हिन्दु संस्कृति और वर्तमान भारतीय संस्कृति

कोई व्यक्ति बिना विचार किये बार बार किसी कार्य को करना शुरू कर दे तो लम्बे समय बाद वह कार्य उस व्यक्ति का संस्कार कहा जाता है और किसी समूह विशेष का बहुमत ऐसे संस्कार वालो का बन जावे तो वह उस समूह विषेश की संस्कृति मान ली जाती है ।

                संस्कृतियाँ कई प्रकार की है किन्तु इनमे पाश्चात्य, इस्लामिक,हिन्दु और भारतीय संस्कृति तक ही हम विचार मंथन को सीमित करेंगे । अन्य संस्कृतियाँ या तो इनके हिस्से कह सकते है या इस चर्चा मे शामिल करना आवश्यक नही समझते ।

                संस्कृतियो के दो भाग होते है (1) बाह्य (2) परोक्ष या आन्तरिक।  बाह्य संस्कृति मे मुख्य रूप से खान पान, भोजन,पहनावा, भाषा आदि का समावेश होता है जबकि परोक्ष मे स्वभाव, व्यवहार आदि अनेक बाते शामिल होती है । बाह्य संस्कृति का प्रभाव कम असर डालता है और आन्तरिक का गंभीर या दूरगामी ।

                धार्मिक आधार पर यदि हम विभाजन करें तो पाश्चात्य संस्कृति पर इसाइयों का व्यापक प्रभाव है और भारतीय पर हिन्दू संस्कृति का । हिन्दू धर्म और इसाई धर्म का राज्य व्यवस्था से बिल्कुल सीधा संबंध न होने से इनमें कुछ भिन्नताएँ भी है किन्तु इस्लाम मे धर्म और राज्य के बीच कोई भेद नही होने से दोनो एक रहते है । इसलिये हमने इस्लामिक संस्कृति को एक मानकर विचार मंथन किया है ।

                वर्तमान पाश्चात्य संस्कृति अन्य संस्कृतियो की अपेक्षा अधिक यथार्थवादी है । देश काल परिस्थिति अनुसार अपनी नीतियो मे संशोधन करने मे कभी सिध्दान्त आडे नही आता । पूरी दुनिया मे व्यक्ति के जो चार मूल अधिकार 1. जीने का 2.अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का 3. सम्पत्ति का 4. स्व निर्णय का माने जाते है उनके प्रति इन देशो मे कुछ अच्छी समझ है। ये लोग धर्म और विज्ञान के बीच भी अच्छा तालमेल रखते है। स्त्री पुरूष के बीच आपसी व्यवहार के मामले मे भी ये अधिक व्यावहारिक और प्रत्यक्ष होते है। ये व्यक्ति, परिवार और समाज के बीच संतुलन बनाने मे परिवार और समाज की अपेक्षा व्यक्तिवाद की ओर अधिक झुके हुए होते है। दूसरी संस्कृति के लोगो को अपनी बात समझाने मे ये तर्क या हिंसा का सहारा न लेकर सेवा और प्रेम का सहारा लेना अधिक पसन्द करते है। इनकी जीवन पद्धति में लोकतंत्र स्पष्ट दिखाई देता है ।

                पाश्चात्य संस्कृति मे कुछ कमजोरियाँ भी है । ये संख्या विस्तार के लिये धन का प्रयोग बुरा नही मानते। ये दूसरो को अपने पक्ष मे करने के लिये धन का भरपूर प्रयोग करते है। ये परिवार प्रणाली को कमजोर करते जा रहे है। ये भौतिक प्रगति को मानसिक आध्यात्मिक उन्नति की अपेक्षा बहुत अधिक महत्व देते है। इनमे अन्य देशो या समाजो की अपेक्षा कूटनीति बहुत अधिक पायी जाती है ।

