शंकराचार्य की गिरफ्तारी और हिन्दू धर्म

हिन्दू धर्म अपने अनुयायियों से चरित्र की अपेक्षा करता है। इसाई धर्म त्याग की और इस्लाम संगठन की पहली शिक्षा है रसूल पर ईमान लाना और सम्पूर्ण विश्व को रसूल पर ईमान लाने के लिये संगठित करना। इसाई धर्म भी ईशु मसीह पर ईमान को प्राथमिता देता है किन्तु संगठित नहीं करता बल्कि तैयार करता है। हिन्दू धर्म पूरी तरह आचरण प्रधान है। तीनो धर्मो में ही आचरण को भरपूर मान्यता है किन्तु सिर्फ प्राथमिकताओं का अन्तर है। हिन्दू धर्म संगठन से अधिक आचरण को प्रमुख मानता है ईसाई धर्म दोनों में समन्वय करता है और इस्लाम संगठन को अधिक प्राथमिकता देता है।

पिछले कई वर्षों से हिन्दू धर्म में भी कुछ लोगों ने महसूस किया कि आचरण आदर्श है किन्तु सफल नहीं। इस्लाम पूरी दुनियाँ में लगातर बढ़ रहा है और भारत में भी बढ़ता ही जा रहा है। जिसमें उसकी संगठन शक्ति का कमाल है। अतः यदि हिन्दू धर्म भी संगठन शक्ति की दिशा में नही गया तो इस्लाम और ईसाइयत उसे धीरे-धीरे निगल जायेंगे। ऐसा कहने वालों की चिन्ता तर्कपूर्ण थी भले ही वह आम हिन्दू संस्कृति के विपरीत ही क्यों न हो। ये लोग लगातार हिन्दूओं को संगठन की आवश्यकता समझाते रहे और स्वयं को मजबूर करते रहे। धीरे-धीरे स्थिति यह आई की भारत की सम्पूर्ण राजनीति पर धार्मिक टकराव ही हावी हो गया। मुसलमानों के मुख्य समर्थक साम्यवादी सामने आये और कांग्रेस उसके साथ खड़ी हो गई हिन्दू संगठनों की समर्थक भा.ज.पा. शिवसेना आदि हुई। अन्य सभी दल इधर-उधर लुढ़कते रहे।

जब भी किसी मुसलमान धर्मगुरू के विरूद्ध कोई मामला आया तो साम्यवादी पूरी तरह चट्टान की तरह खड़े हो गये तथा कांग्रेस सहित अन्य दलों ने उनका पूरा-पूरा समर्थन किया। यहाँ तक कि यदि कोई आतंकवादी मुसलमान भी पकड़ा या मारा गया तो साम्यवादियों को उससे सर्वाधिक कष्ट हुआ। दूसरी ओर संघ परिवार ने भी लगभग वही नीतियाँ अपनाई। किन्तु साम्यवादी इस मामले में संघ वालों की अपेक्षा अधिक चालाक निकले। साम्यवादियों ने एक ओर तो अपने को धर्म निरपेक्ष घोषित करके एक ऐसा मोर्चा बना लिया जिसमें हिन्दुओं के अतिरिक्त अन्य सभी धर्मावलम्बी शामिल हो गये दूसरी और अनेक हिन्दू भी धर्म निरपेक्षता के नाम पर इनसे जुड़ गये। संघ परिवार अलग-थलग पड़ता गया। प्रचार की एएन॰डी॰एच॰आई॰ में संघ परिवार अकेला एक ओर और अन्य सब दूसरी ओर खड़े हो गये। साम्यवादी संघ परिवार को अपना साझा शत्रु प्रमाणित करने में सफल हुए किन्तु संघ परिवार पचपन वर्षो में भी अपना साझा शत्रु घोषित नहीं कर सका। ये लोग मुसलमान इसाईयों तथा साम्यवादियों से एक साथ अकेले टकराने की भूल करते रहे। ये भूल गये कि हिन्दुओं को इकट्ठा करना अन्य धर्मावलम्बियों को इकट्ठा करने की अपेक्षा बहुत कठिन है क्योंकि अन्य धर्मावलम्बी चरित्र की अपेक्षा संगठन को महत्व देता है जबकि हिन्दू संस्कार ही चरित्र प्रधान है।

