वर्तमान समय में पूरे विश्व में व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ दिख रहा है। समाज व्यवस्था पूरी तरह उलझी हुई है। भारत की स्थिति तो और भी ज्यादा जटिल है। किसी को कोई साफ मार्ग नहीं दिख रहा। व्यक्ति महत्वपूर्ण है या व्यवस्था यह पूरी तरह अस्पष्ट है। भिन्न भिन्न व्यवस्थाएं एक दूसरे से टकरा रही है। व्यक्ति परिवार व्यवस्था से भी संचालित हो रहा है तो राज्य व्यवस्था से भी। दोनों का ढांचा और हस्तक्षेप अलग अलग है। दोनो के बीच में धर्म व्यवस्था अलग से प्रभावित करती है। साफ ही नहीं होता कि धर्म संगठन प्रधान स्वरूप में है अथवा कर्तव्य प्रधानता तक सीमित। अब तक यह बात भी साफ नहीं है कि महाजन शब्द का अर्थ महापुरूष है अथवा बहुत से लोग। यदि महाजन का अर्थ महापुरूष है तो महापुरूषों में कुछ लोग विचार प्रधान हो चुके हैं तो कुछ चरित्र प्रधान। मनु और कबीर को विचार प्रधान माना गया तो राम और कृष्ण को आचरण प्रधान। दयानन्द को विचार प्रधान माना गया तो गांधी को आचरण प्रधान। व्यक्ति भी तीन प्रकार के होते हैः- शरीफ, समझदार और धूर्त। समझदार व्यक्तियों की पहचान भी कठिन है और संख्या भी लगातार घटती जा रही है। धूर्त लोग ही पूरी सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक व्यवस्था पर अपनी पकड़ मजबूत करते जा रहे हैं। ना समझ अर्थात शरीफ लोग धूर्तो की ढाल बन गये हैं। ऐसी कोई स्पष्ट पहचान नहीं कि धूर्त और समझदार के बीच अन्तर कर सकें। समाज में दो प्रकार के लोग होते हैं मार्गदर्शक और मार्गदर्शित। मार्गदर्शक निष्कर्ष निकालते हैं और मार्गदर्शित तदनुसार आचरण करते हैं। मागदर्शक भूतकाल के अनुभवों से अप्रभावित रहते हुये वर्तमान परिस्थितियों के समाधान का मार्ग खोजते हैं। मार्गदर्शक कभी अपने धर्म ग्रन्थों का आंख बन्द करके अनुकरण नहीं करते किन्तु मार्गदर्शित ऐसे मार्गदर्शकों का आंख बन्द अनुकरण करते हैं। आज यह व्यवस्था भी विकृत हो गई है। मार्गदर्शक की पहचान विचारों तक सीमित रहती है व्यक्तित्व या आचरण से नहीं। वर्तमान समय में मार्गदर्शन का काम या तो पुराने धर्मग्रन्थों तक सीमित हो गया है अथवा राजनेताओं तक चला गया है। व्यक्ति पर बचपन से ही क्षमता का आॅकलन करके उसे संस्कार या विचार में से एक निश्चित दिशा में बढ़ाया जाता था। ये दोनों दिशाएं अलग अलग होती थी। इनकी पहचान अलग थी और मार्ग अलग था। आज वह व्यवस्था छिन्न भिन्न हुई। हम बचपन से ही व्यक्ति को संस्कारित करने की दिशा में बढ़ाना शुरू कर रहे हैं। परिणाम यह है कि बालक या तो उच्च संस्कारित होकर शरीफ बन जा रहा है अथवा संस्कारों से निराश होकर चालाक या धूर्त। बच्चों को तटस्थ वैचारिक दिशा मिल ही नहीं पा रही।
बचपन से ही बालक इस उलझन में फंस जाता है कि उसके समक्ष धर्म महत्वपूर्ण है अथवा राष्ट्र अथवा समाज। धर्म का स्थान सम्प्रदायों ने ले लिया है तो राष्ट्र पर राज्य का एकाधिकार हो गया है और समाज शब्द का तो कोई अस्तित्व ही नहीं है। समाज की पहली वैधानिक इकाई है परिवार और अन्तिम वैधानिक इकाई है विश्व। विश्व समाज की कोई वैधानिक इकाई आज तक बनी ही नहीं और परिवार रूपी प्राथमिक इकाई के कुछ अंश भारत या मुस्लिम देशों में बचे हैं किन्तु वे अवशेष भी धीरे धीरे अपनी अन्तिम सांस गिन रहे हैं।
