आडवाणी का झूठ और राजनीति का सच

यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत मे राजनीति का स्तर लगातार गिर रहा है। अच्छे लोग लगातार राजनीति से किनारे होते जा रहे है और पदलोलुप तिकड़म बाज राजनीति मे घुसते जा रहे है। आम तौर पर माना जाता है कि राजनीति एक व्यवसाय बन चुकी है। इससे बढ़कर राजनीति को गिरोह का रूप दिया जाने लगा है। पिछले दिनो भाजपा के प्रमुख नेता और कई बार प्रधानमंत्री के दावेदार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने नाटक किया। उस नाटक ने तो राजनीति को स्पष्ट रूप से बिल्कुल ही नंगा कर दिया।

            आडवानी जी ने बीमारी का जो झुठ बोला उस पर देश मे किसी को विश्वास नही हुआ। उसके बाद भी वे सफाई देते रहे कि वे वास्तव मे वीमार थे। उन्हे दस्त लग रहे थे । इतने बड़े स्थापित व्यक्तित्व का ऐसा झूठ ऐतिहासिक ही माना जाएगा। जल्द ही स्पष्ट हो गया कि वे बीमार नही थे और उन्होने झूठ बोला । इससे भी आगे बढ़कर उनके पतन की तब और भी पराकाष्ठा हो गयी जब उन्होने प्रधानमंत्री पद के प्रति अपनी दावेदारी पेश की और सारे भारत को यह संदेश दिया कि उनकी नाराजगी पर उनकी बीमारी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से दूर हो सकती है। प्रश्न उठता है कि प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी पार्टी की अमानत है या उनका अधिकार? स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री पद देश की जनता की अमानत है न कि किसी का अधिकार । उसी तरह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी भी पार्टी की अमानत होती है। यह अलग बात है कि पार्टी के अन्दर-अन्दर इस पद के लिये दाव-पेंच चलते रहते है । परन्तु कभी इतनी खुलकर मांगे नही होती जैसा कि आडवाणी जी ने किया। नरेन्द्र मोदी भी कई बार झूठ बोलने मे फंस चुके है। आजमगढ़ की मुस्लिम महिलाओं का फोटो खींचवाकर उन्हे गुजरात का प्रकरण बताने मे अथवा ब्रिटेन के सांसदो को गुप्त रूप से प्रलोभन देकर भारत मे बुलाने की बाते जगजाहिर है। मोदी जी के रूठने की बात भी किसी से छिपी नही है। किन्तु आडवाणी जी के प्रकरण मे जिनता खुलकर झुठ बोला गया या प्रधानमंत्री पद का दावा पेश किया गया उसमे तो न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी बल्कि हर राजनेता का सर झुका दिया। चाल-चेहरा और चरित्र की बात कहने वाले इतना नीचे तक उतर जायेगे यह कभी सोचा भी नही गया था। पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओ को राष्टप्रेम, राष्टभक्ति, त्याग और बलिदान का उपदेश देते आडवाणी जी को भी कई बार सुना गया है। वही आडवाणी जी आज अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये सारा प्रवचन भूल गये। इससे तो अच्छा कांग्रेस पार्टी का चरित्र दिखा जिसके प्रधानमंत्री स्वयं राहुल गांधी के लिये पद छोड़ने की बात करते है अथवा सोनियां ने प्रधानमंत्री पद मिलता हुआ छोड़कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। एक ओर सोनिया मनमोहन सिंह का व्यवहार और दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी आडवाणी की पदलोलुपता की आपस मे कैसे तुलना की जाय यह समझ मे नही आता। झूठ  बोलने मे भी मनमोहन सिंह सोनियां गांधी से मोदी और आडवाणी कई गुना अधिक नासमझी करते देखे जाते है।

            राजनीति मे कभी साधु सन्तों के समान नैतिकता की कल्पना नहीं की जा सकती। राजनीति मे कूटनीति तथा चालाकी होती ही है। किन्तु इसकी भी कोई सीमा तो अवश्य होती है। वैसे तो नेहरू काल से ही राजनीति मे नैतिकता का अभाव होता चला गया जो इन्दिरा गांधी के काल मे अपने चरम पर पहुंच गया। उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने भी राजनीति के स्तर मे कुछ सुधार किया तथा अटल जी के नेतृत्व मे भाजपा ने भी राजनीति मे नैतिकता को कुछ मजबूत किया। अटल जी के बाद भारतीय जनता पार्टी बिल्कुल नही संभाल सकी। भाजपा की आंतरिक राजनीति का स्तर भी गिरता गया और राष्ट्रीय राजनीति का भी । जिस तरह भाजपा ने मनमोहन सिंह के त्यागपत्र के नाम पर इतने महिने संसद ठप की वह बिल्कुल ही गलत था। मोदी जी ने भाजपा का नेतृत्व सम्हाल कर लगातार राजनीति मे छल प्रपंच को बढाया है। स्थिति यहां तक आई कि आडवाणी जी ने प्रधानमंत्री पद की इस तरह मांग करके राजनीति मे नैतिकता के स्तर को बिल्कुल ही नंगा कर दिया ।

 