इसी बीच शंकराचार्य जी का प्रकरण आ खड़ा हुआ। शंकराचार्य जी हिन्दुओ के सर्वोच्च आस्था के केन्द्र रहे हैं। इनके विरूद्ध कभी कोई आरोप भी नहीं लगा इनका स्वाभाव भी बहुत मिलनसार रहा। एकाएक शंकररमण हत्या के मामले में इनकी गिरफ्तारी ने हिन्दू समाज को सकते में डाल दिया। आम हिन्दू गिरफ्तारी के कारणों कि जानकारी में ही व्यस्त था अधिकांश हिन्दू तो गिरफ्तारी की घटना सुन भी नही सके थे कि राजनीति का खेल शुरू हो गया। संघ परिवार और उसकी राजनैतिक शाखा भा.ज.पा. ने तत्काल ही हिन्दू विलाप शुरू कर दिया। शंकराचार्य की गिरफ्तारी को हिन्दू धर्म पर आये खतरे से जोड़ दिया गया। दूसरी ओर साम्यवादियों ने धर्म निरपेक्ष की चादर ओढ़कर शंकराचार्य के विरूद्ध अभियान सा छेड़ दिया। सम्पूर्ण प्रकरण यथार्थ से हटकर राजनीति में समाहित हो गया। कांग्रेस पार्टी और मुसलमान किंकर्तव्यविमूढ़ थे कि क्या कहें और क्या न कहें। करूणानिधि जी ने तो और कमाल का काम किया। पहले तो गिरफ्तारी कि मांग की और जब गिरफ्तारी हुई तो विरोध शुरू हो गये। मुझे तो यह भी आश्चर्य हुआ जब हिन्दू धर्म के स्वयंभू महासचिव प्रवीण जी तोगड़िया को शंकराचार्य प्रकरण में विधर्मी और विदेशी महिला सोनिया गांधी का हाथ दिखाई दिया। मुझे यह जानकार दुख हुआ कि इतने बडे़-बड़े धर्म रक्षकों को इतना तक ज्ञान नही कि झूठ कब और कैसे बोला जाता है लेकिन इन्होंने अनेक प्रकार की ऐसी ही बेसिर पैर की हवा उड़ाकर शंकराचार्य गिरफ्तारी प्रकरण की पूरी हवा ही निकाल दी और पूरा प्रकरण टाय-टाय फिस सा हो गया। कांग्रेस पार्टी का बयान बहुत संतुलित था और सबसे अच्छा बयान मुस्लिम नेताओं का था जिन्होंने इस गिरफ्तारी की निन्दा करके वातावरण को साम्प्रदायिक स्वरूप ग्रहण करने से बचा लिया।

भारत में कानून का शासन बताया जाता है। यह भी कहा जाता है कि कानून सबके लिये बराबर है यद्यपि पूरे भारत में मुझे तो आज तक कभी और कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिला सिवाय इस गिरफ्तारी के । मुसलमान समय-समय पर अपनी संगठन शक्ति का आभास कराते रहते हैं। किसी मुस्लिम धर्म गुरू की तो बात जाने दीजिये एक पाकिस्तानी आंतकवादी मुसलमान को गुजरात पुलिस आंध्र में जाकर गिरफ्तारी करती है तब भी हमारे भारत के धर्म निरपेक्ष और मानवाधिकारी दहाड़ मार-मार कर चिल्लाते हैं कि मोदी ने बहुत अन्याय किया आज भारतीय राजनीति में एक से बढ़कर एक नामी अपराधी खुलेआम सक्रिय है किन्तु कहीं बराबरी का कानून नहीं दिखा। गो हत्या मामले में पचपन वर्षों में कानून नहीं बना जबकि शाह-बानो प्रकरण में बन गया। यह भारत की ही कानूनों की समानता है कि एक व्यक्ति दूसरा विवाह करने लिये मुसलमान बनते ही पात्र बन जाता है। किसी भी मामले न साम्यवादियों ने सामान कानून की बात की धर्म निरपेक्षों ने। मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि कानून सबके लिये समान कानून के सिद्धांत का विरोध करते हैं। यदि भारत के सामान्य लोग शंकराचार्य प्रकरण में कानून में बराबरी की बात कहते तो मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता किन्तु जो हर मामले में अल्प संख्यकों के विशेषाधिकारों की वकालत करते हों वे दो मुंही बात करें तो आश्चर्य भी होता है और दुख भी।

