भारत की आर्थिक समस्या और समाधान
कुछ सर्व स्वीकृति सिद्धान्त है
1 पूरी दुनिया तेज गति से भौतिक उन्नति कर रही है और उतनी ही तेज गति से नैतिक पतन हो रहा है।
2 प्राचीन समय मे भारत विचारों का भी निर्यात करता था तथा आर्थिक दृष्टि से भी सम्पन्न था । दो-तीन हजार वर्षो से भारत सभी मामलो मे पीछे चला गया है ।
3 राजनीति धर्म समाज सेवा आदि सभी क्षेत्रो का व्यवसायी करण हुआ है । साथ सम्पूर्ण व्यवसाय का भी राजनीतिकरण हो गया है ।
4 सामाजिक समस्याओ का समाधान समाज को, आर्थिक समस्याओ का समाधान स्वतंत्र बाजार को तथा प्रशासनिक समस्याए का समाधान राज्य को करना चाहिये । राज्य को हर मामले मे हस्तक्षेप नही करना चाहिये ।
दुनिया के हर क्षेत्र मे हर व्यवस्था का व्यवसायीकरण हो गया है । साथ ही हर व्यवसाय का राजनीतिकरण भी हुआ है । राजनीति और व्यवसाय एक दूसरे के पूरक बन गये है । राजनीति हर मामले मे व्यवसाय को दोषी मानती है तो व्यवसाय राजनीति को । उचित होता कि दोनो अपनी-अपनी सीमाओ मे रहते और किसी का उल्लंघन नही करते किन्तु उल्लंघन सारी दुनिया मे जारी है । भारत मे तो विशेष रूप से दोनो एक-साथ एक दूसरे को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं । यही कारण है कि लगातार समस्याए बढती जा रही हैं । भारत मे कुल मिलाकर 11 समस्याएं लगातार बढती जा रही है । उनमे पांच समस्या आपराधिक, दो अनैतिक, दो संगठनिक और सिर्फ दो आर्थिक समस्याएं है । पांच प्रकार की आपराधिक समस्याए है । 1 चोरी डकैती लूट 2 बलात्कार 3 मिलावट कमतौल 4 जालसाजी धोखाधडी 5 हिंसा बल प्रयोग । ये सभी समस्याए राज्य की कम सक्रियता के कारण बढ रही है । दो नैतिक समस्याए भ्रष्टाचार और चरित्र पतन तथा दो संगठनात्मक समस्याए साम्प्रदायिकता और जातीय कटुता राज्य की अधिक सक्रियता के कारण लगातार बढ रही है । यदि राज्य नैतिक और संगठनात्मक समस्याओं से दूर होकर आपराधिक समस्याओं के समाधान मे अधिक सक्रिय हो जाये तो भारत मे समस्याए अपने आप सुलझ जायेंगी । आर्थिक समस्या भारत मे दो ही है । 1 आर्थिक असमानता 2 श्रम शोषण । तीसरी कोई आर्थिक समस्याए भारत मे नहीं है । ये दो समस्याये भी राज्य की अति सक्रियता के कारण बढी हैं । यदि राज्य इनके समाधान से स्वयं को दूर कर दे तो ये समस्या बहुत कम हो जायेंगी । राज्य इन दो समस्याओ को अप्रत्यक्ष रूप से बढाता रहता है और दूसरी ओर समाधान का नाटक भी करते रहता है ।
वर्तमान राज्य की भूमिका बिल्लियो के बीच बंदर के समान होती है जो हमेशा चाहता है कि बिल्लियो की रोटी कभी बराबर न हो । बंदर हमेशा रोटी को बराबर करने का प्रयास करता हुआ दिखे किन्तु होने न दे तथा छोटी रोटी वाली बिल्ली के मन मे असंतोष की ज्वाला हमेशा जलती रहे । यदि ये तीनो काम एक साथ नही होंगे तो लोकतंत्र मे बंदर भूखा ही मर जायेगा । राज्य भी ये तीनो काम हमेशा जारी रखता है । राज्य की अर्थनीति हमेशा