सहजीवन के प्रशिक्षण बिना हिंसा और स्वार्थ पर अंकुश संभव नहीं: GT - 443

सहजीवन के प्रशिक्षण बिना हिंसा और स्वार्थ पर अंकुश संभव नहीं:

                मार्गदर्शन संस्थान द्वारा कल रात 8:00 बजे इस विषय पर गंभीर चर्चा आयोजित की गई कि वर्तमान समय में समाज में हिंसा और स्वार्थ प्रत्येक व्यक्ति के अंदर क्यों बढ़ रहा है। चर्चा में यह बात सामने आई कि व्यक्ति का जन्म से 5 वर्षों तक जो स्वभाव बनता है उस पर परिवार व्यवस्था का बहुत प्रभाव पड़ता है उसके बाद जब बालक स्कूल जाता है या समाज में जाता है तब उस पर समाज व्यवस्था का प्रभाव पड़ता है लेकिन वर्तमान समय में परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को लगभग समाप्त करके राज्य व्यवस्था सब कुछ अपने हाथ में इकट्ठा कर रही है। यह प्रमुख कारण है कि व्यक्ति को बचपन से लेकर बड़े होते तक अनुशासन सीखने को नहीं मिल रहा है। राज्य व्यवस्था ने व्यक्ति को पूरी तरह स्वतंत्र कर दिया। उसे परिवार और समाज की सीमाओं में जुड़ कर रहने की मजबूरी खत्म कर दी। यह एक बड़ी समस्या है। अब समाधान के रूप में परिवार और समाज व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है। परिवार और समाज के अपने आंतरिक मामलों में राज्य को ना कोई कानून बनना चाहिए ना हस्तक्षेप करना चाहिए। आज तो स्थिति यहां तक आ गई है कि परिवार या समाज किसी गलत करने वाले का बहिष्कार भी नहीं कर सकता है, उसे अनुशासित भी नहीं कर सकता है, उसको समाज से निकाल भी नहीं सकता है, इस तरह राज्य पूरी तरह मालिक हो गया है और समाज व्यवस्था परिवार व्यवस्था को लगातार कमजोर किया जा रहा है। इस विषय पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

दुनिया की तुलना में भारत के प्रत्येक व्यक्ति में स्वार्थ और हिंसा क्यों बढ़ रही है? इस विषय पर चर्चा का आज हमारा दूसरा दिन है। मैंने इस संबंध में बहुत विचार किया। भारत में प्रत्येक व्यक्ति के अंदर हिंसा बहुत तेजी से बढ़ रही है, इसके दो कारण हैं। पहला कारण है कि 70 वर्षों तक राज्य गांधी विचारों के सहारे न्यूनतम हिंसा के मार्ग पर चलता है। परिणाम स्वरुप प्रत्येक व्यक्ति में असुरक्षा की भावना पैदा हुई और लोग सुरक्षा के लिए अपने-अपने तरीके से संगठित होने लगे। इसका दूसरा कारण यह हुआ कि इस असुरक्षा के भावना का लाभ उठाने के लिए साम्यवाद, इस्लाम और सावरकरवाद ने अपने-अपने तरीके से हिंसा का समर्थन करना शुरू किया। आम लोग अलग-अलग गुटों में बटकर हिंसा का समर्थन भी करने लगे और लाभ भी उठने लगे। धर्म हमेशा अहिंसा का उपदेश देता था और राज्य हमेशा अहिंसा को सुरक्षा देने के उद्देश्य से अधिकतम हिंसा का उपयोग करता था। लेकिन स्वतंत्रता के बाद धर्म हिंसा का प्रचार करने लग गया और राज्य अहिंसा का। नरेंद्र मोदी के आने के बाद वातावरण धीरे-धीरे बदल रहा है। हिंसा के समर्थक मुसलमान, कम्युनिस्ट और सावरकरवादी किनारे किए जा रहे हैं। अभी-अभी भोपाल चुनाव से हिंसा समर्थक प्रज्ञा ठाकुर का टिकट काटकर सत्तारूढ़ दल में अच्छा संदेश दिया है। दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ शरीखे मुख्यमंत्री ने उत्तर प्रदेश को सुरक्षा प्रदेश बनाकर हिंसा समर्थक मुसलमान की कमर तोड़ दी है। साम्यवाद तो अपने आप खत्म हो ही रहा है। मैं समझता हूं कि भारत इस संबंध में ठीक दिशा में जा रहा है। फ्रांस सरकार ने भी इस प्रकार के उग्रवादी विदेशियों को देश से निकालने की पहल करके बहुत अच्छी शुरुआत की है। इसराइल भी अपने तरीके से ठीक दिशा में काम कर रहा है। हमारे लिए यही उचित है कि हम राज्य को समुचित हिंसा और समाज को न्यूनतम हिंसा की दिशा में बढ़ने की प्रेरणा दें।

वैसे तो पूरी दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति में स्वार्थ भाव बढ़ रहा है। इस विषय पर भी गंभीरता से सोचा गया। इसका मुख्य कारण यह है कि दुनिया में इस प्रकार का लोकतंत्र विकसित हो रहा है जिसमें व्यक्तिगत संपत्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जा रहा है। यही कारण है कि स्वार्थ और उद्दंडता प्रत्येक व्यक्ति को संस्कार के रूप में प्राप्त हो रही है। लेकिन भारत में इस प्रकार का व्यक्तिगत स्वार्थ अधिक तेजी से बढ़ रहा है क्योंकि भारत में संपत्ति के अतिरिक्त अधिकार भी केंद्रित हो रहे हैं। व्यक्ति के पास जब संपत्ति, सम्मान और अधिकार तीनों इकट्ठे हो जाएंगे तो व्यक्ति में स्वार्थ बढ़ने का खतरा अधिक होना स्वाभाविक है। वर्तमान सरकार भी इस संबंध में कुछ सोच नहीं पा रही है कि क्या किया जा सकता है। मेरे विचार से व्यक्ति के स्वभाव में स्वार्थ की भावना घटे इसके लिए व्यक्तिगत संपत्ति और स्वतंत्रता के अधिकार को समाप्त कर देने की जरूरत है। अब संपत्ति व्यक्तिगत नहीं बल्कि सामूहिक होनी चाहिए अर्थात संपत्ति और स्वतंत्रता पूरे परिवार की संयुक्त होनी चाहिए जिस परिवार का व्यक्ति सदस्य है। इस तरह व्यक्तिगत स्वार्थ और उद्दंडता पर नियंत्रण लग सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता और सह जीवन का तालमेल ही समाज व्यवस्था है। सरकार को इस प्रकार का कानून बनना चाहिए कि परिवार को एक इकाई मानकर उसे संवैधानिक अधिकार दिए जाएं। परिवार सिर्फ व्यक्तियों का संघ ना होकर एक स्वतंत्र इकाई हो। उस परिवार की सारी संपत्ति संयुक्त हो तथा स्वतंत्रता भी संयुक्त हो। भारत सरकार परिवार व्यवस्था की दिशा में धीरे-धीरे बढ़ तो रही है किंतु संयुक्त संपत्ति और संयुक्त उत्तरदायित्व की दिशा में अभी सोच नहीं पा रही है।