निजीकरण,राष्ट्रीयकरण,समाजीकरण

व्यक्ति और समाज एक दूसरे के पूरक होते है। दोनो मिलकर ही एक व्यवस्था बनाते है। व्यक्ति की उच्श्रृंखलता पर समाज नियंत्रण नहीं कर सकता क्योंकि समाज एक अमूर्त इकाई है इसलिए राज्य की आवश्यकता होती है। समाज और राज्य एक दूसरे के लिए सहयोग और नियंत्रण का कार्य करते रहते है। व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा समाज का कर्तव्य होता है और राज्य का दायित्व। व्यक्ति के मौलिक अधिकारों में सम्पत्ति का भी समावेश होता है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति की सहमति के बिना राज्य उसकी सम्पत्ति में भी कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता।
पश्चिम की लोकतांत्रिक और पूंजीवादी व्यवस्था में व्यक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है तो साम्यवादी व्यवस्था में राज्य। भारत की प्राचीन व्यवस्था में समाज और व्यक्ति के अधिकारों का संतुलन बिल्कुल ठीक था जो भारत की गुलामी के काल में बिगड गया। मुस्लिम शासन काल में व्यक्ति कमजोर हुआ तो अंग्रेजो के शासनकाल में समाज कमजोर हुआ। स्वतंत्रता के बाद तो यह एक तरह का खिचडी सरीखा बन गया जिसमें पता ही नहीं है कि व्यक्ति समाज और राज्य की क्या स्थिति है। भारतीय व्यवस्था में साम्यवाद का कितना प्रभाव है और पॅूजीवाद का कितना यह स्पष्ट नहीं है। सन् 91 के पहले तो भारत की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था पर साम्यवाद का विशेष प्रभाव था किन्तु उसके बाद धीरे धीरे पूंजीवाद की घुसपैठ हुई और वर्तमान में दोनों की खिचडी बनी हुई है।
जिन भी देशो में राष्ट्र शब्द का उपयोग होता है उसका वास्तविक आशय सरकार से ही होता है चाहे राष्ट्र शब्द का उपयोग संघ परिवार के लोग करें या साम्यवादी, नीयत दोनों की एक ही होती है। इसका अर्थ हुआ कि सरकारीकरण को ही मीठी चाशनी में लपेट कर राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है ,जबकि राष्ट्रीयकरण जैसा कुछ नहीं होता है।
यदि किसी देश में तानाशाही होती है तो राष्ट्रीयकरण से देश या राज्य तरक्की करता है,और समाज गुलाम हो जाता है किन्तु यदि किसी देश में लोकतंत्र है तो राष्ट्रीयकरण भ्रष्टाचार का केन्द्र बन जाता है। भारत ऐसे ही भ्रष्टाचार का केन्द्र बना है जहाॅ की आर्थिक व्यवस्था में पूरी तरह सरकार का नियंत्रण है। यदि राष्ट्रीयकरण किसी मामले में नहीं भी है तो भी सरकार का नियंत्रण इतना अधिक है कि भ्रष्टाचार होना ही है। किसी भी प्रकार के भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए सम्पूर्ण निजीकरण ही एकमात्र समाधान है। निजीकरण से गरीब और अमीर के बीच की दूरी बढती है क्योंकि स्वतंत्र प्रतिस्पर्धा में गरीब और श्रमजीवी पिछडेगा ही। किन्तु सरकारीकरण इस आर्थिक असमानता का समाधान न होकर विस्तार देने वाला होता है क्योंकि प्रतिस्पर्धा कार्यक्षमता को बढाती है तथा उत्पादन में भी वृद्धि करती है। राष्ट्रीयकरण से नुकसान ही नुकसान होता है। मेरा अनुमान है कि कोई भी सरकार किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता देना नहीं चाहती। वर्तमान सरकार दो वर्षो से पूंजीवाद की तरफ बढ रही है जिसका अर्थ हुआ कि धीरे धीरे निजीकरण आ रहा है किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि राजनेताओं की नीयत साफ है। भ्रष्टाचार और असफलताओं को देखते हुये ये लोग निजीकरण स्वीकार कर रहे है किन्तु यह भय बना हुआ है कि थोडी सी समस्या सुलझते हीे फिर से इंस्पेक्टर राज और राष्ट्रीयकरण का नारा बुलंद कर सकते हैं। वैसे भी सैद्धांतिक रुप से संघ परिवार राष्ट्रीयकरण अर्थात सरकारीकरण का पक्षधर रहा है यद्यपि वर्तमान में वह निजीकरण का समर्थन कर रहा है। भारत की वर्तमान समस्याओं का तात्कालिक समाधान तो अधिकतम निजीकरण ही है। सरकार को चाहिये कि वह अपने सुरक्षा और न्याय की आवश्यकताओ के अनुरुप टैक्स लगाकर बाकी सभी आर्थिक मामलों में सम्पूर्ण स्वतंत्रता दे दे, पश्चिमी देशो से भी अधिक।
यद्यपि सरकारीकरण का समाधान निजीकरण है किन्तु निजीकरण आदर्श व्यवस्था नहीं है। आदर्श व्यवस्था तो समाजीकरण है जिसका अर्थ होता है कि समाज की प्रत्येक इकाई को अपनी आर्थिक नीतियों के संबंध में निर्णय लेने की पूरी स्वतंत्रता हो। परिवार की पारिवारिक मामलों में गांव को गाॅव संबंधी मामलों में और उपर की इकाईयों को अपने अपने अन्य मामलों में। एक स्कूल चलाना है। गांव के लोग बैठकर यह निर्णय कर सकते है कि स्कूल की पूरे गांव के द्वारा व्यवस्था होनी चाहिये अथवा किसी व्यक्ति को करने दिया जाये। मैं नहीं समझता कि इस स्कूल के मामले में सरकार का हस्तक्षेप क्यों हो। कोई परिवार अपने बालक को नहीं पढाना चाहता तो समाज उसे पढाने के लिए बाध्य कर सकता है किन्तु सरकार कौन होती है बीच में दखल देने वाली। सरकार ने तो ऐसा वातावरण बना दिया है कि जैसे सरकार ही समाज हो और उसे सारे अधिकार प्राप्त हो।
मेरा स्पष्ट मत है कि सबसे अच्छी व्यवस्था और आदर्श स्थिति तो समाजीकरण है और सबसे बुरी स्थिति राष्ट्रीयकरण है। बीच में निजीकरण है। वर्तमान में राष्ट्रीयकरण से छुटकारा के लिए अल्पकाल में निजीकरण को भले ही प्रोत्साहित किया जाये किन्तु दीर्घकालीन नीति तो समाजीकरण ही है। सभी समस्याओं का यही समाधान है।