शाहरूख खान की पीड़ा कितनी यथार्थ, कितनी भ्रम
पिछले दिनों फिल्म अभिनेता शाहरूख खान ने अपने मुसलमान होने के आधार पर सामाजिक भेदभाव होने के कारण अपने मन की पीड़ा व्यक्त की । ऐसी ही पीड़ा इसके पहले शबाना आजमी या अन्य कई प्रमुख लोग भी व्यक्त कर चुके हैं। व्यक्त पीड़ा का एक आधार यह रहा है कि इनके साथ समाज में समानता का व्यवहार नहीं होता। इन्हें हिन्दू कालोनियों में मकान नहीं मिलते। इन्हें कभी-कभी कट्टरवादी हिन्दू यहाँ तक कह देते हैं कि पाकिस्तानी हो। पाकिस्तान चले जाओ। इनके नाम के आगे खान शब्द जुड़ा होने से अमेरिका तक में इन्हें संदेह की नजरों से देखा जाता है। कभी कभी तो इनकी विशेष तलाशी ली जाती हैं। इनकी पीड़ा है कि अपनी ओर से अधिक से अधिक धर्म निरपेक्ष, शान्ति प्रिय तथा राष्ट्र भक्त होने के बाद भी इन्हें इस तरह दोहरे आचरण क्यों झेलने पड़ते हैं । सामान्यतया लोग ऐसे आरोपों को नकार देते हैं। विशेष कर वे लोग नकारने में ज्यादा आगे रहते हैं जो सामाजिक व्यवहार में ऐसा भेदभाव करने में सबसे आगे रहते हैं। कम से कम मैं उन लोगों में शामिल नहीं। फिर भी मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि इनकी पीड़ा वास्तविक है और इसकी समीक्षा होनी चाहिये।
स्पष्ट है कि व्यक्तिगत व्यवहार में न शाहरूख खान के साथ कोई भेदभाव होता है न शबाना आजमी के साथ और न ही ऐसे किसी अन्य धर्म निरपेक्ष शांतिप्रिय मुसलमान के साथ। कलाकार के रूप में इन सबको औरों से कम प्रशंसा प्राप्त नहीं। किन्तु जब सामाजिक व्यवहार की बात आती है तब इनकी धार्मिक पृष्ठभूमि ऐसा भेदभाव पैदा करती है। स्वतंत्रता के पूर्व न भारत में मुसलमानों के साथ ऐसा भेदभाव था न दुनिया में। भेदभाव न होते हुए भी बहुसंख्य मुसलमानों ने भारत के आम लोगों के साथ रहना अस्वीकार करके पाकिस्तान बनाया। वह जख्म अब तक भरा नहीं है। इसके लिये ये मुसलमान दोषी नहीं जो भारत में हैं किन्तु आंशिक रूप से तो इनकी सामूहिक सोच संदेहास्पद होती है। मुसलमान और हिन्दू के बीच एक खास फर्क होता है कि मुसलमान राष्ट्र और समाज से उपर धर्म को मानता है जबकि हिन्दू धर्म और राष्ट्र से उपर समाज को मानता है। अस्सी प्रतिशत हिन्दू किसी धार्मिक संगठन का सदस्य नहीं होता। धार्मिक संस्थाओं से जुड़ा रहता है। यहाँ तक कि लाख सर पटकने के बाद भी न संघ शिवसेना बहुमत हिन्दुओं का विश्वास अर्जित कर पाये न विश्व हिन्दु परिषद या बजरंग दल वाले। दूसरी ओर अस्सी प्रतिशत मुसलमान संगठन से अधिक जुड़े रहे और संस्थाओं से कम। क्या यह उचित नहीं होता कि भारत में रहने का विकल्प चुनने के बाद ये मुसलमान धर्म की अपेक्षा समाज को ज्यादा महत्व देते। इन्होंने स्वतंत्रता के पूर्व की संगठित रहने की आदत को छोड़ा क्यों नहीं?
