मीडिया की शक्ति, एक समीक्षा

         मासिक, डायलॉग इन्डिया जून पंद्रह में, नूतन ठाकुर तथा अमिताभ ठाकुर ने अलग-अलग लेख लिखकर समाज को सूचना दी है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के कारण उन दोनों, जो पति-पत्नी हैं तथा पति वर्तमान में आई.पी.एस अधिकारी हैं, की जान को खतरा है । दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश के खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति के भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक अभियान छेड़ रखा है । दोनों ने अपनी सुरक्षा के लिए मुख्यमंत्री से भी मिलना चाहा किन्तु उन्हें समय नहीं दिया गया । यहाँ तक कि दोनो ने मिलकर मुख्यमंत्री के पिता मुलायम सिंह के विरूद्ध भी थाने मे भी शिकायत की । दूसरी ओर  श्री प्रजापति के इशारे पर अभिताभ ठाकुर के विरुद्ध बलात्कार तक के झूठे आरोप लगाए गए।

       कुछ ही दिनों पूर्व उत्तर प्रदेश के एक पत्रकार को जलाकर मारने का संगीन आरोप उत्तर प्रदेश के एक मंत्री पर लगा । वहाँ भी पत्रकार उस मंत्री के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए था । वहाँ भी पत्रकार के विरुद्ध सच्चे या झूठे अनेक आपराधिक प्रकरण दर्ज थे । मध्यप्रदेश में भी भ्रष्टाचार को उजागार कर रहे एक पत्रकार की हत्या हो गई । यदि पूरे भारत का वर्ष भर का आकलन करें तो राजनेताओं अपराधियों का गठजोड़ उजागर करने में दस-बीस पत्रकार या तो मारे जा चुके हैं या गंभीर संकट से जूझ रहे हैं। छोटे-छोटे मीडिया कर्मियों की गिनती तो हजारों में है।

        पिछले दिनों सूचना के अधिकार के अन्तर्गत जानकारी लेकर नेताओं अपराधियों की पोल खोलने वाले सामाजिक कार्यकताओं पर भी ऐसे ही आक्रमण हो चुके हैं। ऐसे आक्रमणों में वर्ष भर में आठ-दस लोग तो मारे जा ही चुके हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं पर भी अनेक आपराधिक प्रकरण दर्ज कराए गए हैं। छोटे-मोटे टकराव तो पूरे देश में ही हो रहे हैं । ऐसी सामाजिक सक्रियता में लगे लोगों को भी सुरक्षा चाहिए।

 पिछले दिनों राजनेता अपराधी गठजोड़ में बाधा बने अनेक पत्रकार, एन.जी.ओ. कर्मी, सूचनाधिकार सक्रिय समाज सेवी, हिंसक प्रताड़ना के शिकार हुए यह सच है। पूरे देश में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि ऐसे गठजोड़ में बाधक लोगों पर हिंसक आक्रमण में किसी न किसी रुप में कार्यपालिका की मशीनरी का भी सहयोग रहता है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ होता है। तो प्रश्न उठता है कि लोकतन्त्र के तीन स्तंभ भ्रष्ट हैं,  अपराधियों के साथ तालमेल है तो चौथा स्तंभ लोकतन्त्र के तीन स्तंभों के साथ जुड़ने के लिए इतना लालायित क्यों है? मीडिया लोकतन्त्र के इन भ्रष्ट स्तंभों के साथ जुड़ने की अपेक्षा स्वतन्त्र रुप से अपनी पहचान बनाने के लिए क्यों तैयार नहीं है? क्या मीडिया भी उन्हीं के समान भ्रष्ट या आपराधिक गठजोड़ का इच्छुक है?  जब स्पष्ट दिख रहा है कि लोकतंत्र की वर्तमान प्रणाली विपरीत परिणाम दे रही है, साठ वर्षो में न्यायपालिका भी आंशिक रुप से इसी का हिस्सा बनती जा रही है तो आप उसी व्यवस्था से अपनी सुरक्षा की उम्मीद कर रहे या गुहार लगा रहे हैं जिनके विरुद्ध आप आवाज उठा रहें है तो ऐसा दिखता है कि आप या तो कोई धुर्तता कर रहे हैं या मूर्खता। जब व्यवस्था के दो अंग विधायिका और कार्यपालिका अपराधियों के साथ मिलकर आपके पुण्य कार्य में बाधा पैदा कर रहें हैं तो आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वे आपको सुरक्षा देंगे।

