भारत हिन्दू राष्ट्र या धर्मनिरपेक्ष

वर्तमान समय में भारत में लगातार इस विषय पर बहस छिड़ी हुई है कि भारत हिन्दू राष्ट्र बने या धर्म निरपेक्ष रहे। संघ परिवार हिन्दू राष्ट्र के पक्ष में है तो संघ विरोधी सब लोग मिलकर भारत को वैसा धर्मनिरपेक्ष बनाये रखना चाहते है जैसा वर्तमान में है। हमें इस विशय पर चर्चा करने के पूर्व धर्म, सम्प्रदाय, धर्म निरपेक्षता, हिन्दुत्व और राष्ट्र पर अलग अलग मंथन करना चाहिये।

 धर्म और संगठन में बहुत अंतर होता है। धर्म गुण प्रधान होता है, व्यक्तिगत आचरण तक सीमित होता है तो संगठन सामूहिक होता है, शक्ति प्रधान होता है, अप्रत्यक्ष रूप से सम्प्रदाय बन जाता है और कमजोरों का शोषण करना शुरू कर देता है। धर्म विश्वव्यापी होता है। धर्म का संबंध किसी राष्ट्र, किसी मान्यता अथवा किसी भौगोलिक सीमा से नही बांधा जा सकता। धर्म कर्तव्य तक जुड़ा होता है और धर्म में अधिकार की कोई भूमिका नही होती जबकि संगठन अपनत्व प्रधान होता है। उसमें न्याय गौण हो जाता है। हिन्दुत्व धर्म माना जाता है क्योंकि हिन्दुत्व गुण प्रधान है, संगठन प्रधान नहीं। इस्लाम पूरी तरह संगठन है, इसलिये वह धर्म नहीं हो सकता, भले ही धीरे धीरे वह धर्म कहा जाने लगा। वर्तमान में संघ परिवार भी धर्म के नाम पर संगठन के रूप में आगे आ रहा है। संघ का धर्म के वास्तविक स्वरूप से दूर दूर तक कोई संबंध नहीं है। राष्ट्र शब्द भी कई अर्थो में प्रयोग होने लगा है। राष्ट्र किसी भौगोलिक सीमा से घिरा हुआ भूभाग होता है जिसकी एक स्वायत्त राज्य व्यवस्था हो। राष्ट्र को किसी निश्चित संस्कृति की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। लेकिन वर्तमान समय में राष्ट्र को किसी संस्कृति से बांधने का प्रयास हो रहा है। राश्ट्र की सीमाएं भी बदलती रहती है। धर्मनिरपेक्षता की भी परिभाषाएं बदलती रहती है। धर्मनिरपेक्षता की एक परिभाषा होती है सभी धार्मिक संगठनों से समान दूरी, दूसरी परिभाषा होती है सभी धार्मिक संगठनों से समान सहभागिता, तीसरी परिभाषा होती है सभी धार्मिक संगठनो से सम्पूर्ण निरलिप्तता। यदि धर्म का अर्थ गुण प्रधान है तो कोई भी सरकार धर्मनिरपेक्ष हो ही नहीं सकती। यदि धर्म का अर्थ संगठन प्रधान होता है तब धर्म निरपेक्षता तलवार की धार पर खड़ी रहती है।

 