                यदि हम इस्लामिक संस्कृति पर विचार करे तो वह पाश्चात्य या हिन्दू संस्कृति से बिल्कुल भिन्न होती है । इनके अन्दर अच्छाई खोजना बहुत कठिन काम है । इस्लाम न धर्म है न समाज। इन्हें एक संगठन से अधिक और कुछ कहना उचित नही, यद्यपि पूरी दुनिया मे इन्हे धर्म भी कहा जाता है और समाज भी। संगठन के सभी गुण अवगुण इनमें विद्यमान है। ये आम तौर पर न तर्क शक्ति पर विश्वास करते है न धन शक्ति पर । ये विश्वास करते है बल शक्ति पर। ये संगठन शक्ति को सफलता का इस सीमा तक आधार मानते है कि खान पान रहन सहन वेश भूषा, पूजा पद्धति आदि सब जगह इसका बहुत ध्यान रखते है। इस कार्य के लिये ये साफ सफाई तक का ज्यादा ध्यान नही रखते। जहाँ भी ये कमजोर होते है वहाँ ये न्याय की बात करते है और जहाँ मजबूत होते है वहाँ स्वय को सशक्त करने की। लडकियों को शिक्षा देने मे तो ये कई बार सोचते ही है, लडको को भी शिक्षा देने मे ये दूसरो की अपेक्षा मदरसा, उर्दू या कुरान का विशेष ध्यान रखते है किन्तु जब ये प्रगति मे पिछड जाते है तब तुलनात्मक प्रगति के लिये सच्चर सरीखा आयोग बनवाकर आरक्षण की मांग शुरू कर देते है। ये अपनी कमाई और श्रम का हिस्सा तो गरीब होते हुए भी धर्म, संगठन और इस्लामिक भाई चारा पर खर्च करते है तथा गरीबी का कारण भी दूसरो पर थोपने मे परहेज नही करते । ये पूजा पद्धति, समाज व्यवस्था तथा राज्यव्यवस्था तक में देश काल परिस्थिति अनुसार संशोधन नही कर सकते क्योकि ऐसी समीक्षा या संशोधन के लिये इनके द्वार हमेशा के लिये बन्द है। ये समान नागरिक संहिता को नही मानते बल्कि पुरूष प्रधानता का कडाई से पालन करते है। ये मरने के लिये भी तैयार रहते है और मारने के लिये भी। ये अपने धर्म के लिये जिसे हम संगठन मानते है उसमे विस्तार के लिये योजना पूर्वक धन श्रम या जान तक देने मे हमेशा तैयार रहते है ।

                हिन्दू संस्कृति की यदि हम बात करें तो वह लगातार धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। भारत को छोडकर अन्य किसी देश मे इसका निर्णायक प्रभाव नही। इस संस्कृति मे कई व्यापक गुण है। यह धर्म समाज और राज्य को बिल्कुल पृथक पृथक करके देखती है । इसने कभी संख्या बल को महत्व नही दिया। यहाँ तक कि पूरी दुनिया मे यह अकेली ऐसी संस्कृति है जिसने संख्या विस्तार मे अपने प्रयत्न के दरवाजे एक तरफा बन्द कर रखे है, ऐसे समय मे भी जब इनकी कमजोरियो का लाभ उठाने में दूसरे लोग बडी बेशर्मी से प्रयत्न करते रहते है । ये संयुक्त परिवार व्यवस्था के प्रबल पक्षधर है। ये सांगठनिक धर्म की अपेक्षा व्यक्तिगत धर्म पर ज्यादा जोर देते है।

                दो हजार वर्ष , जबसे पाश्चात्य या इस्लामिक संस्कृतियाँ आगे आई, उससे पूर्व हिन्दु संस्कृति बहुत विकसित थी या पिछडी हुई यह मेरा चर्चा का विषय नही । दो हजार वर्षो का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार हिन्दू संस्कृति ने भी अपने संशोधन के द्वार बन्द कर लिये । वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ने समाज व्यवस्था का तर्क संगत स्वरूप छोडकर संगठन का रूप ग्रहण कर लिया। परिवार व्यवस्था मे भी महिलाओ के समान अधिकार में कटौती की गई । नीतियाँ बनाने मे व्यावहारिक मार्ग की अपेक्षा सिद्धान्तो को ज्यादा महत्व दिया गया। संशोधन के अभाव मे आन्तरिक बुराइयाँ धर करने लगी, किन्तु दूसरो के मामलो में हिन्दु संस्कृति ने आज तक उदारता का ही परिचय दिया है। यह उदारता इनके मन मे इतनी गहराई तक बैठी हुई है कि सैकडो वर्षो से इस उदारता को हानिकर और घातक सिद्ध करने के संघ परिवार या आर्य समाज के प्रयत्नो का भी अब तक कोई खास असर नही हुआ है । आज तक नही जब इसाइयत या इस्लाम लगातार इनके लोगो को तोडते भी रहते है और साथ साथ इनकी मूर्खता का मजाक भी उडाते रहते है।

