विचार और चिंतन का फर्क

विचार और चिंतन एक दूसरे के पूरक हैं । विचार निष्कर्ष है और चिंतन निष्कर्ष तक पहुँचने का मार्ग । प्रत्येक व्यक्ति के मन में निरंतर नये-नये विचार तथा समस्याएँ आती रहती हैं । व्यक्ति चिंतन-मनन करके इनमें से कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकालता है । ऐसे निष्कर्ष ही कालान्तर में व्यक्ति के विचार और समस्याओं के समाधान बन जाते हैं । जिस तरह कोई वैज्ञानिक भौतिक आधार पर रिसर्च करके कुछ नये निष्कर्ष निकालता है, उसी तरह विचारक सामाजिक विषयों पर रिसर्च करके कुछ निष्कर्ष निकालता है । विचारक चिंतक और मौलिक चिंतक भी अलग-अलग होतें है । जब कोई व्यक्ति अनेक विषयों पर ठीक-ठीक निष्कर्ष निकालने में सफल हो जाता है, तब उसे चिंतक मानना शुरू कर देते है और जब कोई चिंतक विश्वस्तरीय मान्यताओं पर चिंतन करके अब तक प्रसारित कुछ भिन्न निष्कर्ष निकालने में सफल हो जाता है, तब उसे मौलिक चिंतक मानना शुरू कर देते हैं ।

समाज के सुव्यवस्थित संचालन के लिये प्रत्येक व्यक्ति में विचार और क्रिया का संतुलन होना चाहिये । ऐसा ही संतुलन सामाजिक आधार पर भी आवश्यक है । यदि विचारहीन क्रिया होगी तो समाज में अव्यवस्था का खतरा है । दूसरी ओर यदि क्रियाहीन विचार होगा तब भी अव्यवस्था निश्चित है । दोनों ही स्थितियां अच्छी नहीं है, इसलिये समाज में संतुलन आवश्यक है जो वर्तमान विश्व में नहीं है । वर्तमान विश्व में चिंतन का अभाव होता जा रहा है और यदि चिंतन ही नहीं होंगे तो विचार या मौलिक चिंतन की तो कल्पना ही व्यर्थ है । एक अनुमान के अनुसार समाज में दस प्रतिशत के करीब विचारकों की संख्या होनी चाहिये । वर्तमान समय में यह संख्या एक प्रतिशत से भी कम है और निरंतर घटती जा रही है ।

यदि हम भारत का आंकलन करें तो भारत की स्थिति तो और भी अधिक खराब है । कुछ हजार वर्ष पूर्व वैचारिक धरातल पर भारत पूरी दुनियां में सबसे अधिक समृद्ध था । भारत विचारों का निर्यात करता था और इस आधार पर दुनियां में भारत का सम्मान था । कुछ हजार वर्षो से भारत में विचारकों और विचारो का अभाव हुआ जिसके परिणाम स्वरूप भारत दुनियां से विचारों का आयात करनें लगा । आज भारत के किसी भी विद्वान से चर्चा करिये तो वह या तो पश्चिम के अनेक विद्वानों के निष्कर्षो को आधार बनाकर आप के सामने अपने तर्क प्रस्तुत करता है अथवा बहुत पुराने समय के भारतीय विद्वानों के निष्कर्षो को आधार बनाता है । शायद ही कोई व्यक्ति मिले जो किसी भी सामाजिक विषय पर अपनी खुद की राय या निष्कर्ष बता सकें, क्योंकि ऐसे चिन्तन का भारत मे पूरी तरह अभाव हो गया है । यह एक दुःखद स्थिति है किन्तु भारत इस स्थिति को बदल नही पा रहा, क्योंकि भारत में कोई ऐसा वातावरण नहीं बन पा रहा है कि विचार और चिंतन की दिशा में किसी का आकर्षण हों ।