         यदि हम लगातार बढ़ रहे ऐसे टकरावों के कारणों पर विचार करें यह पुराना अनुभव बताता है कि जिस वर्ग विशेष को कुछ विशेष सम्मान, शक्ति या अधिकार मिल जाता है उस वर्ग में ही व्यावसायिक, आपराधि प्रवृत्ति के लोगों का प्रवेश बढ़ जाता है तथा ऐसे व्यावयायिक आपराधिक लोगों में हितों का टकराव शुरु हो जाता है। मैं नूतन ठाकुर तथा अमिताभ ठाकुर के उदाहरण से ही विवेचना करता हूँ । पहला प्रश्न यह है कि आपने जो कार्य प्रारम्भ किया उसके लिए आपको व्यवस्था ने दायित्व दिया या आपका व्यक्तिगत निर्णय है। दूसरी बात यह भी है कि आपने भ्रष्टाचार अथवा नेता अपराधी गठजोड़ के विरुद्ध उन्हीं नेताओं से क्या उम्मीद पाल रखी है? तीसरी बात यह है कि आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ते-लड़ते किसी एक ही व्यक्ति के भ्रष्टाचार तक स्वयं को क्यों सीमित कर लेते हैं। चौथी बात यह है कि आपका जो मुख्य दायित्व है उस दायित्व को पूरा करने में आपका यह अभियान बाधक तो नही है? इनके उत्तर खोजने के बाद ही आपकी नीयत पर कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

        मीडिया के विषय में मेरा भी एक व्यक्तिगत अनुभव है। तीस-चालीस वर्ष पूर्व एक स्थानीय पाक्षिक पत्र के पत्रकार ने मुझसे पैसे मांगे जो मैंने नहीं दिए। उसने मेरे विरुद्ध कुछ भी लिखना शुरु किया जिसकी मैंने कोई परवाह नहीं की। पूरे सरगुजा जिले के पत्रकार एकजुट हो गए फिर भी मैंने न पैसे दिए न परवाह की। सरगुजा जिले के सभी मीडिया कर्मियों ने करीब चालीस वर्ष तक मेरे विरुद्ध अभियान चलाया । न मैंने पैसे दिए न ही कोई परवाह की । अन्त में हार थक कर वे बैठ गए । पत्रकारों के तर्क में दम था कि आप यदि गैर कानूनी काम करते हैं तो आपको हमारा भी ख्याल रखना पड़ेगा । मैं स्पष्ट था कि मैं दो नम्बर के कार्य के लिए अधिकारियों नेताओें का तो ख्याल करूंगा जिनके पास कुछ अधिकार है किन्तु मीडिया न तो मुझे कोई सुरक्षा दे सकता है न बिगाड़ सकता है तो मैं तुम्हारा ख्याल क्यों रखूँ? मैं आश्वस्त था कि मैं कोई तीन नम्बर का काम तो करता नहीं कि मेरी बदनामी होगी और दो नम्बर के काम से कभी कोई बदनामी होती नहीं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति एक नम्बर का होगा तभी वह मेरे ऊपर उंगली उठा सकता है । सरकारी कर्मचारी तो मेरे साथ है ही।

        यदि भारत में लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के काम में जुडे़ लोगों के कार्यों का गुप्त सर्वेक्षण किया जाए तो सरकारी कर्मचारी और राजनेताओं में भ्रष्ट लोगों का जो प्रतिशत होगा उससे ज्यादा ही प्रतिशत मीडिया कर्मियों का होगा। इन सबका एक गिरोह बन जाता है । यदि आपके शरीर पर कहीं भी घाव दिखा तो मक्खियों का झुंड जिस तरह टूट पड़ता है, वह स्थिति आपकी हो जाती है। मैं इन सबसे दूर रहकर सिर्फ देखता ही रहता हूँ। पूरा देश जानता है कि एक टी.वी. चैनल ने एक भ्रष्टाचार का मामला अपने चैनल पर न दिखाने के लिए सौ करोड़ का सौदा किया था । अनेक टी.वी. चैनल स्वयं स्टिंग नहीं करते बल्कि कुछ पेशेवर लोग स्टिंग करते हैं, जिसे ये चैनल सस्ते में खरीद लेते हैं। इन स्टिंगों के आधार पर पहले तो ब्लैक मेलिंग होती है और बाद में निन्यान्नवे प्रतिशत घटनाओं का रस निचोड़ कर एक दो को प्रसारित कर दिया जाता है।