मैं स्वयं भी सामाजिक व्यवहार में मुसलमानों से दूर रहता हूँ। मैं समझता हूँ कि वैचारिक स्तर पर यह व्यवहार उचित नहीं। विशेषकर उनके साथ जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छा मुसलमान मानता हूँ। फिर भी मन में एक भय मूलक भावना काम करती रहती है कि मुसलमान व्यक्तिगत रूप से बहुत अच्छा होता है किन्तु अपने धार्मिक संगठन के रूप में अत्यन्त अविश्वसनीय हो जाता है। मैं सोचता हूँ कि मैं अपने घर के बगल में मुसलमान को बसाकर एक नई सतर्कता की चिन्ता क्यों पैदा करूँ। हमारे बच्चे यदि उनकी बहन बेटियों के साथ गलत व्यवहार करेंगे तो उन्हें थोड़े से संघ परिवार को छोड़कर शेष अस्सी प्रतिशत हिन्दुओं का कोप भाजन बनना होगा जबकि उनके बच्चे हमारी बहन बेटियों पर बुरी नजर डालेंगे तो उनके समाज के अस्सी प्रतिशत लोग या तो प्रोत्साहन देंगे या चुप हो जायेंगे। विचार करने की बात है कि मैं ऐसे खतरे को नजदीक क्यों करूँ। क्या यह उचित नहीं होता कि भारत में रहने का विकल्प चुनने वाला मुसलमान भारत में उसी तरह धर्म परिवर्तन को रोक लेता जिस तरह हिन्दुओं ने एक पक्षीय प्रतिबंध लगा रखा है। यदि भारत का हिन्दू एक पत्नी कानून को स्वीकार करता है तो आपको अपनी ओर से ऐसा प्रस्ताव पारित करने में क्या कठिनाई है। चार से कम विवाह करना कहीं भी इस्लाम विरूद्ध नहीं है। किन्तु आपने किसी बुरी नीयत से इसे धार्मिक मान्यता के साथ जोड़कर रखा है। स्पष्ट है कि भारत का भी बहुसंख्यक मुसलमान स्वयं को शेर और दूसरों को गाय मानता हैं दूसरी ओर भारत का बहु संख्यक हिन्दू स्वयं को गाय और संगठित मुसलमानों को शेर मानते हैं। यदि गाय शेर से दूरी बढ़ाने की सतर्कता रखे तो इसमें शेर को शिकायत क्यों?
कुछ साम्प्रदायिक हिन्दुओं ने आपको मुसलमान होने के कारण पाकिस्तान जाने की ताड़ना दी। ऐसे साम्प्रदायिक तत्वों को आम हिन्दू का कितना विश्वास प्राप्त है यह आप भी जानते हैं। यदि वास्तव में बहुसंख्यक हिन्दू ऐसा सोच लेता तो जिस तरह पाकिस्तान में हिन्दुओं की संख्या लगातार घटाई जा रही है उसी तरह भारत में भी होना कोई कठिन नहीं। इसके विपरीत भारत में तो मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जिन लोगों ने आपको धमकी दी है उनमें एक भी हिन्दू का गुण नहीं। वे तो गुणात्मक रूप से मुसलमानों के ही ज्यादा निकट हैं। ऐसे अघोषित मुसलमानों की धमकी आम हिन्दुओं का विषय नहीं। फिर आपको ऐसी धमकियों को बहाना बनाने से बचना चाहिये। जो पाकिस्तानी छिप-छिपाकर भारत में आकर रह रहे हैं उनको तो भारत में निकालना कठिन हो रहा है तो भारतीय मुसलमान ऐसा क्यों सोचते हैं। उनमें भी आप जैसा धर्म निरपेक्ष व्यक्ति ऐसी बातों को तूल दे तो दुख आपको नहीं, हमें होना चाहिये। वास्तव में दुख की बात तो यह है कि पाकिस्तानी मुसलमान अनेक खतरे उठाकर भी भारत में आना चाहता है। दूसरी ओर कश्मीरी मुसलमान यदा-कदा भारत की अपेक्षा पाकिस्तान के गुणगान करने लगता है। साथ में यह भी कि वह भारत छोड़कर पाकिस्तान जाना भी नहीं चाहता अन्यथा भारत ने उन्हें जबरदस्ती रोक नहीं रखा है। प्रश्न उठता है कि ऐसा तीन तरह का आचरण क्यों? अफजल गुरू को न कश्मीरी होने के कारण फांसी हुई न मुसलमान होने के कारण। उसे संसद भवन पर आक्रमण की योजना का सूत्रधार मानकर फांसी हुई। उसके प्रति कश्मीर