स्वतंत्रता के बाद धर्मनिरपेक्षता की एक नई परिभाषा बनी कि हिन्दुओं को दबाया जाए और मुसलमानों को मजबूत किया जाए। हिंदुओं को दबाने के लिए हिन्दू कोड बिल बना और मुसलमानों को उभारने के लिए उन्हें अल्पसंख्यक के रूप में विशेषाधिकार दिए गए। यह सारा खेल धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक बुरी नीयत से किया गया षड्यंत्र था। हिंदुओं का बहुमत गुण प्रधान था और मुस्लिम बहुमत संगठन प्रधान। हिन्दू समाज को सर्वोच्च मानता था तो मुसलमान संगठन को। हिन्दुओं में विचार और संस्कार का संतुलन था तो मुसलमानों में विचार शुन्यता थी, संस्कार प्रधानता। विभाजन के पूर्व हिन्दुओं ने शालीनता दिखाई थी तो मुसलमानों ने विभाजन करवाया था। इसके बाद भी भारत में हिन्दुओं के उपर मुसलमानों को विशेष तरजीह दी गयी और उस पक्षपात का नाम धर्मनिरपेक्षता रख दिया गया। यह एक घपला था। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि हिन्दू जीवन पद्धति है, कोई संगठित विचारधारा नहीं। हिन्दुओं में किसी भी व्यक्ति को धर्म से निकालने की कोई व्यवस्था नहीं थी। हिन्दुओं में पूजा पद्धति के नाम पर कोई भेद नहीं था। कोई व्यक्ति गौ हत्या करता है तब भी वह हिन्दू, गाय की पूजा करे तब भी। कोई व्यक्ति ईश्वर को मानता है तब भी वह हिन्दू है और नहीं मानता है तब भी। हिन्दू सर्वधर्म समभाव मानता है, वसुधैव कुटुम्बकम को स्वीकार करता है, व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों को मौलिक अधिकार मानता है, तो इस्लाम न सर्वधर्म समभाव मानता है न वसुधैव कुटुम्बकम मानता है न ही व्यक्ति के मौलिक अधिकारों को स्वीकार करता है। हिन्दू वर्ण और आश्रम व्यवस्था के द्वारा मार्गदर्शक, रक्षक, पालक और सेवक के बीच समान संतुलन मानता है तो इस्लाम में ऐसा कोई संतुलन नहीं है। वहां तो सिर्फ संगठन ही सर्वोच्च है। इस्लाम में सामाजिक हिंसा को धार्मिक मान्यता प्राप्त है जबकि हिन्दुत्व में सामाजिक हिंसा पर पूरी तरह प्रतिबंध है। स्पष्ट है कि भारत को यदि किसी धर्म का पक्ष ही लेना था तो उसे हिन्दुओं के पक्ष में होना चाहिए था अथवा पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष रहना चाहिए था जो अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दुओं का पक्ष होता। यदि वर्ण व्यवस्था में कुछ बुराईयां आई थी तो उन बुराई को धीरे धीरे गांधी और दयानंद सरीखे विचारक समाप्त करने लगे थे। उचित नहीं था कि उन बुराईयों का लाभ उठाकर अपनी राजनैतिक सत्ता को मजबूत करने का प्रयास किया जाता लेकिन भारत के कुछ सत्ता लोलुप इस्लाम प्रेमी या पश्चिम विचारधारा से ओतप्रोत नेताओं ने स्वतंत्रता के समय खुलकर यह पाप किया। आज भी हिन्दू ऐसे बुरी नीयत से बनाये गये संविधान का शान्ति और निष्ठापूर्वक पालन कर रहे है। मैं स्पश्ट हू कि यदि हिन्दुओं की जगह मुसलमानों का बहुमत होता तो कब का संविधान उठाकर फेक दिया जाता और शरीयत थोप दी जाती।

 

