स्वतंत्रता कि खुशी या विभाजन का गम
जब भारत को स्वतंत्रता मिली तब मेरी उम्र सिर्फ 8 वर्ष की थी । मुझे स्वतंत्रता की प्रसन्नता का प्रत्यक्ष अनुभव था, लेकिन मुझे बाद में यह पता चला कि यही 15 अगस्त भारत के विभाजन का भी दिन माना जाता है । मैं जिस क्षेत्र का निवासी हूँ उसमें विभाजन का कोई प्रभाव नहीं था । इसलिए वहां स्वतंत्रता की प्रशंसा ही महत्वपूर्ण थी, लेकिन भारत का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा भी था, जहां स्वतंत्रता की खुशी की तुलना में विभाजन की त्रासदी अधिक प्रभावी थी । हत्याएं और अत्याचार तो एक दूसरे पर हो ही रहे थे, तथा लगभग पूरे क्षेत्र में अविश्वास का वातावरण बन गया था । लगभग सभी लोग दो सांप्रदायिक गुटों में बंट कर चिंतित थे । आज तक यह बात साफ नहीं हो सकी है कि भारत का कितना हिस्सा स्वतंत्रता से प्रसन्न था और कितना विभाजन से पीड़ित । यह बात अब भी आवश्यक रूप से सोचनीय है कि स्वतंत्रता और विभाजन एक साथ क्यो जुड़ गए । क्यों नहीं हम मिल बैठकर इस विषय पर कोई एक निर्णय कर सके ? इन परिस्थितियों पर विचार करते समय मुझे इसी 15 अगस्त को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री की उस घोषणा की याद आ जाती है, जब उन्होंने मनेन्द्रगढ को जिला बनाने की घोषणा की । स्पष्ट है कि वर्षों से मनेन्द्रगढ़ चिरमिरी के लोग एक साथ मिलकर मनेंद्रगढ़ को अलग जिला बनाने की लड़ाई में सक्रिय थे । लेकिन 15 अगस्त को जिला बनने की घोषणा होते ही मनेन्द्रगढ और चिरमिरी के लोग एक दूसरे के शत्रु बन गए । दोनों ही जिले के लोग इस बात के लिए तैयार नहीं है कि मिल बैठकर आपस में कोई सर्व सम्मत निर्णय करे और फिर से सन सैतालिस के विभाजन का इतिहास मनेन्द्रगढ़ चिरमिरी के बीच न दोहराया जाये । हड़ताले होंगी, आंदोलन होंगे, देश का नुकसान होगा और एक दूसरे के बीच उसी तरह की कटुता बढ़ेगी जैसे आमतौर पर हो रहा है ।
विचारणीय यह है कि विभाजन की आवश्यकता क्यों पड़ी और गलती किसकी है ? जब गांधी, सुभाष चंद्र बोस, भगत सिंह तथा अन्य अनेक लोगो के नेतृत्व मे अलग-अलग समूह भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की योजना बना रहे थे, तब अंग्रेज स्वतंत्रता को रोकने के लिए सांप्रदायिक गृह युद्ध की योजना पर कार्यरत थे । उन्होंने अपनी योजना के क्रियान्वयन के लिए मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा की पीठ थपथपाई । अन्य लोग स्वतंत्रता संघर्ष के लिए सक्रिय थे तो मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा भारत विभाजन की पृष्ठभूमि तैयार कर रहे थे । मुसलमान तो हमेशा ही संगठित होता हैं इसलिये सांप्रदायिक आवाज उठते ही वह इकट्ठा हो गया, लेकिन हिंदू तबका सावरकर के साथ पूरी तरह इकट्ठा नही हुआ । परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजों की चाल असफल हो गई, लेकिन उसके बदले में भारत को विभाजन की त्रासदी झेलनी पडी । आज भी हम देख रहे हैं कि भारत स्वतंत्रता के सुख का जितना लाभ उठा रहा है उतना ही नुकसान उसे विभाजन का भी उठाना पड़ रहा है । स्पष्ट है कि स्वतंत्रता और विभाजन का एक साथ होना लाभ-हानि के आकलन में बहुत विरोधाभास पैदा करता है ।
