विविध विषयों पर मुनि जी के विचार GT 453
विविध विषयों पर मुनि जी के विचार
अब मुस्लिम महिलाएं भी धर्म की बपौती नहीं:
पिछले तीन-चार दिनों से राहुल गांधी की जवान बंद हो गई है उनके मुंह से बोली नहीं निकल रही है क्योंकि राहुल गांधी दिन-रात संविधान की दुहाई दे रहे थे संविधान को लेकर उछल-कूद कर रहे थे लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उनके पिता राजीव गांधी द्वारा बनाए गए संविधान विरोधी कानून को अस्वीकार कर दिया और फैसला दे दिया कि मुस्लिम महिलाएं तलाक के बाद भी यदि चाहती हैं तो वह गुजारा भत्ता ले सकती हैं। इस निर्णय का कट्टरपंथी मुसलमान इस तरह विरोध कर रहे हैं जिस तरह इन मुसलमानों के डर से राजीव गांधी ने संविधान में संशोधन कर दिया था। अब राहुल गांधी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि वह संविधान की दुहाई दें या कट्टरपंथी मुसलमानों के पक्ष में बोले। इसलिए राहुल गांधी ही नहीं सभी विपक्षी नेता भी इस मामले में गूंगे-बहरे हो गए हैं क्योंकि अब भारत का मुसलमान भी धीरे-धीरे यह कहने लगा है कि देश संविधान से नहीं, शरिया से चलेगा हम शरिया मानते हैं। हिंदू लोग भले ही संविधान माने हमें कोई आपत्ति नहीं है लेकिन मुसलमान शरिया से चलेगा। अब राहुल गांधी को यह बात साफ करनी पड़ेगी कि भारत का मुसलमान शरिया से चलेगा या संविधान से।
कम्युनिस्टों की वैचारिकी पर कुठाराघात:
अभी पिछले दिनों मुकेश अंबानी ने अपने लड़के के विवाह के अवसर पर अरबों रूपया खर्च किया। इस बात के लिए मुकेश अंबानी बधाई के पात्र हैं। वास्तव में यदि एकत्रित धन विभिन्न अवसरों पर समाज के बीच खर्च नहीं किया जाएगा एक तरफ रखा हुआ धन सड़ के दुर्गंध पैदा करेगा दूसरी ओर समाज में अराजकता भी पैदा होगी। अनेक लोग इस प्रकार के धन को युद्ध में या अन्य किसी प्रकार के टकराव पर बर्बाद कर देते हैं, मुकेश अंबानी ने वह धन धर्मगुरुओं, राजनेताओं या समाज के अन्य वर्गों के बीच खर्च किया, यह बहुत अच्छा कार्य किया। यह वास्तव में प्रकृति का नियम है कि प्रकृति जल का शोषण करती है और वह जल फिर से इस प्रकार दे देती है कि वह पूरे समाज में आवश्यकता अनुसार जाता है, वह जल पहाड़ों पर बर्फ भी बन जाता है, वह जल नदियों का मीठा जल बन जाता है, वह जल लोगों की प्यास बुझाता है और अंत में बचा हुआ जल समुद्र में चला जाता है जिसे फिर से प्रकृति सुखाकर बादल बना देती है। यह क्रम हमेशा चलता रहना चाहिए। मैं मुकेश अंबानी को इस दिल खोल खर्च के लिए धन्यवाद देता हूं।
पिछले तीन-चार दिनों से भारतीय कम्युनिस्ट सोशल मीडिया में बहुत उछल कूद कर रहे थे। कल मैंने अंबानी परिवार के समर्थन में एक पोस्ट लिख दी यह सारे कम्युनिस्ट भाग खड़े हुए क्योंकि भारत का हर कम्युनिस्ट अच्छी तरह जानता है कि वह हिंदुओं से तो लड़ाई जीत सकता है लेकिन आर्यों से नहीं जीत सकता क्योंकि आर्य नेवले के समान है और वह अच्छे-अच्छे सांपों की सफाई कर देते हैं। यह बात कल और आज दो दिनों में सिद्ध हो गई कि किस तरह भारत के कम्युनिस्ट बिलबिलाने लगे, पीठ दिखाने लगे। सच बात भी है कि साम्यवादियों को सिर्फ आर्य समाज के लोग ही सबक सिखा सकते हैं और कोई नहीं।