        आज तक यह पता करने की कोई मशीन नहीं बनी जो बता सके कि कौन मीडिया कर्मी समाज सेवा के उद्देश्य से यह काम कर रहा है और कौन ब्लैक मेलिंग के उद्देश्य से अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ाने के काम में लगा है। अनेक लोग प्रारम्भ में तो बड़े तीस मार खां दिखते है, किन्तु अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ते ही अपनी वास्तविकता पर आ जाते हैं । अभी-अभी हमने मीडिया की ताकत देखी है । अरविन्द केजरीवाल ने बहुत हिम्मत करके मीडिया को उसकी औकात बताने की कोशिश की थी । एक सप्ताह में ही मीडिया ने अपनी औकात बता दी । अरविन्द केजरीवाल जी को अहसास हुआ कि दांव उल्टा पड़ गया। जहाँ बड़े-बड़े ऊॅंट बहे जा रहे हों वहाँ गदहा पानी की थाह लगा रहा है। जिस मीडिया को नरेन्द्र मोदी औकात नहीं बता पा रहे उसे एक केन्द्र शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री क्या चुनौती देगा । अरविन्द सरकार ने तुरन्त ही पच्चीस करोड़ का बजट बीस गुना बढ़ाकर पाँच सौ पच्चीस करोड़ का कर दिया। अब देखिये मीडिया की भाषा बिल्कुल ही बदल गई। अब अरविन्द जी का गिरता हुआ ग्राफ ऊपर उठना शुरु हो गया । कुछ दिनो पूर्व ही उत्तर प्रदेश में एक तथाकथित पत्रकार की संदेहास्पद आत्महत्या के परिणाम स्वरुप वहाँ के मुख्यमंत्री ने तीस लाख रुपये की सहायता की । आज ही व्यावसायिक परीक्षा मंडल घोटाला की पूछताछ के लिए दिल्ली से गए पत्रकार का झाबुआ में हार्टफेल हो जाता है तो उसकी अंत्येष्टि में दिल्ली के मुख्यमंत्री,उपमुख्यमंत्री राहुल गांधी सहित अनेक बड़े नेता शामिल होते है । एक केन्द्रिय मंत्री को हवाई जहाज से जाने की सुविधा के लिए तीन यात्रियो को दुसरे जहाज से भेजने की व्यवस्था होती है तो सारा मीडिया चिल्लाने लगता है कि समानता के सिद्धान्त के विरूद्ध कार्य हो रहा है । दूसरी ओर एक पत्रकार की हार्ट अटैक से भी मृत्यु हो जाए या आत्महत्या भी कर ले तो समानता का सिद्धान्त छोड़कर सारा मीडिया और मीडिया से भयभीत राजनेता बड़ी से बड़ी जांच करने का आदेश या संस्तुति करते है । स्पष्ट है कि लोकतंत्र के दोनों स्तम्भ विधायिका और कार्यपालिका संगठित मीडिया का महत्व समझते हैं तथा उससे भूत की तरह डरते हैं । स्पष्ट है कि मीडिया की लोकतन्त्र के अन्य स्तंभों से इस बात की लड़ाई दिखती है कि सारा माल-मलाई आप अकेले नहीं खा सकते क्योंकि हम भी लोकतन्त्र के चौथे स्तंभ है । हमारा भी उचित हिस्सा तो होना ही चाहिए ।