मैंने इस संकट पर बहुत सोचा । भारत यदि धन-सम्पत्ति, विज्ञान अथवा राजनैतिक क्षेत्र में सारी दुनियां के साथ, प्रतिस्पर्धा कर रहा है तों विचारों के क्षेत्र में भारत पिछड क्यों रहा है ? दुनियां में कुछ समय से मौलिक चिंतन का अभाव बढ रहा है और उसका परिणाम है कि भारत दुनियां के अधूरे चिंतन से निकलें निष्कर्षो को ही आधार बना कर उनकी आंख बंद करके नकल करने और उसे आगे बढाने को मजबूर है । मैंने जब भारत में प्रचारित और सर्वस्वीकृत सैकडो सामाजिक विषयों पर गंभीर चिंतन किया तों मैं इस निष्कर्ष तक पहुंचा कि दुनियां से आयात किये गये अनेक निष्कर्ष न केवल गलत है बल्कि समाजशास्त्र के विरूद्ध भी है, लेकिन भारत में ऐसे विरोधी निष्कर्षो को पूरी तरह स्वीकार कर लिया गया है । उसका परिणाम है कि भारत भौतिक उन्नति की ओर तो बढ रहा है किन्तु वैचारिक धरातल पर लगातार गिरावट की दिशा में जा रहा है । भारत में राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि की तो अच्छी शिक्षा प्राप्त हो रही है किन्तु समाजशास्त्र की या तो शिक्षा प्राप्त नहीं हो रही है या अपर्याप्त शिक्षा मिल रही है । यदि भारत में किसी बालक में कोई प्रतिभा दिखने लगती है तो उसे प्रारंभिक काल में ही अनेक तरह के संगठन अपने साथ जोडकर उसकी स्वतंत्र विचार क्षमता को गुलाम बनाना शुरू कर देते है । बचपन से ही उसका इस तरह ब्रेनवाश शुरू हो जाता है कि वह स्वतंत्र विचार नहीं कर पाता और वह उस संगठन का एक प्रचारक मात्र बन जाता है । प्राचीन वर्ण व्यवस्था में इसकी सामाजिक मान्यता थी और लगभग दस प्रतिशत लोग प्रारम्भ में स्वतंत्र विचार मंथन की दिशा में आगे बढते थे लेकिन यह व्यवस्था उलट गई और परिणाम हुआ कि भारत वैचारिक धरातल पर कंगाल हों गया ।

मैं भी अपने जीवन में इस संकट से दो-चार होता रहा । विभिन्न संगठनों ने मेरी स्वतंत्र विचार क्षमता को अपनी दिशा में मोडने की कोशिश की किन्तु मैं बचता रहा और अब तक बचा हुआ हूँ । मुझे बहुत लोगो ने यह सलाह दी और अब भी दे रहे है कि विचार तो बहुत हुआ अब क्रिया की आवश्यकता है । मेरा ऐसा मानना है कि क्रिया तो बहुत हो रही है किन्तु विचार नहीं हो रहा । देश में छोटे-छोटे मुद्दों पर गोलियां तक खाने वाले आप को हर जगह मिलेंगे किन्तु ऐसे लोगों का आप कों अभाव दिखेगा जो किसी सामाजिक विषय पर कोई निष्कर्ष निकालने की क्षमता रखते हो । मैं इस संकट से बचा रहा । मैंने अपने जीवन में कुछ नही किया किन्तु मुझे संतोष है कि कुछ न करने के बाद भी मैंने जीवन में बहुत कुछ किया क्योंकि मैं वैचारिक धरातल से उपर उठकर चिंतन की दिशा तक आगें गया और चिंतन से भी आगे बढकर मौलिक चिंतक के रूप में आगे बढ सका । मुझे महसूस होता है कि विभिन्न विषयों पर दुनियां के विचारों का आयात करके जो असत्य धारणा भारत में प्रचारित हो गई है उसे सफलतापूर्वक और बहुत आसानी से चुनौती दी जा सकती है । इतना ही नहीं दुनियां में भारत की जो वर्तमान स्थिति है उसमें भारत विचारों का निर्यात भी कर सकता है ।