नरेन्द्र मोदी के आने के बाद धीरे धीरे परिस्थितियां बदल रही है। धर्म का अर्थ भी अप्रत्यक्ष रूप से गुण प्रधानता की ओर बढाने का प्रयास हो रहा है। मुस्लिम तृष्टिकरण पर भी कुछ कुछ अंकुश लग रहा है। थोड़ा थोड़ा हिन्दुओं का मनोबल बढ़ रहा है। वर्तमान में मुसलमान और विपक्षी दलों का गठजोड़ जिस तरह सड़कों पर उतर आया है उससे यह स्पष्ट होता है कि अब टकराव एक पक्षीय नहीं है। जेएनयू में जिस तरह गुण्डागर्दी से गुण्डागर्दी के माध्यम से निपटने की शुरूआत हुई वह भी हिन्दू सशक्तिकरण का एक लक्षण है। ऐसे समय में हिन्दुओं को अपनी मूल विचाराधारा को छोड़ने की जल्दबाजी नहीं दिखानी चाहिये। स्वाभाविक है कि समान नागरिक संहिता एक अंहिसक और धर्मनिरपेक्ष प्रयत्न है जो एक तीर के कई शिकार करता है। दुनियां में संगठित मुसलमान हमेशा ही नासमझ माने जाते है। इसी तरह संगठित हिन्दू भी हिन्दू राष्ट्र की मांग करके नासमझी प्रदर्शीत कर रहे है। समान नागरिक संहिता और धर्मनिरपेक्षता अप्रत्यक्ष रूप से हिन्दू राष्ट्र का ही एक दूसरा नाम है। समान नागरिक संहिता से मुसलमान और विपक्षी दल चिढ़ेंगे ही। हिन्दुओं पर टकराव बढ़ाने का कलंक भी नहीं लगेगा। हिन्दुओं को अपनी मूल विचारधारा में कोई संगठनात्मक बदलाव भी नही करना पड़ेगा। कहावत है कि सांप यदि बिल में घुस जाये तो बिल को खोदने की अपेक्षा बिल के मुंह पर महुआ के बीज की खली जला दी जाये तो सांप अपने आप बाहर आ जाता है और मारना आसान हो जाता है। समान नागरिक संहिता की आहट होते ही सभी सांप अपने आप बाहर निकलने लगेंगे। मैं नहीं समझता कि इतनी साधारण सी बात हमारे कुछ नासमझ हिन्दुओं के समझ में क्यों नहीं आ रही। वे क्यों हिन्दू राष्ट्र की मांग उठाकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता का अनुकरण करना चाहते है। कोई राष्ट्र किसी धार्मिक संगठन का पिछलग्गू नही हो सकता। यदि हिन्दू राष्ट्र का अर्थ धर्मनिरपेक्ष भारत है जिसमें रहने वाले प्रत्येक नागरिक को हिन्दू माना जायेगा तो भारत के बाहर रहने वाले गैर हिन्दू माने जायेगे और इस परिस्थिति में विश्व हिन्दू का अर्थ क्या होगा? पता नहीं हिन्दुत्व की परिभाषा को इस प्रकार संकुचित करने का प्रयास क्यों हो रहा है। यदि कोई शब्द जोड़ना भी हो तो हिन्दुस्तानी या भारतीय शब्द जोड़ देने से क्या अंतर हो जायेगा। मैं मानता हू कि यदि किसी व्यक्ति ने मेरी थाली में गौ मांस खाकर उसे अपवित्र कर दिया है तो मैं उसे सुअर का मांस खाकर पवित्र करना चाहू तो यह हिन्दुत्व के विरूद्ध है, भले ही मुझे इससे आत्म संतुष्टि हो जाये। धर्म का वर्तमान गलत अर्थ भी समान नागरिक संहिता के बाद अपने आप सुधर जायेगा। धर्मनिरपेक्षता का भी अर्थ अपने आप बदल जायेगा। बुरी नीयत से लागू किया हिन्दू कोड बिल अपने आप बेमौत मर जायेगा और दुनियां के सामने हमे साम्प्रदायिकता के कलंक से भी नही जूझना पड़ेगा।

 

मैं तो व्यक्तिगत रूप से इस बात का पक्षधर हू कि हिन्दू राष्ट्र की हिन्दू विरोधी आवाज को तत्काल दबा दिया जाना चाहिये। हमें मुखर होकर समान नागरिक संहिता की मांग करनी चाहिये और वास्तविक धर्मनिरपेक्षता के साथ डटकर खड़ा होना चाहिये। हमें संगठित हिन्दुत्व की जगह विचार प्रधान हिन्दुत्व को अधिक महत्व देना चाहिये। हमें हिन्दुत्व की मौलिक विचारधारा वर्ण आश्रम व्यवस्था के संशोधित स्वरूप मार्गदर्शक, रक्षक, पालक और सेवक के संतुलन पर विचार करना चाहिये। हमें किसी भी तरह हिन्दू राष्ट्र की मांग को घातक समझ कर उसका विरोध करना चाहिये।