            यह स्पष्ट है कि मीडिया का निन्यानवे प्रतिशत ढांचा व्यवसाय के रुप में है । अपवाद स्वरुप ही कुछ लोग अब भी इसे सामाजिक कार्य समझकर इसकी पवित्रता के साथ जुड़े हैं किन्तु ऐसे पवित्र लोगों की संख्या लगातार घट रही है । एक ओर तो मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर उसे मुखौटे के रुप में प्रयोग करता है तो दूसरी ओर अन्दर खाने उसे यह भी संतोष है कि जब लोकतंत्र के तीन स्तंभ अपने काम को व्यवसाय कहे जाने पर शर्म महसूस नहीं करते तब हम यदि शुद्ध व्यवसाय करते हुए अपने को लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ कहने लगे तो उसमें गलत क्या है। लोकतंत्र के तीन स्तंभ तो आम जनता से भारी-भरकम वेतन भी लेते हैं और फिर भी उनका पेट नहीं भर रहा तो हम मीडिया वाले तो अवैतनिक हैं। हमारा तो पूरा खर्च इसी पर चलता है। मेरे विचार में मीडिया के इस तर्क में दम है।

        दूसरी ओर यदि हम सामान्य लोगों के तर्को पर विचार करें तो वह बात भी कमजोर नहीं है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका से जुड़े लोगों के पास कुछ ऐसे संवैधानिक अधिकार हैं जिनका दुरुपयोग करके वे उस पद का फायदा उठा सकते हैं किन्तु मीडिया कर्मियों को ऐसा कोई संवैधानिक अधिकार तो है नहीं जिसका दुरुपयोग करके वे ब्लैकमेल कर सकें या उपयोग करके किसी की सुरक्षा कर सकें । मीडिया कर्मी से आम लोग इसलिए डरते हैं कि यदि वह हमारी किसी कमजोरी का हल्ला कर देगा तो एक ओर तो हमारी बदनामी होगी दूसरी ओर मीडिया वालों के डर से नेता और अफसर पूरी तरह भयभीत रहते है। तो हम बेमतलब क्यों आफत मोड़ लें?

         दोनों ही तर्को मे दम है किन्तु एक बात पूरी तरह निर्विवाद है कि मीडिया पूरी तरह एक व्यवसाय है तथा नेता अपराधी गठजोड़ से मीडिया, आर.टी.आई. सक्रिय लोग एन.जी.ओ. आदि से हो रहा हिंसक टकराव व्यावयायिक प्रतिस्पर्धा से अधिक बढ़कर कोई भिन्न समस्या नहीं हैं। लूट के माल में यदि छीना-झपटी हो और उसमें किसी की हत्या हो जावे तो इसमें समाज का क्या दोष? किसी एक ही व्यक्ति के अवैध व्यवसाय को लक्ष्य बनाकर आप उसके पीछे पड़ जावें और आपका उद्देश्य अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ाना ही हो तो फिर हिसंक आक्रमण का खतरा कौन झेलेगा? यदि शक्ति किसी एक जगह केन्द्रित होगी तो धूर्त लोग ऐसी शक्ति का ज्यादा दुरुपयोग कर सकते हैं चाहे वह शक्ति विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के पास इकट्ठी हो अथवा मीडिया के पास । ये सब टकराव शक्ति के केन्द्रीयकरण के परिणाम हैं, कारण नहीं । यदि अमिताभ ठाकुर और नूतन ठाकुर समस्याओं का समाधान चाहते हैं तो परिणामों पर चोट करने की अपेक्षा कारणों पर चोट करनी होगी अर्थात् गन्दगी की सफाई करने की अपेक्षा गन्दा करने वालों पर नियन्त्रण का अधिक प्रयास करना होगा । और यदि आप भी बहती गंगा में हाथ धोने की फिराक में हैं तो यह आपका और दूसरे पक्ष का व्यावसायिक विवाद मात्र है, कोई सामाजिक समस्या नहीं । यदि मुलायम सिंह से टकराव के कारण आपकी हत्या हो जाती है तो आप शहीद का सम्मान तो पा सकते है किन्तु भ्रष्टाचार पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ेगा । गंभीरता पूर्वक विचार करिए । यदि अनावश्यक कानूनों को हटा दिया जाए, राज्य अपने अधिकारों को परिवार, गाँव, जिले तक बाँटकर सीमित कर ले, मीडिया के लोग अपना रौब जमाने के उद्देश्य से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानना और कहना बंद कर दे तो मैं आश्वस्त हूँ कि इस प्रकार के हितों का हिंसक टकराव भी स्वयं ही समाप्त हो सकता हैं।

 

 