                अब हम चर्चा करें भारतीय संस्कृति की जो वर्तमान समय मे भारत मे विद्यमान है। भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण अंश तो हिन्दु संस्कृति का ही है किन्तु धर्म निरपेक्ष शासन व्यवस्था होने से इसमे इस्लाम और इसाइयत का भी प्रभाव शामिल है जो भले ही कम हो किन्तु है तो अवश्य ही। भारतीय संस्कृति धीरे धीरे सिद्धांतवाद को छोडकर यथार्थवाद की ओर बढ रही है। परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था कमजोर होकर व्यक्तिवाद बढ रहा है। आध्यात्म लगातार भौतिकवाद की तरफ सरक रहा है। सबसे अधिक खतरनाक बुराई सम्पूर्ण भारत मे यह बढी है कि ये अपनी सफलता के लिये चालाकी को किसी भी सीमा तक उपयोग करने को अच्छा मानने लगे है। यह बुराई भारतीय संस्कृति मे बढती ही जा रही है। जो लोग भारतीय संस्कृति मे आई गिरावट का कारण पाश्चात्य या इस्लामिक संस्कृति मे खोजने का प्रयास करते है वे बताने की कृपा करे कि इस छल कपट की बुराई वृद्धि मे किसका कितना हाथ है? स्वाभाविक है कि यह बुराई न पश्चिम से आई है न इस्लामिक संस्कृति की देन है । हिन्दु संस्कृति मे भी चाहे और जो भी कमियाँ रही हो किन्तु यह बुराई तो नही थीं । यदि हम वर्तमान भारतीय संस्कृति की वर्तमान गंभीर बुराई को खोजना शुरू करे तो यह गंभीर बुराई किसी अन्य संस्कृति से न आकर हमारी भारतीय राजनैतिक व्यवस्था से आई है और लगातार चुपचाप आती जा रही है। जिस भी व्यवस्था मे कानून अधिक होगें और नियंत्रण की व्यवस्था कम वहाँ भ्रष्टाचार बढता ही है । यह एक स्वाभाविक प्रकिया है । भारत मे कानून तो नित नये नये कुकुरमुत्ते की तरह बन रहे है और भ्रश्टाचार की रोकथाम की उतनी मजबूत व्यवस्था न है न होना संभव है। परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार दिन दूना रात चैगुना बढता जा रहा है। जिस तरह भ्रष्टाचार बढ रहा है उसी मात्रा मे भ्रष्टाचार से बचने की चालाकी भी बढ रही है । जो चालाकी नही करता उसे मूर्ख माना जाने लगा है। यह एक मात्र कारण है जिसने वर्तमान भारतीय संस्कृति को इस दिशा मे कलंकित किया है । न इसमे हिन्दुत्व का दोष है न पश्चिम का । दोष है तो सिर्फ अपनी शासन व्यवस्था का जिसका तत्काल समाधान होता नही दिखता।

                यदि हम अपनी समीक्षा करें तो राज्य पद्धति की लाइलाज बीमारी को छोडकर भारतीय संस्कृति के लिये उचित क्या है? इस्लामिक संस्कृति की ओर मुँह करे या पश्चिम की ओर । मेरे विचार मे दोनो ही संस्कृतियो के कुछ अलग अलग गुण दोष है । किसी एक से चिपटना न उचित है न संभव। अच्छा तो यही होगा कि हम हिन्दू संस्कृति के सिद्धान्तवाद को पश्चिमी संस्कृति के कठिन यथार्थवाद से जोडकर अपनी राह बनावें। हम न आध्यात्म के मार्ग से चिपटे रहे न भौतिकवाद के आकर्षक राह पर ही दौडना शुरू कर दें । हम करें सिर्फ यही कि हिन्दू धर्म को विज्ञान के साथ तालमेल करके भारतीय संस्कृति को आगे बढाने का काम करें । हम अनावश्यक कानूनो को समाप्त करके परिवार गांव जिले को अधिकतम अधिकार सौप दे तब संभव है कि हमारी भारतीय संस्कृति अपने कलक से भी मुक्त हो जावे और बीच का कोई सम्मान जनक मार्ग निकाल लें।

