवादी देशो का गुलाम होता तब गांधी की अहिंसक नीति का सफल होना संदिग्ध था किन्तु भारत अंग्रेजो का गुलाम था इसलिए अहिंसक नीति की  सफलता की गुंजाइश थी । साथ ही विश्वयुद्ध ने अंग्रेजों को इतना कमजोर भी कर दिया था कि वे धीरे धीरे अन्य देशो को भी स्वतंत्र करते जा रहे थे। इस प्रकार की परिस्थितियों में स्वतंत्रता के  लिए हिंसा का मार्ग उचित नहीं था। गांधी और सुभाष में एक बहुत बडा अंतर यह भी था कि गांधी अकेन्द्रित सत्ता के पक्षधर थे तो सुभाष केन्द्रित सत्ता के । सुभाष ने तो यहाँ तक घोषणा की थी कि स्वतंत्रता के बाद भी भारत में कुछ वर्षो के लिए तानाशाही आवश्यक है। गांधी और सुभाष के बीच में नेहरु पटेल अम्बेडकर विकेन्द्रित सत्ता के पक्षधर थे। इनमें भी नेहरु का झुकाव आंशिक रुप से पटेल की अपेक्षा लोकतंत्र की दिशा मे अधिक था । लोकतंत्र की दिशा में नेहरु बालिग मताधिकार के पक्षधर थे तो पटेल सीमित मताधिकार के। यद्यपि दोनों ही गांधी के ग्राम स्वराज्य के पक्षधर नहीं थे, क्योकि नेहरु वामपंथी विचारधारा से अधिक प्रभावित थे तो पटेल दक्षिणपंथी विचारधारा से और दोनों ही विचारधाराओं में सत्ता का केन्द्रियकरण मुख्य आधार माना जाता है। स्पष्ट है कि गांधी सुभाष और भगत सिंह के अभाव में हमारे देश के राजनेताओं को तीनों से हटकर अपनी नीतिया लागू करने का अवसर मिल गया। यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष में भगत सिंह के त्याग का आकलन करें तो उनका त्याग गांधी और सुभाष से कई गुना अधिक सम्मान योग्य था फिर भी यदि हम स्वतंत्रता संघर्ष में झंडा फहराने के नाम पर गोली खाकर गिरते हुये जवानों को देखकर भी जिन व्यक्तियों ने झंडा उठाने की हिम्मत की उनका त्याग भगत सिंह की तुलना में अधिक सम्मान योग्य माना जाना चाहिए।

         अब भारत स्वतंत्र है। जब भारत गुलाम था तब गुलामी से मुक्ति के लिए हिंसा या अहिंसा के दोनों मार्ग आजमाये जा सकते है किन्तु लोकतांत्रिक भारत में किसी भी रुप में भगत सिंह या सुभाषचंद्र बोस के मार्ग पर नहीं चला जा सकता। स्वतंत्रता के बाद सम्मान की दृष्टि से भगत सिंह और सुभाषचंद्र बोस को गांधी के समकक्ष भी माना जा सकता है किन्तु अनुकरण की दृष्टि से स्वतंत्रता के बाद उन दोनों के मार्ग को शून्य मान लेना चाहिए। मुझे आश्चर्य होता है कि आज भी देश में ऐसी हिंसक प्रवृत्ति के लोगों का अस्तित्व है जो भगत सिंह और सुभाष बाबु के नाम पर हिंसा का समर्थन करते है। यदि भगत सिंह या सुभाष बाबु जीवित होते तो स्वतंत्रता के बाद ऐसी किसी भी हिंसा का पुरजोर विरोध करते। इसी तरह स्वतंत्रता के पूर्व गांधी के धरना प्रदर्शन या आंदोलन के मार्ग का औचित्य था किन्तु स्वतंत्रता के बाद उस मार्ग का भी कोई औचित्य नहीं है। फिर भी वोट के भिखारी सत्ता के खिलाडी राजनेता स्वतंत्रता के बाद भी धरना प्रदर्शन का प्रयोग करने में गांधी के नाम का उपयोग करते है। मेरे विचार से स्वतंत्रता के बाद भारतीय राजनीति पूरी तरह सत्ता संघर्ष का केन्द्र बन गई है जिसे न गांधी की नीतियों से कोई लेना देना है न ही भगत सिंह और सुभाष बाबू के त्याग से । इन सबका तो एक ही उददेष्य है कि भारत राजनैतिक रुप से स्वतंत्र हो गया है और अब उसे सामाजिक रुप से  गुलाम बनाकर रखने की आवश्यकता है। मेरे विचार में राजनेताओं की इस गुलाम बनाने वाली प्रवृत्ति से छूटकारा पाने के  लिए भगत सिंह या सुभाष की तो कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु एक नये गांधी की आवष्यकता है जो गांधी के पदचिन्हों पर न चलकर वर्तमान स्थितियों का आकलन करते हुये सत्य और अहिंसा के नेतृत्व में सामाजिक स्वतंत्रता का मार्ग तलाश करे।