में हमदर्दी क्यों? उसके प्रति भारत के कुछ मुसलमानों में बेचेनी क्यों? यदि भारत में धार्मिक आतंकवादियों में पंचान्नवे प्रतिशत मुसलमान और पांच प्रतिशत हिन्दू होंगे तो जेल जाने, जेलों में अमानवीय प्रताड़ना, निर्दोषों पर अत्याचार और फांसी जैसी घटनाओं में यह प्रतिशत बदलेगा कैसे? मुस्लिम कट्टरवाद के पक्ष में कई बार आवाज उठाने वाले साहित्यकार अपूर्वानन्द जी ने जनसत्ता में लेख लिखकर अफजल गुरू के पक्ष में काफी कुछ लिखा है। ऐसे लोग मुसलमानों का नुकसान ही ज्यादा कर रहे हैं। विश्वास तर्कों से नहीं मिलता। विश्वास व्यवहार से मिलता है। शाहरूख खान और शबाना आजमी को हिन्दू समाज में व्यवहार के आधार पर विश्वास प्राप्त है। किन्तु जब उनका खान जोर मारता है तब अविश्वास स्वाभाविक है। अपूर्वानन्द जी ने लिखा है कि अफजल गुरू दया का पात्र था। उन पर दया न करके अन्याय हुआ है। अफजल प्रत्यक्ष आक्रमण या हत्याओं में शामिल भी नहीं था फिर भी फांसी। अपूर्वानन्द जी भूल गये कि दया प्राप्त करने वाले का अधिकार नहीं। वह तो दाता की एकपक्षीय कर्तव्य होती है। दया के लिये मांग नहीं होती क्योंकि दया के लिये सिर्फ निवेदन ही संभव है। दया करने वाले को धन्यवाद दिया जाता है किन्तु न देने वाले की भी आलोचना नहीं होती। अपूर्वानन्द जी सरीखे साहित्यकार यह भी भूल गये।
प्रश्न उठता है कि शाहरूख सरीखे व्यक्ति को खान शब्द के कारण अमेरिका तक में कई बार परेशान होना पड़ा। इससे शाहरूख को कष्ट हुआ। मेरे विचार में शाहरूख का दुखी होना गलत था। सुरक्षा के लिये निर्धारित प्रक्रिया के पालन में शाहरूख को खुश होना चाहिये न कि नाराज। अमेरिका सरकार का उद्देश्य जान बूझकर शाहरूख को अपमानित करना नहीं था। यह सही है कि शाहरूख पर मुसलमान होने और विशेषकर खान होने के कारण संदेह किया गया। यह स्वाभाविक है। कल्पना करिये कि एक डकैती होती है जिसमें एक व्यक्ति सफेद लम्बी दाढ़ी मूंछ वाला है। स्वाभाविक है कि अनेक सफेद दाढ़ी मूंछ वाले बेगुनाह संदेह के घेरे में आ सकते हैं। उसके बाद पता चला कि डकैत छः फीट करीब का था। तब ऐसे संदेहास्पद लोगों में छः फुट के आसपास वालों को छोड़कर संदेह का घेरा हट जायेगा। मुसलमान होना और खान होना ऐसे संदेह के आधार हैं तो आपको बारबार परेशानी होगी ही। आपका खान शब्द आपको परेशान करता है तो क्या हम अपनी सतर्कता छोड़ दें। आपकी शिकायत बिल्कुल ही गलत है। कल्पना करिये कि एक अग्रवाल युवक ने एक मांसाहारी होटल खोला और उसका नाम रखा अग्रवाल या मारवाड़ी भोजनालय। उसके होटल में एक भी मांसाहारी ग्राहक इसलिये नहीं गया कि अग्रवाल या मारवाड़ी भोजनालय शाकाहार की पहचान बन गया है। दूसरी ओर शाकाहारी इसलिये नहीं गये क्योंकि वहाँ जाते ही उन्हें मांस-अंडा दिखा। उस अग्रवाल की शिकायत उचित नहीं। उसके समक्ष तीन मार्ग हैं (1) वह होटल का नाम बदल दे। (2) वह उस होटल को शाकाहारी कर ले। (3) वह आम अग्रवाल होटलों को मांसाहारी कर ले। यदि मुसलमान या खान शब्द इतना संदेहास्पद है तो शाहरूख अपना नाम दिलीप कुमार या जोसेफ भाई कर लें तो उन्हें क्या दिक्कत होगी। धर्म के साथ नाम की पहचान परंपरा है न कि धर्म के साथ आवश्यक। दूसरा तरीका यह भी संभव है कि शाहरूख खूब मेहनत करके मुस्लिम आतंकवाद का धब्बा ही हटवा दें अन्यथा यदि दोनों काम मंजूर या