         मासिक, डायलॉग इन्डिया जून पंद्रह में, नूतन ठाकुर तथा अमिताभ ठाकुर ने अलग-अलग लेख लिखकर समाज को सूचना दी है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने के कारण उन दोनों, जो पति-पत्नी हैं तथा पति वर्तमान में आई.पी.एस अधिकारी हैं, की जान को खतरा है । दोनों ने मिलकर उत्तर प्रदेश के खनन मंत्री गायत्री प्रसाद प्रजापति के भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक अभियान छेड़ रखा है । दोनों ने अपनी सुरक्षा के लिए मुख्यमंत्री से भी मिलना चाहा किन्तु उन्हें समय नहीं दिया गया । यहाँ तक कि दोनो ने मिलकर मुख्यमंत्री के पिता मुलायम सिंह के विरूद्ध भी थाने मे भी शिकायत की । दूसरी ओर  श्री प्रजापति के इशारे पर अभिताभ ठाकुर के विरुद्ध बलात्कार तक के झूठे आरोप लगाए गए।

       कुछ ही दिनों पूर्व उत्तर प्रदेश के एक पत्रकार को जलाकर मारने का संगीन आरोप उत्तर प्रदेश के एक मंत्री पर लगा । वहाँ भी पत्रकार उस मंत्री के भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान छेड़े हुए था । वहाँ भी पत्रकार के विरुद्ध सच्चे या झूठे अनेक आपराधिक प्रकरण दर्ज थे । मध्यप्रदेश में भी भ्रष्टाचार को उजागार कर रहे एक पत्रकार की हत्या हो गई । यदि पूरे भारत का वर्ष भर का आकलन करें तो राजनेताओं अपराधियों का गठजोड़ उजागर करने में दस-बीस पत्रकार या तो मारे जा चुके हैं या गंभीर संकट से जूझ रहे हैं। छोटे-छोटे मीडिया कर्मियों की गिनती तो हजारों में है।

        पिछले दिनों सूचना के अधिकार के अन्तर्गत जानकारी लेकर नेताओं अपराधियों की पोल खोलने वाले सामाजिक कार्यकताओं पर भी ऐसे ही आक्रमण हो चुके हैं। ऐसे आक्रमणों में वर्ष भर में आठ-दस लोग तो मारे जा ही चुके हैं। ऐसे कार्यकर्ताओं पर भी अनेक आपराधिक प्रकरण दर्ज कराए गए हैं। छोटे-मोटे टकराव तो पूरे देश में ही हो रहे हैं । ऐसी सामाजिक सक्रियता में लगे लोगों को भी सुरक्षा चाहिए।

 पिछले दिनों राजनेता अपराधी गठजोड़ में बाधा बने अनेक पत्रकार, एन.जी.ओ. कर्मी, सूचनाधिकार सक्रिय समाज सेवी, हिंसक प्रताड़ना के शिकार हुए यह सच है। पूरे देश में यह भी प्रमाणित हो चुका है कि ऐसे गठजोड़ में बाधक लोगों पर हिंसक आक्रमण में किसी न किसी रुप में कार्यपालिका की मशीनरी का भी सहयोग रहता है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि मीडिया लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ होता है। तो प्रश्न उठता है कि लोकतन्त्र के तीन स्तंभ भ्रष्ट हैं,  अपराधियों के साथ तालमेल है तो चौथा स्तंभ लोकतन्त्र के तीन स्तंभों के साथ जुड़ने के लिए इतना लालायित क्यों है? मीडिया लोकतन्त्र के इन भ्रष्ट स्तंभों के साथ जुड़ने की अपेक्षा स्वतन्त्र रुप से अपनी पहचान बनाने के लिए क्यों तैयार नहीं है? क्या मीडिया भी उन्हीं के समान भ्रष्ट या आपराधिक गठजोड़ का इच्छुक है?  जब स्पष्ट दिख रहा है कि लोकतंत्र की वर्तमान प्रणाली विपरीत परिणाम दे रही है, साठ वर्षो में न्यायपालिका भी आंशिक रुप से इसी का हिस्सा बनती जा रही है तो आप उसी व्यवस्था से अपनी सुरक्षा की उम्मीद कर रहे या गुहार लगा रहे हैं जिनके विरुद्ध आप आवाज उठा रहें है तो ऐसा दिखता है कि आप या तो कोई धुर्तता कर रहे हैं या मूर्खता। जब व्यवस्था के दो अंग विधायिका और कार्यपालिका अपराधियों के साथ मिलकर आपके पुण्य कार्य में बाधा पैदा कर रहें हैं तो आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वे आपको सुरक्षा देंगे।