आर्थिक विषमता तथा श्रम शोषण को बढाते रहती है । दूसरी ओर राज्य हमेशा मंहगाई गरीबी बेरोजगारी जैसी अस्तित्वहीन समस्याओे का समाधान करते रहता है । इसके साथ ही राज्य हमेशा गरीब और अमीर के बीच असंतोष की ज्वाला को जलाकर रखना चाहता है जिससे वर्ग विद्वेष बढता रहे और राज्य उसका समाधान करता रहे । दुनियां जानती है कि भारत मे मंहगाई घट रही है, गरीबी भी घट रही है, आम लोगो का जीवन स्तर सुधर रहा है । किन्तु राज्य दोनो को जिंदा रखे हुए है । दुनियां जानती है कि श्रम और बुद्धि के बीच लगातार दूरी बढती जा रही है किन्तु भारत सरकार गरीब ग्रामीण श्रमजीवी कृषि उत्पादन पर भारी से भारी टैक्स लगाकर शिक्षा स्वास्थ जैसे अनेक कार्यो पर खर्च करती है । राज्य की गलत अर्थनीति के कारण पांच समस्याए वर्तमान मे दिख रही है । 1 ग्रामीण और छोटे उधोगो का बंद होकर शहरी और बडे उधोगो मे बदलना । 2 किसान आत्महत्या । 3 पर्यावरण का प्रदूषित होना । 4 आयात निर्यात का असंतुलन । 5 विदेशी कर्ज का बढना । इन पांचो समस्याओ से भारत परेशान है । भारत सरकार इन समस्याओ के समाधान के लिये भी प्रयत्न कर रही है किन्तु उसके अच्छे परिणाम नही आ रहे है । दूसरी ओर आर्थिक असमानता और श्रम शोषण भी बढता जा रहा है । 70 वर्षो मे गरीब ग्रामीण श्रम जीवी छोटे किसान का जीवन स्तर दो गुना सुधरा है तो बुद्धिजीवी शहरी बडे किसान का आठ गुना और पूंजीपतियो का 64 गुना । देश की आर्थिक उन्नति का लाभ कमजोर लोगो को 1 प्रतिशत तो सम्पन्न लोगो को पंद्रह प्रतिशत तक हो रहा है । आज भी भारत मे अनेक लोग अथाह सम्पत्ति के मालिक बन गये है । तथा वे लगातार हवाई जहाज की रफतार से आगे बढ रहे है तो दूसरी ओर भारत मे बीस करोड ऐसे भी लोग है जो सरकारी आकडो के अनुसार बत्तीस रूपया प्रतिदिन से भी कम पर जीवन यापन कर रहे है । मुझे तो लगता है कि सरकार पूरी अर्थ व्यवस्था को पूरीतरह स्वतंत्र कर देती तो ये 32 रूपया वाले बहुत जल्दी 100 रूपये तक पहुच जाते । हो सकता है इस आर्थिक स्वतंत्रता के परिणाम स्वरूप कुछ बुद्धिजीवियो और सम्पन्नो की वृद्धि की रफतार कुछ कम हो जाती । गरीब ग्रामीण श्रमजीवी पर टैक्स लगाकर शिक्षा पर खर्च करना यदि बुद्धिजीवियो का षणयंत्र नही है तो और क्या है । रोटी, कपडा, मकान, दवा जैसी मूलभूत आवश्यक वस्तुओ पर टैक्स लगाकर आवागमन को सस्ता करना सुविधाजनक बनाना यदि पूंजीपतियों का षणयंत्र नही है तो और क्या है । गांवो के पर्यावरण से मुक्त वातावरण से निकलकर शहरो के गंदे वातावरण की ओर आम लोगो को आकर्शित करना और फिर उस गंदगी को साफ करने का ढोंग करना षणयंत्र नही तो क्या है । हमारे प्रधानमंत्री मन की बात मे लोगो से मांग करते है कि आप पानी बचाइये बिजली बचाईये इस बचे हुए पानी से दिल्ली और बम्बई मे कृत्रिम वर्षा कराई जायेगी । इस बची हुई बिजली से शहरो की रोशनी जगमग की जायेगी । यह प्रधानमंत्री का आहवान नाटक नही है तो क्या है । भारत मे आर्थिक समस्याए बढ नही रही है बल्कि निरंतर बढाई जा रही हैं और उसका उद्देश्य है कि बंदर रूपी राज्य भूखा न मर जाये । इसका अर्थ है कि राज्य निरंतर शक्तिशाली बना रहे और भारत की जनता राज्य आश्रित रहे । कभी समझदार नही हो जाये । राज्य लोकतांत्रिक तरीके से आर्थिक असमानता और श्रम शोषण को बढाने के लिये चार काम जोर देकर करता है । 