भारत में ऐसी स्थिति क्यों पैदा हुई इस पर भी मैंने विचार किया । भारतीय वर्ण व्यवस्था में विचारकों को सर्वोच्च सम्मान, रक्षकों को सर्वोच्च राजनैतिक शक्ति, पालको को सर्वोच्च सुविधा और सेवकों को सर्वोच्च संतुष्टि की गारंटी और सीमा बनायी गयी थी । जब वर्ण व्यवस्था विकृत हुई और विकृत होने के बाद टूट गयी तब शक्ति सम्मान और सुविधा की छीना-झपटी में राजनेता और पूंजीपति आगे निकल गये तथा विचारक धीरे-धीरे किनारे होते गये । विचारक को राजनैतिक शक्ति नहीं चाहिये, सुविधा नहीं चाहिये किन्तु सम्मान भी यदि नही होगा तो विचारक बनने वालों की लाइन कमजोर होती जायेगी । वही हुआ और अच्छे-अच्छे प्रतिभाशाली लोग भी या तो सत्ता की दौड में चले गये या धन कमाने में लग गये । परिणामस्वरूप चिंतकों तथा विचारकों का अभाव होना ही था और हुआ भी । इसी के परिणाम स्वरूप भारत विदेशो से विचारों का आयात करने लगा और भारत में भी समाज के समक्ष यह मजबूरी हो गई कि वह राजनेताओं या पूंजीपतियों को ही विचारक मानकर उनका अनुकरण करने लगें । इस संकट से हमें निकलना चाहिये क्योंकि इस संकट का कोई अन्य समाधान नहीं है । मैंने अपने जीवन के पैंसठ सक्रिय वर्ष इस समस्या के समाधान के चिंतन में लगाकर यह निष्कर्ष निकाला कि अब इस प्रकार के प्रयत्नों को आगे बढाने की आवध्यकता है । धीरे-धीरे चिंतक आगे आयेगे तभी विचारों की धारा बढेगी और तभी भारत कुछ मौलिक निष्कर्ष निकालकर दुनियां को दे सकेगा ।

यही सोचकर मैंने अपना घरबार छोडकर पिछले छः महीने से ऋषिकेश को केन्द्र बनाया है । इस कडी में हमारा पहला कार्यक्रम इकतीस अगस्त से चौदह सितम्बर दो हजार उन्नीस तक पंद्रह दिनों का ऋषिकेश में होगा । पंद्रह सितम्बर को प्रातः काल समापन होगा । इस कार्यक्रम में एक तरफ कुछ धार्मिक आयोजन भी चलते रहेंगे दूसरी ओर प्रतिदिन दो विषयों पर गंभीर विचार मंथन भी होता रहेगा । कोशिश की जायेगी कि भावना प्रधान लोग कुछ विचारो में भी रूचि ले तथा उनका महत्व समझे । इस पंद्रह दिवसीय ज्ञान-यज्ञ में देशभर के अधिक से अधिक लोगो को आमंत्रित किया जा रहा है, जिनके भोजन और निवास की पूरी व्यवस्था ऋषिकेश के नागरिक करेंगे । मै स्वयं तथा बजरंग मुनि सामाजिक शोध संस्थान के निदेषक आचार्य पंकज जी जून महीने के दूसरे सप्ताह से एक महीनें तक उत्तर भारत की यात्रा करके सामाजिक समस्याओं के समाधान विषय पर विचार भी रखेंगे तथा पंद्रह दिवसीय इस ज्ञानोत्सव कार्यक्रम के लिये समाज को आमंत्रित भी करेंगे । इस तरह ज्ञान यज्ञ तथा शोध संस्थान के सम्मिलित प्रयास से यह अभिनव प्रयोग किया जा रहा है । आप सबकी स्वीकृति, सहमति और सहयोग की अपेक्षा है ।