केन्द्रीयकरण, विकेन्द्रीयकरण और अकेन्द्रीयकरण
व्यवस्था के तीन तरीके माने गये हैं (1)तानाशाही (2)लोकतंत्र (3)लोक स्वराज्य। तानाशाही व्यवस्था में सत्ता तथा अधिकारों का केन्द्रीयकरण, लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीयकरण और लोक स्वराज्य प्रणाली में अधिकारों का विकेन्द्रीयकरण होता है, जिसे हम सत्ता का अकेन्द्रीयकरण भी कह सकते हैं। यदि हम व्यवस्था के चार भाग ‘‘ (1)व्यवस्था (2)सुव्यवस्था (3)कुव्यवस्था (4)अव्यवस्था ‘‘ के रूप में करें तो तानाशाही में या तो सुव्यवस्था होगी या कुव्यवस्था। इसी तरह लोकतंत्र में या तो व्यवस्था हो सकती है या अव्यवस्था और लोक स्वराज्य में सिर्फ व्यवस्था ही संभव है।
तानाशाही में न व्यवस्था संभव है न अव्यवस्था। यदि तानाशाह अच्छा आदमी है तो सुव्यवस्था गंदा और बुरा है तो कुव्यवस्था। सुव्यवस्था या कुव्यवस्था तानाशाह के चरित्र पर निर्भर करती है। तानाशाही में सारे अधिकार केन्द्रित होते हैं। नागरिकों को मूल अधिकार भी प्राप्त होता है। प्रचार तंत्र पर शासक का पूरा अधिकार होता है। आम लोग अपने विचार स्वतंत्रता पूर्वक व्यक्त नहीं कर सकते। एक प्रकार से मालिक और गुलाम सरीखें संबंध हो जाते हैं। अपराध भी शासन की मर्जी के बिना नहीं कर सकते। रेलें समय पर चलती है। आफिस में समय से काम होता है। भ्रष्टाचार कम हो जाता है। शासक और शासित नामक दो वर्ग बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो सर्वाधिकार सम्पन्न और सर्वाधिकार विहीन वर्ग भी कह सकते हैं। साम्यवाद किसी भी लक्षण से लोकतंत्र की श्रेणी में नहीं आता। साम्यवाद और तानाशाही में इतना ही अन्तर है कि तानाशाही में व्यक्ति की तानाशाही होती है और साम्यवाद में ग्रुप की। इसलिये हम साम्यवाद पर पृथक से चर्चा नहीं कर रहे।
लोकतंत्र तानाशाही से बिल्कुल भिन्न प्रणाली है। लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीयकरण होता है। लोकतंत्र में न सुव्यवस्था हो सकती है न ही कुव्यवस्था। लोकतंत्र में या तो व्यवस्था संभव है या अव्यवस्था। पश्चिम के देशों में व्यवस्था है और पूर्व के लोकतांत्रिक देशों में अव्यवस्था। यद्यपि दोनों ही क्षेत्रों में लोकतंत्र स्थापित है। भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका आदि देशों में लगभग अव्यवस्था है जबकि अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस आदि में व्यवस्था।
लोक स्वराज्य प्रणाली लोकतंत्र का ही एक संशोधित स्वरूप हैं। इसमें न सुव्यवस्था हो सकती हैं न कुव्यवस्था क्योंकि ये दोनों तो तानाशाही के गुण हैं और लोकस्वराज्य व तानाशाही में दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। किन्तु लोकस्वराज्य प्रणाली लोकतंत्र का ही सुधरा स्वरूप होने से इसमें लोकतंत्र के अनेक गुण मौजूद हैं अर्थात् लोकस्वराज्य में सिर्फ व्यवस्था ही संभव है अव्यवस्था नहीं। अव्यवस्था लोकतंत्र का संभावित खतरा है जो लोकस्वराज्य प्रणाली में बिल्कुल नहीं है।