मैंने भारत में कई कम्युनिस्टों को देखा है उनके साथ रहा भी हूं। मेरा अपना अनुभव यह है कि यदि तर्क के आधार पर कोई कम्युनिस्ट बन जाता है तो यह भी संभव है कि उम्र में अधिक होने के बाद उसके विचार अपने आप बदल जाए। वह तर्क करते-करते साम्यवादियों को छोड़ दे या निकाल दिया जाए लेकिन जो लोग संस्कारों से कम्युनिस्ट हो जाते हैं या किसी स्वार्थवश कम्युनिस्ट बनते हैं वह पक्के कम्युनिस्ट होते हैं, वे तर्क से नहीं समझते। इन दोनों के बीच बहुत अंतर होता है तर्क प्रधान कम्युनिस्ट खतरनाक नहीं होते।
अपराधियों की सहायक न्याय व्यवस्था:
पिछले कुछ दिनों पहले रायपुर शहर के एक नामी अपराधी ने एक व्यक्ति से रंगदारी मांगी और न देने पर उसके साथ गंभीर मारपीट की। पुलिस ने उस अपराधी को जेल में बंद कर दिया। एक सप्ताह में ही न्यायालय से उस अपराधी की जमानत हो गई। परसों वह अपराधी जेल से छूट कर आया और आते ही तीन अन्य लोगों को साथ में लेकर उस रिपोर्ट करने वाले को गंभीर रूप से घायल करके मरा हुआ समझकर फेंक दिया। सौभाग्य से वह घायल बच गया। प्रश्न यह खड़ा होता है कि इस मामले में न्यायपालिका दोषी है कि नहीं। पुलिस ने अपना काम इमानदारी से किया न्यायपालिका ने पुलिस के विरोध के बाद भी उस अपराधी को छोड़ दिया। क्या न्यायपालिका को इस संबंध में दोषी नहीं मानना चाहिए। मेरे विचार से न्यायपालिका का पूरा सिद्धांत ही गड़बड़ हो गया है। भारत के न्यायाधीश अपने को न्याय प्रदाता मानने लगे हैं जबकि न्याय देना न्यायपालिका का काम नहीं है। न्याय तो न्यायालय, पुलिस और विधायिका तीनों मिलकर देते हैं यह जिम्मेदारी तीनों की संयुक्त रूप से है। दुर्भाग्य से वह न्याय में अपने को सहायक न मानकर न्याय प्रदाता मानने लगी है। न्यायालय हर विभाग को अपने यहां बुलाकर किसी भी मामले में लगातार सवाल जवाब करते रहता है। प्रश्न यह खड़ा होता है कि न्यायपालिका किसी के प्रति उत्तरदाई है कि नहीं। विधायिका कम से कम जनता के प्रति उत्तरदाई है 5 वर्ष में उसको जवाब देना पड़ता है न्यायपालिका तो इतनी स्वतंत्र हो गई है कि उसका कोई उत्तरदायित्व ही नहीं है। सिर्फ सवाल पूछना और दिन-रात सबको कटघरे में खड़ा करना। हमारे देश की न्यायपालिका को इस विषय पर गंभीरता से सोचना चाहिए कि यदि न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी कोई अपराधी फिर से अपराध करता है तो न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा होना चाहिए।
हिंसकों को मिला बहुमत का आसरा:
पिछले दो महीने में भारत में क्या महत्वपूर्ण बदलाव हुआ यह बात अब साफ दिख रही है। 4 जून के पहले कश्मीर में धीरे-धीरे शांति आ रही थी, आतंकवादी बहुत भयभीत थे, आतंक की घटनाएं लगातार कम हो रही थी इसी तरह नक्सलवाद के मामले में भी उस समय नक्सलवाद दम तोड़ता हुआ दिख रहा था। ऐसा आभास होता था, मैंने लिखा भी था कि अगले तीन-चार महीने में नक्सलवाद पूरी तरह खत्म हो जाएगा लेकिन 4 जून के बाद धीरे-धीरे कश्मीर में भी आतंकवाद बढ़ रहा है और छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की घटनाएं भी बढ़ रही है। 