         यदि हम लगातार बढ़ रहे ऐसे टकरावों के कारणों पर विचार करें यह पुराना अनुभव बताता है कि जिस वर्ग विशेष को कुछ विशेष सम्मान, शक्ति या अधिकार मिल जाता है उस वर्ग में ही व्यावसायिक, आपराधि प्रवृत्ति के लोगों का प्रवेश बढ़ जाता है तथा ऐसे व्यावयायिक आपराधिक लोगों में हितों का टकराव शुरु हो जाता है। मैं नूतन ठाकुर तथा अमिताभ ठाकुर के उदाहरण से ही विवेचना करता हूँ । पहला प्रश्न यह है कि आपने जो कार्य प्रारम्भ किया उसके लिए आपको व्यवस्था ने दायित्व दिया या आपका व्यक्तिगत निर्णय है। दूसरी बात यह भी है कि आपने भ्रष्टाचार अथवा नेता अपराधी गठजोड़ के विरुद्ध उन्हीं नेताओं से क्या उम्मीद पाल रखी है? तीसरी बात यह है कि आप भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई लड़ते-लड़ते किसी एक ही व्यक्ति के भ्रष्टाचार तक स्वयं को क्यों सीमित कर लेते हैं। चौथी बात यह है कि आपका जो मुख्य दायित्व है उस दायित्व को पूरा करने में आपका यह अभियान बाधक तो नही है? इनके उत्तर खोजने के बाद ही आपकी नीयत पर कोई निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

        मीडिया के विषय में मेरा भी एक व्यक्तिगत अनुभव है। तीस-चालीस वर्ष पूर्व एक स्थानीय पाक्षिक पत्र के पत्रकार ने मुझसे पैसे मांगे जो मैंने नहीं दिए। उसने मेरे विरुद्ध कुछ भी लिखना शुरु किया जिसकी मैंने कोई परवाह नहीं की। पूरे सरगुजा जिले के पत्रकार एकजुट हो गए फिर भी मैंने न पैसे दिए न परवाह की। सरगुजा जिले के सभी मीडिया कर्मियों ने करीब चालीस वर्ष तक मेरे विरुद्ध अभियान चलाया । न मैंने पैसे दिए न ही कोई परवाह की । अन्त में हार थक कर वे बैठ गए । पत्रकारों के तर्क में दम था कि आप यदि गैर कानूनी काम करते हैं तो आपको हमारा भी ख्याल रखना पड़ेगा । मैं स्पष्ट था कि मैं दो नम्बर के कार्य के लिए अधिकारियों नेताओें का तो ख्याल करूंगा जिनके पास कुछ अधिकार है किन्तु मीडिया न तो मुझे कोई सुरक्षा दे सकता है न बिगाड़ सकता है तो मैं तुम्हारा ख्याल क्यों रखूँ? मैं आश्वस्त था कि मैं कोई तीन नम्बर का काम तो करता नहीं कि मेरी बदनामी होगी और दो नम्बर के काम से कभी कोई बदनामी होती नहीं। क्योंकि जब कोई व्यक्ति एक नम्बर का होगा तभी वह मेरे ऊपर उंगली उठा सकता है । सरकारी कर्मचारी तो मेरे साथ है ही।

        यदि भारत में लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ के काम में जुडे़ लोगों के कार्यों का गुप्त सर्वेक्षण किया जाए तो सरकारी कर्मचारी और राजनेताओं में भ्रष्ट लोगों का जो प्रतिशत होगा उससे ज्यादा ही प्रतिशत मीडिया कर्मियों का होगा। इन सबका एक गिरोह बन जाता है । यदि आपके शरीर पर कहीं भी घाव दिखा तो मक्खियों का झुंड जिस तरह टूट पड़ता है, वह स्थिति आपकी हो जाती है। मैं इन सबसे दूर रहकर सिर्फ देखता ही रहता हूँ। पूरा देश जानता है कि एक टी.वी. चैनल ने एक भ्रष्टाचार का मामला अपने चैनल पर न दिखाने के लिए सौ करोड़ का सौदा किया था । अनेक टी.वी. चैनल स्वयं स्टिंग नहीं करते बल्कि कुछ पेशेवर लोग स्टिंग करते हैं, जिसे ये चैनल सस्ते में खरीद लेते हैं। इन स्टिंगों के आधार पर पहले तो ब्लैक मेलिंग होती है और बाद में निन्यान्नवे प्रतिशत घटनाओं का रस निचोड़ कर एक दो को प्रसारित कर दिया जाता है।