इन सबको ठीक से समझने के लिये हमें सुव्यवस्था, कुव्यवस्था और अव्यवस्था और व्यवस्था का अन्तर समझना होगा। जब आम नागरिक किसी के भय से ठीक-ठीक आचरण करता है और भय पैदा करने वाला स्वयं उक्त भय का दुरूपयोग नहीं करता उसे हम सुव्यवस्था कहते हैं। जब आम नागरिक तो किसी सत्ता के भय से ठीक-ठीक आचरण करता है किन्तु शासक उक्त भय का अपने हित में लाभ उठाता है उसे हम कुव्यवस्था कहते हैं। जब आम नागरिक भय मुक्त होकर गलत आचरण करते हैं उसे हम अव्यवस्था कहते हैं और जब आम आदमी भय मुक्त होकर ठीक-ठीक आचरण करता है उसे हम व्यवस्था कहते हैं। अव्यवस्था में आम नागरिकों के चरित्र में गिरावट निश्चित हैं। शेष तीन में आम नागरिकों का चरित्र पतन नहीं होता। यह अलग बात है कि तानाशाही में गुलामी होती है और लोकतंत्र में स्वतंत्रता या स्वच्छंदता।
तानाशाही में अव्यवस्था का खतरा नहीं होता और लोकतंत्र में अव्यवस्था का खतरा रहता ही है। हम जिस लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहते हैं उस लक्ष्य की प्राप्ति में तानाशाही साधक और अव्यवस्था बाधक होती है। अनुभव बताता है कि जिन परिवारों में या संगठनों में निर्णय का एक ही केन्द्र रहा वे अधिक तीव्र गति से आगे बढ़ते हैं, उनकी अपेक्षा, जहाँ निर्णय का कोई केन्द्र नहीं होता। भारत की राजनीति में इस बात को और स्पष्ट देखा जा सकता है। भारत के राजनैतिक दलों में से भाजपा को छोड़कर अन्य सबकी प्रगति की रफ्तार बहुत तीव्र है क्योंकि उन सब में जरा भी न लोकतंत्र है न अव्यवस्था। लोकतंत्र के लिये समाजवादी खेमा विख्यात है अन्य किसी भी राजनैतिक दल की अपेक्षा उनमें लोकतान्त्रिक व्यवस्था अधिक है। यही कारण है कि समाजवादी विचारों के लोग एक साथ मिलकर कभी आगे नहीं बढ़ सके। किन्तु वहीं समाजवादी जब अलग-अलग होकर अपनी अपनी तानाशाही में दल चलाने लगे तो संयुक्त समाजवादियों की अपेक्षा कई गुना अधिक प्रगति कर गये। कांग्रेस पार्टी जब भी लोकतंत्र की दिशा में लौटती है तभी उसके दुष्परिणाम दिखाई देने लगते हैं। थक हार कर वह फिर नेहरू परिवार की तानाशाही की ओर लौट जाती है। साम्यवाद सैद्धान्तिक आधार पर अनेक बुराईयों की जड़ होते हुए भी यदि अब तक भारत में बचा है तो सिर्फ इसी गुण के कारण की उसमें एक गुट की तानाशाही है। भारतीय जनतापार्टी में आंशिक लोकतंत्र है अर्थात् संघ परिवार और अटल जी के ग्रुप हैं। यदि भारतीय जनता पार्टी में भी अटल जी और संघ में से किसी एक की तानाशाही हो जाती तो भाजपा बहुत अधिक तेज गति से प्रगति कर सकती थी। किन्तु ऐसा नहीं हो सका। कुछ वर्षों तक भाजपा में संघ की चली तब भी उसने तेज प्रगति की ओर सत्ता काल में भाजपा में अटल जी की चली तब भी खूब प्रगति हुई। लेकिन पिछले दो तीन वर्षों से संघ ने अटल जी पर लगाम लगानी शुरू की जिसका परिणाम सबके सामने है। सर्वोच्च निर्णय के एक से अधिक ध्रुव होना सफलता में बाधक होता है और हुआ।
तानाशाही लक्ष्य प्राप्ति में सहायक होते हुए भी न्याय में बाधक है अन्य लोगों की क्षमता का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता। निर्णय गलत होते हुए भी मानना हमारी मजबूरी है। आम नागरिकों का दुहरा आचरण हो जाता है न निर्णय की स्वतंत्रता होती है न ही अभिव्यक्ति की। भारत के राजनैतिक दलों की प्रणाली को देखकर अच्छी तरह समझा जा सकता है कि ये राजनैतिक दल आम नागरिकों के शोषण के सिद्धान्त पर अपने अपने नेताओं की चाटुकारिता करते हैं अन्यथा यदि इनमें जरा सी भी आत्मा होती तो कभी ऐसी तानाशाही सहन नहीं करते। किन्तु स्वार्थ के कारण मजबूर हैं।
