ग्रामीण और शहरी व्यवस्था
ग्रामीण और शहरी व्यवस्था
हजारों वर्षो से बुद्धिजीवियों तथा पूँजीपतियों द्वारा श्रमशोषण के अलग-अलग तरीके खोजे जाते रहे हैं । ऐसे तरीको में सबसे प्रमुख तरीका आरक्षण रहा है । स्वतंत्रता के पूर्व आरक्षण सिर्फ सामाजिक व्यवस्था में था जो बाद में संवैधानिक व्यवस्था में हो गया । श्रमशोषण के उद्देश्य से ही सम्पत्ति का भी महत्व बढ़ाया गया । सम्पत्ति के साथ सुविधा तो थी ही किन्तु सम्मान भी जुड़ गया था । स्वतंत्रता के बाद पश्चिमी देशों की नकल करते हुये श्रमशोषण के लिए सस्ती उच्च तकनीक का एक नया तरीका खोज निकाला गया । वर्तमान समय में श्रमशोषण के माध्यम के रुप में सस्ती तकनीक का तरीका सबसे अधिक कारगार है ।
श्रमशोषण के प्रयत्नों के परिणामस्वरुप अनेक विषमताएं बढ़ती गई । इनमें आर्थिक असमानता तथा शिक्षा और ज्ञान के बीच की असमानता तो शामिल है ही किन्तु शहरी और ग्रामीण सामाजिक, आर्थिक असमानता भी बहुत तेजी से बढ़ती चली गई । शहरों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ी तो गांव की आबादी लगभग वैसी ही है या बहुत मामूली बढ़ी है । लोग गाँव छोड-छोड कर शहरों की ओर पलायन कर रहे है । यदि पूरे भारत की विकास दर औसत छः मान लिया जाये तो गांवो का विकास एक प्रतिशत हो रहा है तो शहरों का प्रतिवर्ष 30 प्रतिशत । यह विकास का फर्क और अधिक तेजी से शहरों की ओर पलायन को प्रेरित कर रहा है । यदि हम वर्तमान स्थिति की समीक्षा करें तो ग्रामीण उद्योग करीब-करीब समाप्त हो गये है । शिक्षा हो या स्वास्थ्य सभी सूविधायें शहरों से शुरु होती है और धीरे धीरे इस तरह गांव तक पहुंचती है जिस तरह पुराने जमाने में बड़े लोग भोजन करने के बाद गरीबों के लिए जुठन छोड़ देते थे । गांव के रोजगार में श्रम का मूल्य शहरों की तुलना में बहुत कम होता है । यहाँ तक कि सरकार द्वारा घोषित गरीबी रेखा में भी शहर और गांव के बीच भारी अंतर किया गया है । गांव के व्यक्ति की गरीबी रेखा का आकलन 28 रु प्रतिदिन है तो शहर का 32 रु प्रतिदिन हैं ।
यदि हम सामाजिक जीवन के अच्छे बुरे की समीक्षा करें तो दोनों में बहुत अधिक अंतर है । गांव के लोग सुविधाओं के मामले में शहरी लोगों की तुलना में कई गुना अधिक पिछड़े हुए है तो नैतिकता के मामले में गांव के लोग शहर वालों की अपेक्षा कई गुना आगे है । गांव के लोग शराबी, अशिक्षित गरीब होते हुए भी सच बोलने, मानवता का व्यवहार करने या ईमानदारी के मामले में शहरों की तुलना में बहुत आगे है । शहरों के लोग गांव में जाकर उन पर दया करके कुछ मदद भी करते है तो उससे कई गुना अधिक उन बेचारों का शोषण भी करते है । गांव में शहरों की अपेक्षा परिवार व्यवस्था बहुत अधिक मजबूत है, शहरों में तलाक के जितने मामले होते है गांव में उससे बहुत कम होते है । धुतर्ता के मामले भी शहरों में अधिक माने जाते है । अपराध अथवा मुकदमें बाजी भी गांव मे कम होती है । सामाजिक जीवन भी शहरों की तुलना में गांव का बहुत अच्छा है । मैं स्वयं जिस गांवनुमा शहर में रहता हॅू वहाँ अपने घर से दूर-दूर तक के लोगों से प्रत्यक्ष भाई चारा का संबंध है । दूसरी ओर मैं पांच वर्ष दिल्ली में लक्ष्मीनगर में रहा । मेरे फ्लैट में और भी लोग रहते थे लेकिन किसी से मेरा परिचय नहीं हुआ । मेरे निवास से ठीक नीचे वाली मंजिल का मालिक मर गया और मुझे लाश उठ जाने के बाद पता चला । जबकि आने-जाने की सीढ़ी भी एक थी । गांव के संबंधो में प्राकृतिक व्यवहार होता है तो शहरी जीवन में व्यवहार बनावटी और औपचारिक हो जाता है ।