        आज तक यह पता करने की कोई मशीन नहीं बनी जो बता सके कि कौन मीडिया कर्मी समाज सेवा के उद्देश्य से यह काम कर रहा है और कौन ब्लैक मेलिंग के उद्देश्य से अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ाने के काम में लगा है। अनेक लोग प्रारम्भ में तो बड़े तीस मार खां दिखते है, किन्तु अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ते ही अपनी वास्तविकता पर आ जाते हैं । अभी-अभी हमने मीडिया की ताकत देखी है । अरविन्द केजरीवाल ने बहुत हिम्मत करके मीडिया को उसकी औकात बताने की कोशिश की थी । एक सप्ताह में ही मीडिया ने अपनी औकात बता दी । अरविन्द केजरीवाल जी को अहसास हुआ कि दांव उल्टा पड़ गया। जहाँ बड़े-बड़े ऊॅंट बहे जा रहे हों वहाँ गदहा पानी की थाह लगा रहा है। जिस मीडिया को नरेन्द्र मोदी औकात नहीं बता पा रहे उसे एक केन्द्र शासित प्रदेश का मुख्यमंत्री क्या चुनौती देगा । अरविन्द सरकार ने तुरन्त ही पच्चीस करोड़ का बजट बीस गुना बढ़ाकर पाँच सौ पच्चीस करोड़ का कर दिया। अब देखिये मीडिया की भाषा बिल्कुल ही बदल गई। अब अरविन्द जी का गिरता हुआ ग्राफ ऊपर उठना शुरु हो गया । कुछ दिनो पूर्व ही उत्तर प्रदेश में एक तथाकथित पत्रकार की संदेहास्पद आत्महत्या के परिणाम स्वरुप वहाँ के मुख्यमंत्री ने तीस लाख रुपये की सहायता की । आज ही व्यावसायिक परीक्षा मंडल घोटाला की पूछताछ के लिए दिल्ली से गए पत्रकार का झाबुआ में हार्टफेल हो जाता है तो उसकी अंत्येष्टि में दिल्ली के मुख्यमंत्री,उपमुख्यमंत्री राहुल गांधी सहित अनेक बड़े नेता शामिल होते है । एक केन्द्रिय मंत्री को हवाई जहाज से जाने की सुविधा के लिए तीन यात्रियो को दुसरे जहाज से भेजने की व्यवस्था होती है तो सारा मीडिया चिल्लाने लगता है कि समानता के सिद्धान्त के विरूद्ध कार्य हो रहा है । दूसरी ओर एक पत्रकार की हार्ट अटैक से भी मृत्यु हो जाए या आत्महत्या भी कर ले तो समानता का सिद्धान्त छोड़कर सारा मीडिया और मीडिया से भयभीत राजनेता बड़ी से बड़ी जांच करने का आदेश या संस्तुति करते है । स्पष्ट है कि लोकतंत्र के दोनों स्तम्भ विधायिका और कार्यपालिका संगठित मीडिया का महत्व समझते हैं तथा उससे भूत की तरह डरते हैं । स्पष्ट है कि मीडिया की लोकतन्त्र के अन्य स्तंभों से इस बात की लड़ाई दिखती है कि सारा माल-मलाई आप अकेले नहीं खा सकते क्योंकि हम भी लोकतन्त्र के चौथे स्तंभ है । हमारा भी उचित हिस्सा तो होना ही चाहिए ।

