विश्व की प्रमुख समस्याएँ और समाधान

विश्व की प्रमुख समस्याएँ और समाधान

यदि हम विश्व की सामाजिक स्थिति का सामाजिक आकलन करे तो भारत में भौतिक उन्नति तो बहुत तेजी से हो रही है किन्तु नैतिक उन्नति का ग्राफ धीरे-धीरे गिरता जा रहा है । भारत में तो प्रगति और गिरावट के बीच की दूरी बहुत तेजी से बढ़ रही है किन्तु समूचे विश्व में भी दूरी बढती ही जा रही है, भले ही इसकी गति कम ही क्यों न हो । सारे विश्व में जितनी हत्याएँ या अन्य अपराध अपराधियों के द्वारा हो रहे हैं, उससे कई गुना अधिक धर्म अथवा राज्य व्यवस्थाओं के आपसी टकराव से हो रहे हैं मानवता की सुरक्षा के नाम पर जितनी सुरक्षा हो रही है उससे कई गुना ज्यादा मानवता का हनन हो रहा है । वैसे तो सम्पूर्ण विश्व में अनेक प्राकृतिक सामाजिक राजनैतिक समस्याएँ व्याप्त हैं किन्तु उन सब में भी कुछ महत्वपूर्ण समस्याएँ चिन्हित  की गई है जिनके समाधान का कोई मार्ग खोजना आवश्यक है। मैं स्पष्ट कर दॅू कि पिछले कई दशको से ये समस्याएँ सम्पूर्ण विश्व में बढ़ी ही है तथा लगातार बढती जा रही है-

(1) निष्कर्ष निकालने में विचार मंथन की जगह प्रचार का अधिक प्रभावकारी होना ।

(2) संचालक और संचालित के बीच बढती दूरी ।

(3) राजनीति, धर्म और समाज सेवा का व्यवसायीकरण ।

(4) भौतिक पहचान का संकट।

(5) समाज का टूटकर वर्गो में बदलना ।

(6) राज्य द्वारा दायित्व और कर्तव्य की परिभाषाओं को विकृत करना ।

(7) मानव स्वभाव तापवृद्धि।

(8) मानव स्वभाव स्वार्थ वृद्धि।

(9) धर्म और विज्ञान के बीच बढ़ती दूरी।

1) आज सम्पूर्ण विश्व में प्रचार करने की होड़ मची हुई है। अनेक असत्य सत्य के समान स्थापित हो गये है, तथा लगातार होते जा रहे है । भावनाओं का विस्तार किया जा रहा है तथा विचार मंथन को कमजोर या किनारे किया जा रहा है । विचार मंथन तथा विचारकों का अभाव हो गया है और प्रचार के माध्यम से तर्क को निष्प्रभावी बनाया जा रहा है । संसद तक में विचार मंथन का वातावरण नहीं दिखता । कभी कभी तो संसद में भी बल प्रयोग की स्थिति पैदा होने लगी है । इसके समाधान के लिए उचित होगा कि विचार, शक्ति, व्यवसाय और श्रम के आधार पर योग्यता रखने वालो को बचपन से ही अलग अलग प्रशिक्षण देने की व्यवस्था हो । प्रवृत्ति और क्षमता का अलग अलग टेस्ट हो। विधायिका, अनुसंधान आदि के क्षेत्र विचारको के लिए आरक्षित कर दिया जाये।

(2) सारी दुनिया में राज्य और समाज के बीच शक्ति संतुलन बिगड़ता जा रहा है। समाज के आंतरिक मामलों में भी राज्य का हस्तक्षेप बढ़ता जा रहा है। परिवार, गाँव की आतंरिक व्यवस्था में भी राज्य निरंतर हस्तक्षेप करने का अधिकार अपने पास समेट रहा है । लोकतंत्र की परिभाषा लोक नियंत्रित तंत्र से बदलकर लोक नियुक्त तंत्र तक सीमित की जा रही है । संविधान तंत्र और लोक के बीच पुल का काम करता है किन्तु संविधान संशोधन में भी तंत्र निरंतर लोक को बाहर करता जा रहा है। ऐसी परिस्थिति में मेरा सुझाव है कि लोकतंत्र की जगह सम्पूर्ण विश्व में लोक स्वराज्य की दिशा में बढ़ा जाये। लोक स्वराज्य लोक और तंत्र के बीच बढती दूरी को कम करने में बहुत सहायक हो सकता है । इस कार्य के लिए सबसे पहला कदम यह उठना चाहिए कि किसी भी देश का संविधान तंत्र अकेले ही संशोधित न कर सके । या तो लोक द्वारा बनाई गई किसी अलग व्यवस्था से संशोधित हो अथवा दोनो की सहमति अनिवार्य हो । उसके साथ-साथ परिवार तथा स्थानीय इकाईयों को भी सम्प्रभुता सम्पन्न मानने के बाद कुछ थोड़े से महत्वपूर्ण अधिकार तंत्र के पास रहने चाहिए ।