2 महीने में इतना बड़ा बदलाव होने का सिर्फ एक ही कारण हो सकता है कि कश्मीर के आतंकवादियों और छत्तीसगढ़ के नक्सलवादियों को पिछले दो महीने में यह आभास हो गया है कि अब भारत की राजनीतिक स्थिति बदल चुकी है। अब उनके पक्षकारों को सत्ता से थोड़ा ही कम समर्थन है। अब यदि नरेंद्र मोदी को 290 का समर्थन है तो राहुल गांधी को भी 240 का समर्थन है। उन्हें यहां तक आभास है कि राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने यह भी घोषणा कर दी है कि केंद्र सरकार जल्दी ही गिरने वाली है। इस विश्वास के आधार पर कश्मीर और छत्तीसगढ़ में आतंकवाद बढ़ रहा है। आतंकवादियों को इस बात का विश्वास हो गया है कि ज्यादा देर नहीं है, जब उनकी सरकार केंद्र में बन जाएगी। यह एक चिंता की बात है।
न्यायपालिका अपने लक्ष्य से पूरी तरह भटक चुका है:
आज के अखबारों में हमने न्यायपालिका से जुड़े तीन महत्वपूर्ण समाचार पढे। एक समाचार तो यह आया कि एक व्यक्ति विदेश में बैठा हुआ है, भारत में कोई व्यक्ति जेल में है वह विदेश में बैठा हुआ व्यक्ति भारत के उस अपराधी से संपर्क करके उसे हत्या की सुपारी देता है। जेल में बैठा हुआ व्यक्ति किसी बाहर के व्यक्ति को यही ठेका दे देता है, जो बाहर का व्यक्ति है, वह किसी तीसरे को ठेका देता है और इस तरह तीसरा व्यक्ति आकर उस व्यक्ति की हत्या का प्रयत्न करता है। इस तरह पूरे देश भर में हत्यारों की एक श्रृंखला जुड़ी हुई है और यह दुकान पूरे देश भर में फैली हुई है। यह सीधा-सीधा एक आपराधिक व्यापार बन गया है, इस संबंध में न्यायपालिका पूरी तरह निष्क्रिय है। एक दूसरा समाचार पढ़ा कि पेपर लीक मामले में न्यायपालिका कई महीने से उसकी जड़ों तक पहुंचने के लिए सक्रिय है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट इस मामले में इतनी गहराई तक जा रहा है कि चाहे सारा काम छूट जाए लेकिन इस नीट में हुए भ्रष्टाचार का हम गहराई तक अध्ययन करके इसको खोज कर रहेंगे और कल सुप्रीम कोर्ट ने अंत में इसका निष्कर्ष दिया। सुप्रीम कोर्ट पूरी गहराई तक गया। तीसरी घटना आज मैंने यह भी पढ़ी कि अभी चार-पांच दिन पहले हाईकोर्ट ने बॉर्डर पर बैठे हुए कुछ किसान सड़क रोकने वालों के बारे में एक आदेश जारी किया था उस आदेश की अपील सुप्रीम कोर्ट में हुई और सुप्रीम कोर्ट ने भी चार-पांच दिन पहले ही यह आदेश दिया था। कि बॉर्डर को खाली कर दिया जाए और चालू कर दिया जाए। चार दिनों के बाद आज सुप्रीम कोर्ट ने फिर अपना फैसला पलट दिया। समझ में नहीं आता कि चार दिनों के अंदर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले को पलटना क्यों इतना जरूरी समझा। हो सकता है कि वह आवश्यक भी हो लेकिन सुप्रीम कोर्ट को इस बात की गहराई तक जाँचने की चिंता नहीं है कि हत्यारों का एक जाल पूरे देश में फैला हुआ है इसकी गहराई तक छानबीन क्यों न की जाए। अगर पेपर लीक हो गया तो सुप्रीम कोर्ट गहराई तक जाना चाहता है अगर किसानों ने सड़क रोक रखी है तो सुप्रीम कोर्ट इस संबंध में गहराई तक जाना चाहता है लेकिन सारे भारत में अपराधियों का एक जाल फैला हुआ है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट गहराई तक नहीं जाना चाहता क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की प्राथमिकताएं क्या है, यह हम समझ नहीं पा रहे हैं। 140 करोड लोगों की सुरक्षा भले ही खतरे में रहे लेकिन अन्य दूसरे मामलों में जरा भी सुप्रीम कोर्ट लापरवाही नहीं करना चाहता।