इस प्रकरण में सर्वाधिक धर्म संकट हिन्दुओं के समक्ष उपस्थित था। बचपन से ही उन्होंने सुन रखा कि शंकराचार्य जी उनकी आस्था के सर्वोच्च केन्द्र बिन्दू है। उन्होंने साथ-साथ यह भी सुन रखा था कि हिन्दू मठों में सभी तरह के अपराध घटित होते रहते हैं इन मठों में रहने वाले शंकराचार्य उच्च कोटी के विद्वान और चरित्रवान व्यक्ति होते हैं। साथ ही इन मठों में कुल सम्पत्ति भी होती हैं और सम्पत्ति के विवाद भी। और दोनों ही बातों के बीच समान और निर्लिप्त भाव से रहने वाला समुदाय हिन्दू है। हिन्दू धर्मावलम्बी बचपन से ही चरित्र और आचरण की बात सुनता आया है। यह उसका संस्कार बन चुका है। उसने कभी हिन्दू धर्म को किसी संगठन के रूप में नहीं देखा। यही कारण था कि भारत का आम हिन्दू शंकराचार्य की गिरफ्तारी के प्रकरण में मूक दर्शक और निर्लिप्त रहा। हिन्दुओ कि भावनाओं पर न तो हिन्दू संगठनों और कुछ धर्माचार्यो की लामबंद चिल्लाहट का असर हुआ न ही निरंतर झूठ बोलकर हल्ला करने वाले तथा कथित धर्म निरपेक्षों का जिन्होंने गला फाड़ फाड़कर शंकराचार्य को निरंतर दोषी प्रमाणित किया। संघ परिवार के किसी आंदोलन का पूरे भारत में कोई प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि भारत का आम हिन्दू चरित्र को संगठन से अधिक महत्व देता है। हिन्दू यह सहन नहीं कर सकता कि उसको किसी सर्वोच्च धर्माचार्य के चरित्र पर ऐसा संदेह पैदा हो भले ही वह झूठा ही क्यों न हो हिन्दुओं ने इस प्रकरण में जो सूझ-बूझ और धैर्य का परिचय दिया वह बेमिसाल है। मैं स्वयं हिन्दुओं से ऐसी ही उम्मीद करता था।

हिन्दुओें ने तो हिन्दुत्व की लाज बचा ली संघ परिवार भी आपनी आदत के अनुसार हल्ला मचाया और फेल हुआ। किन्तु सर्वाधिक संकट तो अब साम्यवादियों तथा तथाकथित धर्म निरपेक्षों के समक्ष खड़ा होने वाला है। एक बार तो उन्होंने कानून की समानता की दुहाई देकर अपनी धर्मनिरपेक्षता प्रमाणित कर दी लेकिन यह तो सिर्फ एक दिन की बात नहीं है कुछ ही महिने में कोई न कोई मुसलमानों का मामला उठेगा। तब ये किस मुँह से उसका पक्ष लेंगे। क्या ये पुनः पलटी मार देंगे क्या ये फिर अल्पसंख्यकों के लिये विशेष कानून की वकालत करने लगेंगे। अब तक वे जो भी करते थे वह सब कोई हलचल पैदा नहीं करता था।

क्योंकि उनके विरूद्ध आवाज उठाने वाला संघ परिवार स्वयं ही समाज में विश्वासपात्र नहीं था किन्तु अब तो एक वास्तविक धर्मनिरपेक्ष जमात खड़ी हो गई है। जिसने इन दोनों धर्म के ठेकेदारों से धर्म का पिण्ड़ छुटाने का निश्चय कर लिया है। मैं दोनों ही पक्षों से विन्रम निवेदन करता हूँ कि वे धर्म को धर्म ही रहने दे उसे सियासत का अखाड़ा न बनावे अन्यथा वे धर्म की तो क्षति करेंगे ही अपनी भी क्षति करेंगे।