कोई व्यक्ति बिना विचार किये बार बार किसी कार्य को करना शुरू कर दे तो लम्बे समय बाद वह कार्य उस व्यक्ति का संस्कार कहा जाता है और किसी समूह विशेष का बहुमत ऐसे संस्कार वालो का बन जावे तो वह उस समूह विषेश की संस्कृति मान ली जाती है ।

                संस्कृतियाँ कई प्रकार की है किन्तु इनमे पाश्चात्य, इस्लामिक,हिन्दु और भारतीय संस्कृति तक ही हम विचार मंथन को सीमित करेंगे । अन्य संस्कृतियाँ या तो इनके हिस्से कह सकते है या इस चर्चा मे शामिल करना आवश्यक नही समझते ।

                संस्कृतियो के दो भाग होते है (1) बाह्य (2) परोक्ष या आन्तरिक।  बाह्य संस्कृति मे मुख्य रूप से खान पान, भोजन,पहनावा, भाषा आदि का समावेश होता है जबकि परोक्ष मे स्वभाव, व्यवहार आदि अनेक बाते शामिल होती है । बाह्य संस्कृति का प्रभाव कम असर डालता है और आन्तरिक का गंभीर या दूरगामी ।

                धार्मिक आधार पर यदि हम विभाजन करें तो पाश्चात्य संस्कृति पर इसाइयों का व्यापक प्रभाव है और भारतीय पर हिन्दू संस्कृति का । हिन्दू धर्म और इसाई धर्म का राज्य व्यवस्था से बिल्कुल सीधा संबंध न होने से इनमें कुछ भिन्नताएँ भी है किन्तु इस्लाम मे धर्म और राज्य के बीच कोई भेद नही होने से दोनो एक रहते है । इसलिये हमने इस्लामिक संस्कृति को एक मानकर विचार मंथन किया है ।

                वर्तमान पाश्चात्य संस्कृति अन्य संस्कृतियो की अपेक्षा अधिक यथार्थवादी है । देश काल परिस्थिति अनुसार अपनी नीतियो मे संशोधन करने मे कभी सिध्दान्त आडे नही आता । पूरी दुनिया मे व्यक्ति के जो चार मूल अधिकार 1. जीने का 2.अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का 3. सम्पत्ति का 4. स्व निर्णय का माने जाते है उनके प्रति इन देशो मे कुछ अच्छी समझ है। ये लोग धर्म और विज्ञान के बीच भी अच्छा तालमेल रखते है। स्त्री पुरूष के बीच आपसी व्यवहार के मामले मे भी ये अधिक व्यावहारिक और प्रत्यक्ष होते है। ये व्यक्ति, परिवार और समाज के बीच संतुलन बनाने मे परिवार और समाज की अपेक्षा व्यक्तिवाद की ओर अधिक झुके हुए होते है। दूसरी संस्कृति के लोगो को अपनी बात समझाने मे ये तर्क या हिंसा का सहारा न लेकर सेवा और प्रेम का सहारा लेना अधिक पसन्द करते है। इनकी जीवन पद्धति में लोकतंत्र स्पष्ट दिखाई देता है ।

                पाश्चात्य संस्कृति मे कुछ कमजोरियाँ भी है । ये संख्या विस्तार के लिये धन का प्रयोग बुरा नही मानते। ये दूसरो को अपने पक्ष मे करने के लिये धन का भरपूर प्रयोग करते है। ये परिवार प्रणाली को कमजोर करते जा रहे है। ये भौतिक प्रगति को मानसिक आध्यात्मिक उन्नति की अपेक्षा बहुत अधिक महत्व देते है। इनमे अन्य देशो या समाजो की अपेक्षा कूटनीति बहुत अधिक पायी जाती है ।