गरीब, ग्रामीण और शहरी की दुर्घटनवश मौत पर दोहरा रवैया:
कल दो घटनाएं एक साथ घटी। एक घटना दिल्ली में घटी जिसमें किसी एक स्कूल में पानी भर जाने के कारण तीन छात्र डूब कर मर गए, तीनों छात्र आइएएस की परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, तीनों होनहार थे, देश के भविष्य थे, बहुत पढ़े लिखे थे, संपन्न घरों के थे, तीनों की मृत्यु पर सारे देश में शोक मनाया गया। दिल्ली में एक बड़ा आंदोलन खड़ा किया गया। सारे टीवी चौनल ने घंटों इस घटना पर चर्चा की। राज्यपाल ने भी बहुत कड़ाई करने का निर्देश दिया। स्वाभाविक है कि घटना में मरने वालों को उचित मुआवजा भी दिया जाएगा, क्योंकि तीनों मरने वाले देश के भविष्य थे। एक दूसरी घटना में हमारे बलरामपुर जिले में हाथियों ने तीन ग्रामीणों को उनके घर गिराकर कुचल दिया, तीनों ग्रामीण मर गए, तीनों अशिक्षित थे, गरीब थे, गांव के रहने वाले थे, किसान थे, मजदूर थे, उन तीनों की किसी भी मीडिया में चर्चा नहीं हुई, कोई कलेक्टर तक नहीं आया, उस हाथी को किसी प्रकार का दंड भी नहीं दिया जाएगा क्योंकि यह मरने वाले ग्रामीण और गरीब थे इसलिए फॉरेस्ट डिपार्मेंट उन्हें दो-दो लाख रुपया जूठन के तरीके मुआवजा दे देगा। भारत की व्यवस्था में समानता का नारा तो बहुत तेजी से लगाया जाता है लेकिन किसान मजदूर की कीमत हाथी की तुलना में बहुत कम मानी जाती है और दिल्ली के पढ़ने वाले छात्रों को किसी दुर्घटना में मरने की कीमत का महत्व बहुत अधिक किया जाता है। मैं नहीं समझा इस असमानता का क्या आशय है। क्या अपने घर में सो रहे गांव के लोग और दिल्ली में इस की पढ़ाई कर रहे शहर के लोगों के बीच गांव वालों की गलती बड़ी है और शहर में पढ़ने वालों की छोटी। विचारणीय प्रश्न है कि इतनी असमानता क्यों?
यदि हम बलरामपुर जिले के गांव की घटना और दिल्ली की घटना दोनों की एक साथ समीक्षा करें तो बलरामपुर की जो घटना है वह स्पष्ट रूप से हत्या है, कोई दुर्घटना नहीं है क्योंकि हत्या करने वाले हाथी कोई जंगली पशु नहीं थे, वह सरकार द्वारा संरक्षित पशु है। अगर कोई शेर या बाघ किसी गांव में घुसकर उस गांव के किसी व्यक्ति को मार दे तो यह हत्या मानी जाएगी दुर्घटना नहीं। यदि मरने वाले जंगल में जाते हैं और वहां उन्हें हाथी या शेर मार देता है तो यह दुर्घटना मानी जाएगी लेकिन उनके घर में मार देना यह पूरी तरह हत्या है। दूसरी ओर दिल्ली में जो घटना घटी है, वह दुर्घटना है वह सरकार की किसी गलत नीति के कारण नहीं घटी है लेकिन बलरामपुर की घटना सरकार की गलत नीति का परिणाम है इसलिए इन ग्रामीणों की हत्या और दिल्ली की दुर्घटना इन दोनों की तुलना नहीं हो सकती।
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