1 कृत्रिम उर्जा की मूल्य वृद्धि न हो । 70 वर्षो मे कोई ऐसा वर्ष नही आया जब डीजल, पेट्रोल, बिजली, केरोसीन, कोयला, गैस आदि की आंशिक भी मूल्य वृद्धि हुई हो । सारा देश मूल्य वृद्धि को महसूस करता है किन्तु सच्चाई यह है कि आज तक मूल्य वृद्धि हुई ही नही है । जिसे मूल्य वृद्धि कहा जाता है वह तो मूद्रा स्फीति है । जान बूझकर प्रतिवर्ष घाटे का बजट बनाया जाता है जिससे प्रतिवर्ष मुद्रा स्फीति बढती रहे और लोग मंहगाई मूल्य वृद्धि से अपने को परेशान समझते रहें ।
2 कृत्रिम श्रम मूल्य वृद्धि के प्रयत्न । राज्य प्रतिवर्ष श्रम मूल्य मे वृद्धि की घोषणा करता है । यह श्रम मूल्य वास्तविक नही होता बल्कि नकली होता है । राज्य द्वारा घोषित श्रम मूल्य जितना अधिक होता है उतनी ही वास्तव मे श्रम की मांग बाजार मे घट जाती है और वास्तविक श्रम मूल्य कम हो जाता है । राज्य इसे ही अपनी उपलब्धि मानता है । यदि राज्य श्रम मूल्यवृद्धि बंद कर दे और न्यूनतम श्रम मूल्य को इस प्रकार घोषित करे जिस तरह उसने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना घोषित की है तब तो बाजार पर अच्छा प्रभाव पडेगा । अन्यथा श्रम मूल्य वृद्धि की सरकारी योजना श्रम मूल्य वृद्धि पर हमेशा बुरा असर डालती है । राज्य निरंतर ऐसा कर रहा है ।
3 शिक्षित बेरोजागर शब्द की उत्पत्ति । एक तरफ तो राज्य गरीब ग्रामीण श्रमजीवी कृषि उत्पाद पर भारी टैक्स लगाकर शिक्षा और आवागमन पर खर्च करता है तो दूसरी ओर शिक्षित बेरोजगारी को दूर करने का भी निरंतर प्रयास करता है । जबकि सच्चाई यह है कि शिक्षित व्यक्ति कभी बेरोजगार होता ही नही । श्रमजीवी के पास रोजगार का एक ही माध्यम होता है और शिक्षित व्यक्ति के पास रोजगार के लिये श्रम तो होता ही है विकल्प के रूप मे उसके पास शिक्षा का अतिरिक्त माध्यम भी होता है । इसका अर्थ हुआ कि जिसके पास शिक्षा नहीं है वही बेरोजगार हो सकता है । जिसके पास श्रम भी है और शिक्षा भी है वह बेरोजगार हो ही नही सकता । बुद्धिजीवियो ने बेरोजगारी की परिभाषा बदल दी । बेरोजगारी हमेशा श्रम के साथ जुडी होनी चाहिये । रोजगार की परिभाषा इस प्रकार होनी चाहिये कि न्युनतम श्रम मुल्य पर योग्यता अनुसार कार्य का अभाव । एक व्यक्ति भूखा और मजबूर होने के कारण सौ रूपये मे काम कर रहा है, तो सरकार उसे रोजगार प्राप्त मान लेती है । दूसरी ओर एक पढा लिखा व्यक्ति पाच सौ रूपये या 1000 रूपये प्रतिदिन पर भी काम करने को तैयार नही है उसे बेरोजगार माना जाता है । यह बेरोजगारी की गलत परिभाषा का परिणाम है ।