भारत का प्रत्येक व्यक्ति किंकर्तव्य विमूढ़ है, अनिर्णय की स्थिति में है कि किसके पीछे चले। सिद्धान्त कहता है महाजन के पीछे चलो। महाजन अर्थात महापुरूष, महापुरूष कौन यह पता ही नहीं चलता। कभी जयप्रकाश महापुरूष दिखे तो कभी अन्ना हजारे। लोग आंख बन्द करके दौड़ पड़े किन्तु दौड़ते दौड़ते थक गये परन्तु मिला कुछ नहीं। लोग आंख बन्द करके आशाराम, रजनीश, रामरहीम के पीछे दौड़ना शुरू ही किये थे कि स्वयं को गढ्ढे में गिरा पाये और गढ्ढे से निकलने का प्रयास कर रहे हैं। लोग बाबा रामदेव के पीछे भी बहुत तेजी से दौड़े किन्तु बाबा रामदेव तो पहाड़ की चोटी चढ़ गये किन्तु अन्य लोग पहाड़ के नीचे खड़े होकर ही बाबा को देख देख कर संतोष कर रहे हैं। अभी लोग मोदी के पीछे दौड़ रहे हैं किन्तु भविष्य पता नहीं कि हिटलर की जर्मनी की दिशा में जायेंगे या कुछ भिन्न संभव है। मोदी को निकाल दें तो सब कुछ अनिश्चित है। स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के पीछे आंख बंद करके चलना सुविधाजनक मार्ग तो हो किन्तु अनिश्चित मार्ग भी है और अस्थायी भी। स्पष्ट है कि व्यक्ति के पीछे चलना उचित मार्ग नहीं है।
स्पष्ट है कि किसी विचारधारा के पीछे चलना ही उचित मार्ग है किन्तु विचाराधाराओं के ठीक ठीक आॅकलन की हमारे अन्दर क्षमता नहीं है। हमें बचपन से ही संस्कारित भावना प्रधान और धर्म भीरु बनाया जा रहा है। हम या तो शराफत की दिशा में जा रहे हैं या धूर्तता की दिशा में। न समाज में कहीं समझदारी बढ़ाने की कोई प्रयोगशाला खुली है न ही सरकार की कोई कोशिश है। जब तक व्यक्ति समझदार नहीं होता तब तक स्वयं का मार्ग चुनने की उसमें क्षमता नहीं है और समझदारी विकसित करने का व्यक्ति के पास कोई मार्ग उपलब्ध नहीं है। ऐसी विकट स्थिति में हर आदमी किसी तरह अपना समय काट कर जीवन पूरा कर रहा है।
अनिश्चित मार्ग की स्थिति भी लम्बे समय तक चलना उचित नहीं है और कोई निश्चित मार्ग दिख भी नहीं रहा फिर भी हमें निराश न होकर मार्ग तलाशना तो है ही। आपको चौराहे पर लाकर छोड़ना मेरा उद्देश्य नहीं है और मैं आपको कोई निश्चित मार्ग बता भी नहीं पा रहा किन्तु मैं आपको ऐसे मार्ग की तलाश में अपने साथ जोड़ना चाहता हूँ। इसके लिये हमें कुछ सक्रियताओं से दूरी बनानी चाहिये। पहला सूत्र है कि हम व्यक्ति के पीछे न चलकर सिस्टम के पीछे चलने की आदत डालें। हम परिवार में भी व्यक्तिवाद की जगह सिस्टम को मजबूत करें। देश में भी हम मोदी की जगह नये सिस्टम को महत्व दें। व्यक्ति को महत्व देने से हमें धोखा भी हो सकता है या व्यक्ति के जाते ही शून्य पैदा हो सकता है किन्तु सिस्टम मजबूत रहे तो खतरा कम रहेगा। इसी तरह हमें व्यक्ति के कार्यों की तुलना में उसके विचारों की अधिक समीक्षा करनी चाहिये। विचारों से सिस्टम में सुधार होता है और कार्यों से व्यक्तित्व निखरता है। दूसरी बात यह