                यदि हम इस्लामिक संस्कृति पर विचार करे तो वह पाश्चात्य या हिन्दू संस्कृति से बिल्कुल भिन्न होती है । इनके अन्दर अच्छाई खोजना बहुत कठिन काम है । इस्लाम न धर्म है न समाज। इन्हें एक संगठन से अधिक और कुछ कहना उचित नही, यद्यपि पूरी दुनिया मे इन्हे धर्म भी कहा जाता है और समाज भी। संगठन के सभी गुण अवगुण इनमें विद्यमान है। ये आम तौर पर न तर्क शक्ति पर विश्वास करते है न धन शक्ति पर । ये विश्वास करते है बल शक्ति पर। ये संगठन शक्ति को सफलता का इस सीमा तक आधार मानते है कि खान पान रहन सहन वेश भूषा, पूजा पद्धति आदि सब जगह इसका बहुत ध्यान रखते है। इस कार्य के लिये ये साफ सफाई तक का ज्यादा ध्यान नही रखते। जहाँ भी ये कमजोर होते है वहाँ ये न्याय की बात करते है और जहाँ मजबूत होते है वहाँ स्वय को सशक्त करने की। लडकियों को शिक्षा देने मे तो ये कई बार सोचते ही है, लडको को भी शिक्षा देने मे ये दूसरो की अपेक्षा मदरसा, उर्दू या कुरान का विशेष ध्यान रखते है किन्तु जब ये प्रगति मे पिछड जाते है तब तुलनात्मक प्रगति के लिये सच्चर सरीखा आयोग बनवाकर आरक्षण की मांग शुरू कर देते है। ये अपनी कमाई और श्रम का हिस्सा तो गरीब होते हुए भी धर्म, संगठन और इस्लामिक भाई चारा पर खर्च करते है तथा गरीबी का कारण भी दूसरो पर थोपने मे परहेज नही करते । ये पूजा पद्धति, समाज व्यवस्था तथा राज्यव्यवस्था तक में देश काल परिस्थिति अनुसार संशोधन नही कर सकते क्योकि ऐसी समीक्षा या संशोधन के लिये इनके द्वार हमेशा के लिये बन्द है। ये समान नागरिक संहिता को नही मानते बल्कि पुरूष प्रधानता का कडाई से पालन करते है। ये मरने के लिये भी तैयार रहते है और मारने के लिये भी। ये अपने धर्म के लिये जिसे हम संगठन मानते है उसमे विस्तार के लिये योजना पूर्वक धन श्रम या जान तक देने मे हमेशा तैयार रहते है ।

                हिन्दू संस्कृति की यदि हम बात करें तो वह लगातार धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है। भारत को छोडकर अन्य किसी देश मे इसका निर्णायक प्रभाव नही। इस संस्कृति मे कई व्यापक गुण है। यह धर्म समाज और राज्य को बिल्कुल पृथक पृथक करके देखती है । इसने कभी संख्या बल को महत्व नही दिया। यहाँ तक कि पूरी दुनिया मे यह अकेली ऐसी संस्कृति है जिसने संख्या विस्तार मे अपने प्रयत्न के दरवाजे एक तरफा बन्द कर रखे है, ऐसे समय मे भी जब इनकी कमजोरियो का लाभ उठाने में दूसरे लोग बडी बेशर्मी से प्रयत्न करते रहते है । ये संयुक्त परिवार व्यवस्था के प्रबल पक्षधर है। ये सांगठनिक धर्म की अपेक्षा व्यक्तिगत धर्म पर ज्यादा जोर देते है।

                दो हजार वर्ष , जबसे पाश्चात्य या इस्लामिक संस्कृतियाँ आगे आई, उससे पूर्व हिन्दु संस्कृति बहुत विकसित थी या पिछडी हुई यह मेरा चर्चा का विषय नही । दो हजार वर्षो का जो इतिहास उपलब्ध है उसके अनुसार हिन्दू संस्कृति ने भी अपने संशोधन के द्वार बन्द कर लिये । वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था ने समाज व्यवस्था का तर्क संगत स्वरूप छोडकर संगठन का रूप ग्रहण कर लिया। परिवार व्यवस्था मे भी महिलाओ के समान अधिकार में कटौती की गई । नीतियाँ बनाने मे व्यावहारिक मार्ग की अपेक्षा सिद्धान्तो को ज्यादा महत्व दिया गया। संशोधन के अभाव मे आन्तरिक बुराइयाँ धर करने लगी, किन्तु दूसरो के मामलो में हिन्दु संस्कृति ने आज तक उदारता का ही परिचय दिया है। यह उदारता इनके मन मे इतनी गहराई तक बैठी हुई है कि सैकडो वर्षो से इस उदारता को हानिकर और घातक सिद्ध करने के संघ परिवार या आर्य समाज के प्रयत्नो का भी अब तक कोई खास असर नही हुआ है । आज तक नही जब इसाइयत या इस्लाम लगातार इनके लोगो को तोडते भी रहते है और साथ साथ इनकी मूर्खता का मजाक भी उडाते रहते है।