4 जातीय आरक्षण । स्वतंत्रता के पूर्व बुद्धिजीवियो ने सम्पूर्ण समाज मे जन्म के आधार पर अपनी श्रेष्ठता को आरक्षित कर लिया था ब्राम्हण का लडका ब्राम्हण और शुद्र का लडका श्रमिक ही बनेगा । यह बाध्यकारी कर दिया गया था । इस आरक्षण ने भारी विसंगतियां पैदा की थी । स्वतंत्रता के बाद इस आरक्षण का भरपूर लाभ भीम राव अम्बेडकर ने उठाया । उन्होने बुद्धिजीवियो का पक्ष लेकर सवर्ण बुद्धिजीवियो और अवर्ण बुद्धिजीवियो के बीच एक समझौता करा दिया जिसका परिणाम हुआ कि श्रम बेचारा अलग-थलग पड गया । आज भी 90 प्रतिशत आदिवासी हरिजन उसी प्रकार गरीब ग्रामीण श्रमजीवी का जीवन जीने के लिये मजबूर है । और बदले मे चार-पांच प्रतिशत अवर्ण बुद्धिजीवी भारी उन्नति करके इन बेचारो का शोषण कर रहे है । पूरी विडम्बना है कि भारत का हर सवर्ण और अवर्ण बुद्धिजीवी भीम राव अम्बेडकर की भूरि-भूरि प्रशंसा करता है क्योकि भीम राव अम्बेडकर ही अकेले ऐसे व्यक्ति हुए है जिन्होने हजारो वर्षो से चले आ रहे श्रम शोषण को संवैधानिक स्वरूप दे दिया ।
मेरे विचार मे भारत की सभी आर्थिक समस्याए राज्य निर्मित है । राज्य अर्थ व्यवस्था को पूरी तरह बाजार आश्रित कर दे तो ये समस्याए बहुत कम हो जायेगी । इसके साथ-साथ यदि कृत्रिम उर्जा का वर्तमान मूल्य ढाई गुना बढाकर पूरी धनराशि प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिमाह उर्जा सब्सीडी के रूप मे बराबर-बराबर बांट दिया जाये तो दो वास्तविक समस्याए श्रम शोषण और आर्थिक असमानता भी अपने आप सुलझ जायेगी । मेरे विचार से एक अनुमान के आधार पर पांच व्यक्तियो के एक परिवार को करीब सवा लाख रूपया उर्जा सब्सीडी के रूप मे प्रतिवर्ष मिलता रहेगा । इससे श्रम मूल्य भी बढ जायेगा आर्थिक असमानता भी कम हो जायेगी तथा अन्य अनेक आर्थिक समस्याए अपने आप सुलझ जायेगी ।
मै जानता हॅू कि भारत मे सम्पूर्ण अर्थ व्यवस्था पर पूंजीपति और बुद्धिजीवियों का एकाधिकार है । इस एकाधिकार के लिये ये दोनो राज्य का सहारा लेते है । भारत के ये बुद्धिजीवी और पूंजीपति कभी नही चाहेंगे कि कृत्रिम उर्जा की मूल्य वृद्धि हो क्योकि ऐसा होते ही उन्हे मंहगा श्रम खरीदना होगा । आवागमन मंहगा हो जायेगा । उन्हे शहर मे रहने मे अधिक खर्च करना पडेगा । उनकी सुविधाएं घटेंगी और उन्हे कुछ अन्य परेशानियां भी होगी । यदि बिल्लियां मजबूत होंगी तो बंदर को परेशानी होगी ही । इसलिये ये दोनो ऐसा नहीं होने देंगे यह निश्चित है और इसके अलावा इस समस्या का कोई भी अलग समाधान है भी नहीं । मै चाहता हॅू कि भारत मे आर्थिक समस्या के आर्थिक समाधाान पर एक स्वतंत्र विचार मंथन की शुरूआत हो जिससे भारत के आम जन जीवन पर बुद्धिजीवी पूंजीपति षणयंत्र के विपरीत प्रभाव से मुक्ति मिल सके ।
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