(3) सारी दुनिया में समाज व्यवस्था की जगह पॅूजीवाद का विस्तार हो रहा है । प्राचीन समय में विचारकों और समाज सेवियों को सर्वोच्च सम्मान प्राप्त था, राजनेताओं से भी ऊपर । किन्तु वर्तमान समय में विचारको और समाज सेवियों का अभाव हो गया है । यहाँ तक कि धर्मगुरु, समाज सेवी राजनेता सभी किसी न किसी रुप में धन बटोरने में लग गये है । समाज सेवा के नाम पर एन जी ओ के बोर्ड लगाकर धन इकटठा किया जा रहा है। सारी दुनिया के राजनेताओं में धन संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इस बढ़ती जा रही समस्या के समाधान के लिए हमें यह प्रयत्न करना चाहिए कि सम्मान, शक्ति, सुविधा कही भी एक जगह किसी भी रुप में इक्टठी न हो जाये। जो व्यक्ति इच्छा और क्षमता रखता है, वह सम्मान शक्ति और सुविधा में से किसी एक का चयन कर ले किन्तु यह आवश्यक है कि उसे अन्य दो की इच्छा त्यागनी होगी। इन तीनों के बीच खुली और स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा हो सकती है । किन्तु श्रमजीवियों को मूलभूत आवश्यकताओ की गारण्टी व्यवस्था दे । यह व्यवस्था कुछ कठिन अवश्य है किन्तु इसके अतिरिक्त कोई अन्य समाधान नहीं है।

(4) प्राचीन समय में गुण कर्म स्वभाव के अनुसार वर्ण व्यवस्था बनाकर व्यक्तियों की अलग अलग पहचान बनाई गई थी । यह पहचान यज्ञोपवीत के माध्यम से अलग अलग होती थी । संन्यासियों के लिए भी अलग वेश-भूषा का प्रावधान था। विवाहित, अविवाहित की भी पहचान अलग थी । यहाँ तक कि समाज बहिष्कृत लोगों को भी अलग से पहचाना जा सकता था । दुनिया के अनेक देशों में अधिवक्ता, पुलिस, न्यायाधीश आदि की भी ऐसी अलग अलग पहचान होती थी कि कोई अन्य भ्रम में न पड़ सके । यदि बिना किसी व्यवस्था के इस प्रकार की नकली पहचान सुविधाजनक हो जाये तो अव्यवस्था फैलना स्वाभाविक है । वर्तमान समय में धीरे-धीरे ये ही हो रहा है । अब विद्वान, संन्यासी, फकीर, समाज सेवी बिना किसी योग्यता और परीक्षा के नकली पहचान बनाने में सफल हो जा रहे है । एन जी ओ का बोर्ड लगाकर कोई मानवाधिकारी हो जा रहा है, तो कोई पर्यावरणवादी जिनका दूर-दूर तक न मानवाधिकार से कोई संबंध है, न ही पर्यावरण से । ऐसे लोग व्यवस्था को ब्लैकमेल भी करने लगे हैं । इस समस्या के समाधान के लिए ऐसी पहचान को तब तक प्रतिबंधित कर देना चाहिए जब तक कि उसने किसी स्थापित व्यवस्था से प्रमाण पत्र प्राप्त न किया हो, साथ ही नकली प्रमाण पत्रों पर भी कठोर दण्ड की व्यवस्था स्थापित करनी चाहिए ।