                अब हम चर्चा करें भारतीय संस्कृति की जो वर्तमान समय मे भारत मे विद्यमान है। भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण अंश तो हिन्दु संस्कृति का ही है किन्तु धर्म निरपेक्ष शासन व्यवस्था होने से इसमे इस्लाम और इसाइयत का भी प्रभाव शामिल है जो भले ही कम हो किन्तु है तो अवश्य ही। भारतीय संस्कृति धीरे धीरे सिद्धांतवाद को छोडकर यथार्थवाद की ओर बढ रही है। परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था कमजोर होकर व्यक्तिवाद बढ रहा है। आध्यात्म लगातार भौतिकवाद की तरफ सरक रहा है। सबसे अधिक खतरनाक बुराई सम्पूर्ण भारत मे यह बढी है कि ये अपनी सफलता के लिये चालाकी को किसी भी सीमा तक उपयोग करने को अच्छा मानने लगे है। यह बुराई भारतीय संस्कृति मे बढती ही जा रही है। जो लोग भारतीय संस्कृति मे आई गिरावट का कारण पाश्चात्य या इस्लामिक संस्कृति मे खोजने का प्रयास करते है वे बताने की कृपा करे कि इस छल कपट की बुराई वृद्धि मे किसका कितना हाथ है? स्वाभाविक है कि यह बुराई न पश्चिम से आई है न इस्लामिक संस्कृति की देन है । हिन्दु संस्कृति मे भी चाहे और जो भी कमियाँ रही हो किन्तु यह बुराई तो नही थीं । यदि हम वर्तमान भारतीय संस्कृति की वर्तमान गंभीर बुराई को खोजना शुरू करे तो यह गंभीर बुराई किसी अन्य संस्कृति से न आकर हमारी भारतीय राजनैतिक व्यवस्था से आई है और लगातार चुपचाप आती जा रही है। जिस भी व्यवस्था मे कानून अधिक होगें और नियंत्रण की व्यवस्था कम वहाँ भ्रष्टाचार बढता ही है । यह एक स्वाभाविक प्रकिया है । भारत मे कानून तो नित नये नये कुकुरमुत्ते की तरह बन रहे है और भ्रश्टाचार की रोकथाम की उतनी मजबूत व्यवस्था न है न होना संभव है। परिणाम स्वरूप भ्रष्टाचार दिन दूना रात चैगुना बढता जा रहा है। जिस तरह भ्रष्टाचार बढ रहा है उसी मात्रा मे भ्रष्टाचार से बचने की चालाकी भी बढ रही है । जो चालाकी नही करता उसे मूर्ख माना जाने लगा है। यह एक मात्र कारण है जिसने वर्तमान भारतीय संस्कृति को इस दिशा मे कलंकित किया है । न इसमे हिन्दुत्व का दोष है न पश्चिम का । दोष है तो सिर्फ अपनी शासन व्यवस्था का जिसका तत्काल समाधान होता नही दिखता।

                यदि हम अपनी समीक्षा करें तो राज्य पद्धति की लाइलाज बीमारी को छोडकर भारतीय संस्कृति के लिये उचित क्या है? इस्लामिक संस्कृति की ओर मुँह करे या पश्चिम की ओर । मेरे विचार मे दोनो ही संस्कृतियो के कुछ अलग अलग गुण दोष है । किसी एक से चिपटना न उचित है न संभव। अच्छा तो यही होगा कि हम हिन्दू संस्कृति के सिद्धान्तवाद को पश्चिमी संस्कृति के कठिन यथार्थवाद से जोडकर अपनी राह बनावें। हम न आध्यात्म के मार्ग से चिपटे रहे न भौतिकवाद के आकर्षक राह पर ही दौडना शुरू कर दें । हम करें सिर्फ यही कि हिन्दू धर्म को विज्ञान के साथ तालमेल करके भारतीय संस्कृति को आगे बढाने का काम करें । हम अनावश्यक कानूनो को समाप्त करके परिवार गांव जिले को अधिकतम अधिकार सौप दे तब संभव है कि हमारी भारतीय संस्कृति अपने कलक से भी मुक्त हो जावे और बीच का कोई सम्मान जनक मार्ग निकाल लें।