संभव नहीं तो अपनी व्यक्तिगत पहचान ठीक रखें और धार्मिक पहचान के कारण होने वाले संदेह पर बुरा मत माने। अभी पांच-सात हिन्दू आतंकवादियों ने हिन्दू धर्म की पहचान कलंकित की। उनका साथ भारत के आम हिन्दुओं ने तो नहीं दिया। कुछ साम्प्रदायिक हिन्दुओं ने साथ देने की पहल भी की तो वे अब शर्मिन्दा हैं। कई बीजेपी वालों को तो बयान देना पड़ रहा है कि वे प्रज्ञा ठाकुर से जेल में मिलने नहीं गये थे। यदि ये लोग अपराधी सिद्ध होकर फांसी पर भी लटक गये तो हिन्दू समाज बुरा नहीं मानेगा। जिस तरह उमर अब्दुला ने कहा वैसा कोई हिन्दू नहीं कहेगा। बेचारे हेमन्त करकरे ने तो यह पोल खोलकर हिन्दू धर्म को ही बचा लिया अन्यथा यदि ऐसे तत्वों की पोल नहीं खुलती तो संभव है कि भविष्य में बजरंग मुनि का नाम भी शाहरूख खान सरीखे ही जांच घेरे में आ जाता। आतंकवाद का ठप्पा लगते ही उन कारणों को दूर करिये जिनके कारण ठप्पा लगा है न कि ठप्पा लगाने वाले से उलझिये। गृहमंत्री सुशील शिन्दे के कथन से हिन्दुओं का सर झुका किन्तु कथन गलत नहीं था। संघ भाजपा को छोड़कर किसी को बुरा नहीं लगा। जिस तरह संघ भाजपा को बुरा लगना गलत है उसी तरह आपको भी बुरा लगना संदेह को जन्म देता है। मेरा नाम बजरंगलाल अग्रवाल था। मैं एक गंभीर विचारक रहा तथा धनहीन भी रहा। कभी किसी से चन्दा नहीं मांगा न दिया। आम तौर पर लोग अग्रवाल शब्द के कारण मुझे धनी समझते रहे और यह भी मानते रहे कि गंभीर विचारक होने के लिये ब्राहमण या वकील होना आवश्यक है। अग्रवाल धनसम्पन्न तो हो सकता है किन्तु गंभीर समाजशास्त्री या संविधान विद नहीं हो सकता। मैंने अपना नाम बदलकर बजरंग मुनि कर लिया। अब मेरी समस्या दूर हो गई। शाहरूख भाई भी नाराज या दुखी न होकर समाधान सोचे। यदि आप मुसलमान होते हुए धर्म निरपेक्ष होंगे तो हिन्दू समाज का आपको अधिक विश्वास मिलेगा और मुसलमान समाज की नाराजगी झेलनी होगी। फिर भी विश्वास की एक सीमा रहेगी। आपका नाम, आपका खान पान, आपकी पूजा पद्धति फिर भी कुछ न कुछ दूरी तो रखेगी ही। इतने अन्तर को आप व्यक्ति गत पहचान से कम कर सकते हैं तथा शेष बर्दाश्त करना ही समाधान है।
आपने पाकिस्तान में अपनी बात कही। आपको पाकिस्तान में वहाँ के ईश निन्दा कानून की जमकर आलोचना करनी चाहिये थी। पाकिस्तान का ईश निन्दा कानून सम्पूर्ण इस्लाम के लिये एक कलंक है। ऐसे कलंकित कानून का सम्पूर्ण हिन्दू समाज विरोध करता है। मुसलमानों की नकल करके ही कुछ साम्प्रदायिक हिन्दुओं ने हिन्दू राष्ट्र की मांग उठाई जिसे हिन्दुओं का कभी समर्थन नहीं मिला। किन्तु जब जब हिन्दुओं ने समान नागरिक संहिता की बात उठाई तो साम्प्रदायिक मुसलमानों ने तो विरोध किया ही किन्तु आप लोगों ने भी खुलकर समर्थन की पहल नहीं की। आपको दिल से दुविधा निकालनी होगी। तभी आप मुसलमान होते हुए भी साम्प्रदायिकता के संदेह से बच सकेंगे ।
मेरी आपको सलाह है कि आप तत्काल ही धर्म से उपर समाज की मुहिम चलाइये। आप पाकिस्तान के ईश निन्दा कानून की खुली आलोचना करिये। माई नेम इज खान पर तब तक जोर मत दीजिये जब तक मुस्लिम आतंकवाद से दूरी न बन जाये। यदि ऐसा हुआ तो आप मुसलमान होते हुए भी संदेह से दूर हो सकते हैं अन्यथा आपकी नाराजगी और शिकायत दूरी बढ़ाने में ही सहायक होगी ।
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