(5) पूरे विश्व में वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष, वर्ग संघर्ष की आंधी चल रही है । वर्ग समन्वय लगातार टूट रहा है तथा वर्ग विद्वेष बढ़ रहा है। प्रवृत्ति कि आधार पर दो ही वर्ग हो सकते है- (1) शरीफ (2) बदमाश। इस सामाजिक वर्ग निर्माण की जगह धर्म-जाति, भाषा, राष्ट्र, उम्र, लिंग, गरीब-अमीर, किसान-मजदूर, गाँव-शहर जैसे अन्य अनेक वर्ग बन रहे है तथा बनाये जा रहे है । बिल्लियों के बीच बंदर के समान हमारी शासन व्यवस्था वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष के माध्यम से समाज व्यवस्था को छिन्न भिन्न करके अपने को मजबूत करने का प्रयास कर रही है। यह प्रयास बहुत घातक है। समाज को चाहिए कि वह प्रवृत्ति के अतिरिक्त किसी भी प्रकार के वर्ग निर्माण को तत्काल अवांछित घोषित कर दे। साथ ही वर्तमान समय में बन चुके वर्गो में भी  वर्ग समन्वय की भावना विकसित की जाये।

(6) प्राकृतिक रुप से दो ही कार्य करने आवश्यक होते है- (1) व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा तथा (2) व्यक्ति  को सहजीवन की ट्रेनिंग । राज्य का दायित्व होता है कि वह व्यक्ति की न्याय और सुरक्षा के माध्यम से  स्वतंत्रता को सुरक्षित करे । समाज का दायित्व होता है कि वह व्यक्ति को सहजीवन की ट्रेनिंग दे । पूरी दुनिया में राज्य दायित्व और स्वैच्छिक कर्तव्य का अंतर या तो भूल गया अथवा जानबूझकर भूलने का नाटक कर रहा है । जनकल्याणकारी कार्य राज्य के स्वैच्छिक कर्तव्य होते है, दायित्व नहीं। राज्य समाज को गुलाम बनाकर रखने के उददेश्य से जनकल्याणकारी कार्यो को अपने दायित्व घोषित करता है। इस भ्रम निर्माण से सुरक्षा और न्याय पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है । सुरक्षा और न्याय प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार होता है जबकि राज्य द्वारा दी गई अन्य सुविधायें व्यक्ति का अधिकार नहीं होता किन्तु राज्य द्वारा जनकल्याणकारी कार्यो को अपना दायित्व मान लेने से आम नागरिक इन सुविधाओं को अपना अधिकार समझने लगते है । इस भ्रम के कारण ही समाज में अनेक टकराव उत्पन्न हो रहे है । आम लोग राज्य के मुखापेक्षी हो गये है । क्योंकि सुविधा लेना प्रत्येक व्यक्ति ने अपना अधिकार मान लिया है ।

          समाधान के लिए राज्य को सुरक्षा और न्याय तक सीमित हो जाना चाहिए । जनकल्याण के अन्य कार्य राज्य अतिरिक्त कर्तव्य के रुप में चाहे तो कर सकता है किन्तु यह उसका दायित्व नहीं होगा और न ही राज्य उसके लिए समाज पर कोई बाध्यकारी टैक्स लगा सकता है।

(7) लगातार मानव स्वभाव आवेश, हिंसा, प्रति हिंसा की दिशा में बढ़ रहा है । ग्लोबल वार्मिंग का वास्तविक आशय मानवस्वभाव तापवृद्धि होता है जो पूरी दुनिया में बढ रहा है । किन्तु हम मानव स्वभाव तापवृद्धि के स्थान पर पर्यावरणीय तापवृद्धि को अधिक महत्व दे रहे है । पर्यावरण की भी चिंता होनी चाहिए किन्तु मानव स्वभाव को तापवृद्धि की तुलना में पर्यावरण को अधिक महत्वपूर्ण मानना गलत है । इस तापवृद्धि के कारण  सारी दुनिया में हिंसक टकराव बढ़ रहे है । पश्चिमी जगत ऐसे टकरावों से अपने आर्थिक लाभ उठाकर संतुष्ट हो जाता है । इस समस्या के समाधान के लिए हमें चाहिए कि सुरक्षा और न्याय के अतिरिक्त अन्य सारी व्यवस्था राज्य से लेकर परिवार, गाँव, जिला, प्रदेश तथा केंद्रीय समाज तक बांट दी जावें । इससे राज्य सफलतापूर्वक न्याय और सुरक्षा को संचालित कर सकेगा, तथा अन्य कार्य भी सामाजिक इकाइयाँ राज्य मुक्त अवस्था में ठीक से कर पायेंगी।