इन सब अच्छाईयों बुराईयों के बाद भी शहर लगातार बढ़ते जा रहे है । ऐसा दिखता है कि शहरों का जीवन नर्क सरीखा है । पर्यावरण प्रदूषित है । हवा भी साफ नहीं है फिर भी लोगों का पलायन जारी है क्योंकि शहर और गांव के बीच सुविधाओं के मामले में भी गांव कमजोर है तथा रोजगार के मामले में भी । होना तो यह चाहिये था कि शहरों की तुलना में गांव को कर मुक्त किया जाता तथा शहरों की अपेक्षा गांवो को कुछ अधिक सुविधायें दी जाती । यदि ऐसा न भी करना हो तो कम से कम गांव शहर को स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा की छूट देनी चाहियें थी किन्तु पिछले 70 वर्षो मेँ इसके ठीक विपरीत हुआ । गांव से होने वाले उत्पादन पर भारी टैक्स लगाकर उसका बड़ा भाग शहरों पर खर्च किया गया । वह भी इतनी चालाकी से कि गांव पर टैक्स भी अप्रत्यक्ष लगा और शहरों को सुविधा भी अप्रत्यक्ष दी गई । दूसरी ओर गांव को प्रत्यक्ष छूट दी गई और शहरों पर प्रत्यक्ष कर लगाया गया । ऐसा दिखता है जैसे गांव को मानवता के नाते जिंदा रखने की मजबूरी मानकर रखा जा रहा है तो शहरों को विश्व प्रतिस्पर्धा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका मानकर, जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है । गांव सबकुछ उत्पादन कर रहे है और शहर सिर्फ उपभोग ।
शहरों की बढ़ती आबादी एक विकराल समस्या का रुप लेती जा रही है । कई प्रकार के प्रयत्न हो रहे है किन्तु शहरों की आबादी बढ़ती ही जा रही है क्योंकि समाधान करने वालो की नीयत साफ नहीं है । वे श्रमशोषण की पुरानी इच्छा में कोई सुधार करने को तैयार नहीं है और बिना सुधार किये समस्या का समाधान हो ही नहीं सकता । गांव से टैक्स वसूलकर शहरों पर खर्च होगा तो गांव के लोग शहरों की ओर जायेंगे ही । यह समस्या आर्थिक अधिक है सामाजिक कम और प्रशासनिक नगण्य है । इसका समाधान भी आर्थिक ही होगा । समाधान बहुत आसान है । सभी प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिये जाये । सरकार स्वयं को सुरक्षा और न्याय तक सीमित कर ले और उस पर होने वाला सारा खर्च प्रत्येक व्यक्ति की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर एक दो प्रतिशत कर लगाकर व्यवस्था कर ले । अन्य सभी कार्य ग्राम सभा से लेकर केन्द्र सभा के बीच बट जावे । दूसरे कर के रुप में सम्पूर्ण कृत्रिम उर्जा का मूल्य लगभग ढाई गुना कर दिया जाये तथा उससे प्राप्त पूरी राशि देश भर की ग्राम और वार्ड सभाओं को उनकी आबादी के हिसाब से बराबर-बराबर बांट दिया जाये । ग्राम सभाए आवश्यकता अनुसार ऊपर की इकाईयो को दे सकती है । अनुमानित एक हजार की आबादी वाली ग्राम सभा को एक वर्ष मे ढाई करोड़ रूपया कृत्रिम उर्जा कर के रूप मे मिल सकेगा । इससे आवागमन महंगा हो जायेगा और आवागमन का महंगा होना ही ग्रामीण उद्योगों के विकास का बढ़ा माध्यम बनेगा । गांवो का उत्पादित कच्चा माल शहरो की ओर जाता है और शहरो से वह उपभोक्ता वस्तु के रूप मे परिवर्तित होकर फिर उपभोग के लिये गांवो मे लौटता है । आवागमन मंहगा होने से गांवो का उत्पादन गांवो मे ही उपभोक्ता वस्तु के रूप मे परिवर्तित होने लगेगा । इससे गांवो का रोजगार बढ़ेगा । कृत्रिम उर्जा मंहगी होने से शहरी जीवन महंगा हो जायेगा तथा का शहर के लोग गांवो की ओर पलायन करेंगे । गांव में श्रम की मांग और मूल्य बढ़ जायेगा । गांव में रोजगार के अवसर अधिक पैदा होंगे । कृत्रिम उर्जा की खपत घटने से पर्यावरण प्रदूषण भी घटेगा इससे विदेशी आयात भी घटेगा । अन्य अनेक प्रकार के लाभ भी संभावित है ।
मैं स्पष्ट हॅू कि शहरी आबादी घटाने का सबसे अच्छा तरीका कृत्रिम उर्जा मूल्यवृद्धि ही है । हमारे देश के बुद्धिजीवियों को इस विषय पर गंभीरता से विचार करना चाहिए ।
मंथन का अगला विषय ‘‘ ज्ञान यज्ञ का महत्व और तरीका ’’ होगा ।
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