            यह स्पष्ट है कि मीडिया का निन्यानवे प्रतिशत ढांचा व्यवसाय के रुप में है । अपवाद स्वरुप ही कुछ लोग अब भी इसे सामाजिक कार्य समझकर इसकी पवित्रता के साथ जुड़े हैं किन्तु ऐसे पवित्र लोगों की संख्या लगातार घट रही है । एक ओर तो मीडिया स्वयं को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर उसे मुखौटे के रुप में प्रयोग करता है तो दूसरी ओर अन्दर खाने उसे यह भी संतोष है कि जब लोकतंत्र के तीन स्तंभ अपने काम को व्यवसाय कहे जाने पर शर्म महसूस नहीं करते तब हम यदि शुद्ध व्यवसाय करते हुए अपने को लोकतन्त्र का चौथा स्तंभ कहने लगे तो उसमें गलत क्या है। लोकतंत्र के तीन स्तंभ तो आम जनता से भारी-भरकम वेतन भी लेते हैं और फिर भी उनका पेट नहीं भर रहा तो हम मीडिया वाले तो अवैतनिक हैं। हमारा तो पूरा खर्च इसी पर चलता है। मेरे विचार में मीडिया के इस तर्क में दम है।

        दूसरी ओर यदि हम सामान्य लोगों के तर्को पर विचार करें तो वह बात भी कमजोर नहीं है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका से जुड़े लोगों के पास कुछ ऐसे संवैधानिक अधिकार हैं जिनका दुरुपयोग करके वे उस पद का फायदा उठा सकते हैं किन्तु मीडिया कर्मियों को ऐसा कोई संवैधानिक अधिकार तो है नहीं जिसका दुरुपयोग करके वे ब्लैकमेल कर सकें या उपयोग करके किसी की सुरक्षा कर सकें । मीडिया कर्मी से आम लोग इसलिए डरते हैं कि यदि वह हमारी किसी कमजोरी का हल्ला कर देगा तो एक ओर तो हमारी बदनामी होगी दूसरी ओर मीडिया वालों के डर से नेता और अफसर पूरी तरह भयभीत रहते है। तो हम बेमतलब क्यों आफत मोड़ लें?

         दोनों ही तर्को मे दम है किन्तु एक बात पूरी तरह निर्विवाद है कि मीडिया पूरी तरह एक व्यवसाय है तथा नेता अपराधी गठजोड़ से मीडिया, आर.टी.आई. सक्रिय लोग एन.जी.ओ. आदि से हो रहा हिंसक टकराव व्यावयायिक प्रतिस्पर्धा से अधिक बढ़कर कोई भिन्न समस्या नहीं हैं। लूट के माल में यदि छीना-झपटी हो और उसमें किसी की हत्या हो जावे तो इसमें समाज का क्या दोष? किसी एक ही व्यक्ति के अवैध व्यवसाय को लक्ष्य बनाकर आप उसके पीछे पड़ जावें और आपका उद्देश्य अपना न्यूसेंस वैल्यू बढ़ाना ही हो तो फिर हिसंक आक्रमण का खतरा कौन झेलेगा? यदि शक्ति किसी एक जगह केन्द्रित होगी तो धूर्त लोग ऐसी शक्ति का ज्यादा दुरुपयोग कर सकते हैं चाहे वह शक्ति विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के पास इकट्ठी हो अथवा मीडिया के पास । ये सब टकराव शक्ति के केन्द्रीयकरण के परिणाम हैं, कारण नहीं । यदि अमिताभ ठाकुर और नूतन ठाकुर समस्याओं का समाधान चाहते हैं तो परिणामों पर चोट करने की अपेक्षा कारणों पर चोट करनी होगी अर्थात् गन्दगी की सफाई करने की अपेक्षा गन्दा करने वालों पर नियन्त्रण का अधिक प्रयास करना होगा । और यदि आप भी बहती गंगा में हाथ धोने की फिराक में हैं तो यह आपका और दूसरे पक्ष का व्यावसायिक विवाद मात्र है, कोई सामाजिक समस्या नहीं । यदि मुलायम सिंह से टकराव के कारण आपकी हत्या हो जाती है तो आप शहीद का सम्मान तो पा सकते है किन्तु भ्रष्टाचार पर इसका कोई प्रभाव नही पड़ेगा । गंभीरता पूर्वक विचार करिए । यदि अनावश्यक कानूनों को हटा दिया जाए, राज्य अपने अधिकारों को परिवार, गाँव, जिले तक बाँटकर सीमित कर ले, मीडिया के लोग अपना रौब जमाने के उद्देश्य से लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानना और कहना बंद कर दे तो मैं आश्वस्त हूँ कि इस प्रकार के हितों का हिंसक टकराव भी स्वयं ही समाप्त हो सकता हैं।