यह स्पष्ट हो चुका है कि भारत मे राजनीति का स्तर लगातार गिर रहा है। अच्छे लोग लगातार राजनीति से किनारे होते जा रहे है और पदलोलुप तिकड़म बाज राजनीति मे घुसते जा रहे है। आम तौर पर माना जाता है कि राजनीति एक व्यवसाय बन चुकी है। इससे बढ़कर राजनीति को गिरोह का रूप दिया जाने लगा है। पिछले दिनो भाजपा के प्रमुख नेता और कई बार प्रधानमंत्री के दावेदार रह चुके लाल कृष्ण आडवाणी ने नाटक किया। उस नाटक ने तो राजनीति को स्पष्ट रूप से बिल्कुल ही नंगा कर दिया।

            आडवानी जी ने बीमारी का जो झुठ बोला उस पर देश मे किसी को विश्वास नही हुआ। उसके बाद भी वे सफाई देते रहे कि वे वास्तव मे वीमार थे। उन्हे दस्त लग रहे थे । इतने बड़े स्थापित व्यक्तित्व का ऐसा झूठ ऐतिहासिक ही माना जाएगा। जल्द ही स्पष्ट हो गया कि वे बीमार नही थे और उन्होने झूठ बोला । इससे भी आगे बढ़कर उनके पतन की तब और भी पराकाष्ठा हो गयी जब उन्होने प्रधानमंत्री पद के प्रति अपनी दावेदारी पेश की और सारे भारत को यह संदेश दिया कि उनकी नाराजगी पर उनकी बीमारी प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने से दूर हो सकती है। प्रश्न उठता है कि प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी पार्टी की अमानत है या उनका अधिकार? स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री पद देश की जनता की अमानत है न कि किसी का अधिकार । उसी तरह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी भी पार्टी की अमानत होती है। यह अलग बात है कि पार्टी के अन्दर-अन्दर इस पद के लिये दाव-पेंच चलते रहते है । परन्तु कभी इतनी खुलकर मांगे नही होती जैसा कि आडवाणी जी ने किया। नरेन्द्र मोदी भी कई बार झूठ बोलने मे फंस चुके है। आजमगढ़ की मुस्लिम महिलाओं का फोटो खींचवाकर उन्हे गुजरात का प्रकरण बताने मे अथवा ब्रिटेन के सांसदो को गुप्त रूप से प्रलोभन देकर भारत मे बुलाने की बाते जगजाहिर है। मोदी जी के रूठने की बात भी किसी से छिपी नही है। किन्तु आडवाणी जी के प्रकरण मे जिनता खुलकर झुठ बोला गया या प्रधानमंत्री पद का दावा पेश किया गया उसमे तो न सिर्फ भारतीय जनता पार्टी बल्कि हर राजनेता का सर झुका दिया। चाल-चेहरा और चरित्र की बात कहने वाले इतना नीचे तक उतर जायेगे यह कभी सोचा भी नही गया था। पार्टी के अन्य कार्यकर्ताओ को राष्टप्रेम, राष्टभक्ति, त्याग और बलिदान का उपदेश देते आडवाणी जी को भी कई बार सुना गया है। वही आडवाणी जी आज अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये सारा प्रवचन भूल गये। इससे तो अच्छा कांग्रेस पार्टी का चरित्र दिखा जिसके प्रधानमंत्री स्वयं राहुल गांधी के लिये पद छोड़ने की बात करते है अथवा सोनियां ने प्रधानमंत्री पद मिलता हुआ छोड़कर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया। एक ओर सोनिया मनमोहन सिंह का व्यवहार और दूसरी ओर नरेन्द्र मोदी आडवाणी की पदलोलुपता की आपस मे कैसे तुलना की जाय यह समझ मे नही आता। झूठ  बोलने मे भी मनमोहन सिंह सोनियां गांधी से मोदी और आडवाणी कई गुना अधिक नासमझी करते देखे जाते है।

            राजनीति मे कभी साधु सन्तों के समान नैतिकता की कल्पना नहीं की जा सकती। राजनीति मे कूटनीति तथा चालाकी होती ही है। किन्तु इसकी भी कोई सीमा तो अवश्य होती है। वैसे तो नेहरू काल से ही राजनीति मे नैतिकता का अभाव होता चला गया जो इन्दिरा गांधी के काल मे अपने चरम पर पहुंच गया। उसके बाद कांग्रेस पार्टी ने भी राजनीति के स्तर मे कुछ सुधार किया तथा अटल जी के नेतृत्व मे भाजपा ने भी राजनीति मे नैतिकता को कुछ मजबूत किया। अटल जी के बाद भारतीय जनता पार्टी बिल्कुल नही संभाल सकी। भाजपा की आंतरिक राजनीति का स्तर भी गिरता गया और राष्ट्रीय राजनीति का भी । जिस तरह भाजपा ने मनमोहन सिंह के त्यागपत्र के नाम पर इतने महिने संसद ठप की वह बिल्कुल ही गलत था। मोदी जी ने भाजपा का नेतृत्व सम्हाल कर लगातार राजनीति मे छल प्रपंच को बढाया है। स्थिति यहां तक आई कि आडवाणी जी ने प्रधानमंत्री पद की इस तरह मांग करके राजनीति मे नैतिकता के स्तर को बिल्कुल ही नंगा कर दिया ।