(8) सम्पूर्ण विश्व में मानव स्वभाव में स्वार्थ बढ़ रहा है। स्वार्थ के कारण अनेक प्रकार के टकराव बढ़ रहे है। स्वार्थ के दुष्प्रभाव से ही परिवार व्यवस्था भी छिन्न-भिन्न हो रही है तथा समाज व्यवस्था में भी लगातार टूटन आ रही है। स्वार्थ लगातार मानव स्वभाव में बढ़ता जा रहा है। कमजोरों का शोषण आम बात हो गई है। आमतौर पर व्यक्ति अपने मानवीय कर्तव्यों को भी भूल रहा है। स्वार्थ के कारण ही सम्पत्ति के झगड़े पैदा हो रहे है।

          मानव स्वभाव में स्वार्थ के बढने का महत्वपूर्ण कारण है पश्चिम का सम्पत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार । अभी तक सम्पत्ति की तीन व्यवस्थाएँ मानी गई है- (1) व्यक्तिगत सम्पत्ति (2) सार्वजनिक सम्पत्ति जो साम्यवाद का सिद्धांत है तथा असफल हो चुका है । (3)गाँधी जी का ट्रस्टीशिप जो अभी तक अस्पष्ट है । यही कारण है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति का सिद्धांत लगातार बढ रहा है । इस समस्या का समाधान संभव है । व्यक्तिगत सम्पत्ति तथा ट्रस्टीशिप को मिलाकर एक नया सिद्धांत बना है जिसमें सम्पत्ति परिवार की मानी जायेगी तथा परिवार में रहते हुए व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र होगा, मालिक नहीं। इस संशोधन से स्वार्थ वृद्धि पर अंकुश लगना संभव है।

(9) धर्म और विज्ञान के बीच भी दूरी लगातार बढती जा रही है। जब से धर्म ने गुणात्मक स्वरुप छोडकर  संगठनात्मक स्वरुप ग्रहण किया है तब से उसमें लगातार रूढ़िवाद बढ़ता जा रहा है । रूढ़िवाद धर्म को विज्ञान से बहुत दूर ले जाता है । रूढ़िवाद के कारण ही भावनाओं का विस्तार होता है तथा विचार शक्ति घटती है । जबकि विज्ञान विचार के माध्यम से निष्कर्ष निकालता है तथा गलत को सुधारने की प्रक्रिया मे लगा रहता है। इसके कारण भी पूरे विश्व में अनेक समस्याएँ पैदा हो रही है । पहले तो इस्लाम ही रूढ़िवाद का एकमात्र पोषक था किन्तु अब तो धीरे धीरे यह बीमारी हिन्दुओं में भी बढ़ती जा रही है ।

      इसके समाधान के लिए रूढ़िवाद की जगह यथार्थवाद को प्रोत्साहित करना होगा । यथार्थवाद और विज्ञान के बीच तालमेल होने से इस समस्या का समाधान संभव है ।

          उपरोक्त नौ समस्याओं के अतिरिक्त भी समाज में अनेक समस्याएँ व्याप्त है जो परिवार से लेकर सारे विश्व तक को प्रभावित करती है किन्तु मैंने उनमें से कुछ महत्वपूर्ण समस्याओं को इंगित करके समाधान का प्रयास किया है । समाधान में से भी कई बाते एक दूसरे से जुड़ी हुई है । लोकतंत्र की जगह लोकस्वराज्य, व्यक्तिगत सम्पत्ति की जगह पारिवारिक सम्पत्ति, परम्परागत परिवार व्यवस्था की जगह लोकतांत्रिक परिवार व्यवस्था, जन्मना वर्ण व्यवस्था की जगह प्रवृत्ति अनुसार वर्ण व्यवस्था तथा संविधान संशोधन के असीम अधिकारों को संसद से निकालना जैसे कुछ महत्वपूर्ण सुधार विश्व समस्याओं के समाधान में सहायक हो सकते है।