निष्कर्ष निकालना कठिन हैं। तानाशाही और लोकतंत्र के अपने-अपने गुण अवगुण हैं। बहुत लम्बे विचार मंथन के बाद निष्कर्ष निकला की लोकस्वराज्य प्रणाली इसका अच्छा विकल्प हो सकती है। यह प्रणाली लोकतंत्र का एक सुधरा हुआ स्वरूप है। इसमें प्रत्येक इकाई के अपने इकाईगत मामले में निर्णय की संपूर्ण स्वतंत्रता है। व्यक्ति के व्यक्तिगत या सपरिवार के पारिवारिक मामलों में न गाँव हस्तक्षेप करेगा न राष्ट्र। गाँव के गाँव संबंधी मामलों में भी कोई अन्य का हस्तक्षेप वर्जित होगा। इसका अर्थ यह भी हुआ कि गाँव के गाँव संबंधी मामलों में कोई व्यक्ति या परिवार गाँव की सहमति के बिना अपना निर्णय थोपते हैं तो वह अपराध होगा चाहे वह व्यक्ति या परिवार उसी गाँव का सदस्य क्यों न हो। अर्थात् लोकस्वराज्य प्रणाली में प्रत्येक इकाई अपनी आन्तरिक कार्यप्रणाली तय करने के लिये स्वतंत्र होगी। यह कार्यप्रणाली सबकी सहमति से ही तय होगी किन्तु सब लोग मिलकर किसी एक व्यक्ति को भी निर्णय के अधिकार सौंप सकते हैं। केन्द्र के पास बहुत कम दायित्व होंगे। न भ्रष्टाचार होगा न अपराध, क्योंकि भ्रष्टाचार के अवसर ही न्यूनतम हो जावेंगे और केन्द्रीय प्रशासन का बहुत कम दायित्व रहने से अपराधों पर भी रोक लग जायेगी।
समाजशास्त्र का एक सीधा सा सिद्धान्त है कि किसी कार्य के परिणाम से प्रभावित होने वाली इकाई और कर्ता इकाई के बीच दूरी जितनी कम होगी, कार्य की गुणवत्ता उतनी ही अधिक होगी। इस दूरी को यदि शून्य तक कर दिया जावे तो पूर्ण व्यवस्था हो जायेगी अर्थात् लोक स्वराज्य आ गया। लोक स्वराज्य की यह अच्छी और सरल परिभाषा है। लोक स्वराज्य प्रणाली में यदि सब मिलकर किसी एक व्यक्ति को इकाई संबंधी निर्णय के अधिकतम अधिकार सौंप दें और सिर्फ पांच वर्ष में उसकी समीक्षा का अधिकार अपने पास रखें तो यह सर्वोत्तम प्रणाली हो सकती है। इसमें तानाशाही के भी दुर्गुणों से बचा जा सकता है और लोकतंत्र के भी दुर्गुणों से। क्योंकि इसमें न अव्यवस्था हो सकती है न कुव्यवस्था। सुव्यवस्था भी इसलिये नहीं होगी कि व्यवस्था तो कर नहीं रहा। अपनी व्यवस्था वह चाहे जैसी करें। इससे समाज में सिर्फ व्यवस्था ही मजबूत होगी और यही हमारा अभीष्ट भी है।
इस तरह हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि सत्ता का अकेन्द्रीयकरण या अधिकारों का विकेन्द्रीयकरण ही व्यवस्था का एकमात्र मार्ग है। यह प्रणाली सम्पूर्ण विश्व में सफल हो सकती है किन्तु जिन देशों में वर्तमान में अव्यवस्था है वहाँ तो इसके तत्काल प्रयास प्रारंभ कर देने चाहिये। दुर्भाग्य से भारत उन देशों में शामिल हैं और सभी समस्याओं का यही एकमात्र मार्ग है।
नोट- मैंने इस विषय में जो लेख लिखा है उस संबंध में मैं स्वतः भी अभी मंथन प्रक्रिया से गुजर रहा हूँ । आप पाठकों के सुझाव या प्रश्न मेरे चिन्तन में सहायक होंगे ।
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