है कि धार्मिक मामलों में जो कुछ पुराना है वही अन्तिम सत्य है ऐसा भी मानना गलत है और जो कुछ पुराना है वह पूरी तरह गलत है यह भी ठीक नहीं। दोनो प्रकार की दुकानें भारत में खुली हुई हैं। आप ऐसी दुकानदारी से बचिये। आपको जो ठीक लगे वह करिये लेकिन दूसरों को भी अपना निर्णय स्वतंत्रता से करने दीजिये। अपना निर्णय करते समय भी आप पुराना नया से निर्लिप्त रहकर निर्णय करिये। तीसरी बात यह है कि जब तक आपको कोई प्रत्यक्ष लाभ न हो तब तक किसी संगठन से मत जुड़िये। संगठन पूरी तरह समाज की एकता को तोड़ने में सक्रिय हैं। बिना लाभ के आप ऐसे काम के सहभागी या सहयोगी मत बनिये। यदि आप सेवा कार्य में सहयोग करना चाहें तो किसी संस्था को सहयोग कर सकते हैं अन्यथा इन सब से दूर रहना ही अच्छा है। चौथा काम यह करिये कि विचार प्रचार बिल्कुल मत करिये। विचार प्रचार ही वर्तमान समय में समाज के लिये घातक सिद्ध हो रहा है। पूरे भारत में असत्य सत्य के समान स्थापित करने में इस प्रचार का ही सहारा लिया जा रहा है। मुठ्ठी भर लोग व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये ऐसा असत्य फैलाने में हम आप सरीखे लोगों को जोड़कर उसका लाभ उठाते हैं। आप विचार प्रचार की जगह विचार मंथन को आगे बढ़ाइये। किसी भी व्यक्ति को तब तक कोई निश्चित मार्ग मत बताइये जब तक आपको स्वयं उसका पूरा अनुभव न हो। किसी अच्छे कार्य की बढ़ा चढ़ा कर प्रशंसा करना अच्छी आदत नहीं है। आप किसी कार्य के गुण दोषों की पूरी समीक्षा करके अन्तिम निर्णय उस व्यक्ति पर छोड़िये जो आपसे जानना चाहता है। पांचवां काम यह करिये कि न स्वयं गुरू बनिये न बनाइये। हर चालाक आदमी गुरू बनना और आपको गुरू बनाने की दिशा में प्रेरित कर रहा है। हर आदमी आप में कर्तव्य, दान, श्रद्धा, भाव बढ़ाकर स्वयं अधिकार, संग्रह, चालाकी की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है। जो भी व्यक्ति आपको गुरू बनाने का महत्व समझाना शुरू करे उससे तत्काल सावधान हो जाइये। जिस समय सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक व्यवस्था बिल्कुल ठीक थी उस समय गुरू या नेता बनाना उचित होता था किन्तु जब सब जबह छल कपट ठगी का वातावरण है तो बिना प्रत्यक्ष लाभ के किसी को गुरू या नेता मानना पूरी तरह मूर्खतापूर्ण है। अन्तिम निर्णय का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखिये। अन्तिम निर्णय करते समय उचित अनुचित की समीक्षा कीजिये, सिद्धान्त और व्यवहार, भावना और बुद्धि का सामंजस्य बनाइये और निर्णय स्वयं करिये, स्वयं के लिये करिये और दूसरों को भी करने दीजिये।
मैंने आपको उपर कुछ मार्गदर्शन किया है। किन्तु सारी चर्चा में मैं सूत्र रूप में आपसे दो अपेक्षा रखता हूॅ जिनपर आप तत्काल शुरू कर सकते हैं। पहला है शराफत छोड़िये समझदार बनिये और दूसरा है सुनिये सबकी करिये मन की। यदि आप इन दो सूत्रों पर ईमानदारी से अमल करेंगे तो आप स्वयं भी समस्या मुक्त रह सकते है और दूसरों के लिए भी समस्या नही बनेंगे।
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