हमने विभाजन के कष्ट देखे भी है और सुने भी हैं । लगभग हर भारतीय विभाजन को गलत मानता है । लेकिन विचारणीय यह है कि हम इन ऐतिहासिक घटनाओं से भविष्य के लिए क्या सीख रहे हैं ? स्वतंत्रता और विभाजन को अब 75 वर्ष बीत गए हैं । अगर हम भारत की वर्तमान स्थिति की तुलना करें तो यह भय पैदा होने लगता है कि कहीं हम फिर से उसी विभाजन की पटकथा तो नहीं लिखते जा रहे हैं जो स्वतंत्रता के पूर्व भारत की संप्रदायिक शक्तियां लगातार लिख रही थी । उस समय भी भारत विभाजन की पहल मुसलमानों की ओर से की गई थी जिसके विरुद्ध कोई सर्व सम्मत योजना नहीं बनी । एक गुट मुसलमानों को संतुष्ट रखकर विभाजन टालना चाहता था तो दूसरा गुट मुसलमानों को दबाकर विभाजन रोकना चाहता था । अधिकांश मुसलमान तो पूरी तरह विभाजन के पक्ष में एकजुट हुआ, किन्तु विभाजन विरोधी ताकतें विभाजन तक कभी एकजुट नहीं हुई । यदि हम आज की परिस्थिति देखें तो आज भी सांप्रदायिक मुसलमान लगभग उसी तरह सांप्रदायिक आधार पर एकजुट हो रहा है और देश की शक्तियां इस संप्रदायिकता एकजुटता के विरूद्ध उसी तरह विभाजित हैं जिस तरह स्वतंत्रता के पूर्व थी । अर्थात एक गुट मुस्लिम संप्रदायिकता को संतुष्ट करने का पक्षधर हैं तो दूसरा गुट संप्रदायिकता को कुचल देना चाहता है । क्या फिर से भारत में विभाजन की नई परिस्थितियां नहीं बनाई जा रही हैं ? हम इस सम्बन्ध में मिल जुलकर कर कोई एक नीति क्यों नहीं बना रहे है ?
मैने संप्रदायिकता पर गंभीरता से विचार किया । यह बात सैद्धान्तिक रूप से सत्य है कि सांप्रदायिकता को सिर्फ कुचला ही जा सकता है संतुष्ट नहीं किया जा सकता । लेकिन दूसरी बात यह भी सही है कि वर्तमान भारत के वातावरण में मुस्लिम सांप्रदायिकता को सिर्फ डंडे के जोर से नहीं दबाया जा सकता है । इस सांप्रदायिकता को यदि स्वतंत्रता के बाद तत्काल ही रोका गया होता तो तब कुछ संभावना थी कि हम इसे फिर से सिर नही उठाने देते, लेकिन हिंदू सांप्रदायिकता ने गांधी हत्या और मुस्लिम सांप्रदायिकता को पंडित नेहरू का सांप्रदायिक समर्थन मिल जाने से फिर से भारत उसी सांप्रदायिक राह पर तेजी से चलने लगा, जिस दिशा में वह विभाजन के पूर्व चल रहा था । फिर से नेहरू का संरक्षण पाकर मुस्लिम सांप्रदायिक तत्व एकजुट होते चले गए तो दूसरी और सांप्रदायिकता विरोधी शक्तियां आजतक तय नहीं कर पायी कि अल्पसंख्यक तुष्टीकरण का मार्ग अच्छा है अथवा अन्य अल्पसंख्यक प्रकार साम्प्रदायिकता को कुचल देने का बीच का । मार्ग समान नागरिक संहिता के रूप में ही हो सकता था किंतु दोनों सांप्रदायिक शक्तियां इस मार्ग पर सहमत नहीं है । एक गुट पूरी ताकत लगा कर मुस्लिम सांप्रदायिकता को संतुष्ट करना चाहता है तो दूसरा गुट हिन्दू राष्ट्र की आवाज उठाकर मुस्लिम सांप्रदायिकता को कुचलने का प्रयत्न करता है । मेरी समझ में यह नहीं आ रहा है कि हमने विभाजन की त्रासदी से हमने क्या सीखा ?
तत्काल मे हम अफगानिस्तान में मुस्लिम सांप्रदायिकता का नंगा नाच भी देख रहे हैं, जो लोग कहते हैं कि मुसलमान हमेशा एकजुट रहते है उन सब ने अफगानिस्तान में देखा था और देख रहे हैं कि मुसलमान कभी एकजुट हो ही नहीं सकते हैं । अफगानिस्तान में तो पूरा संघर्ष मुसलमानों के बीच ही है । ऐसा टकराव सिर्फ अफगानिस्तान में ही नहीं है बल्कि दुनियां के अन्य मुस्लिम देशों में भी यही हाल है कि मुसलमान कभी एकजुट हो ही नहीं सकता । इसका अर्थ यह है कि जब भी हम कोई साफ नीति न बनाकर ढुलमुल नीति बनाते हैं तभी संप्रदायिकता मजबूत होती है । मैंने लिखा था कि बुद्धि का काम डंडे से नहीं हो सकता । मेरा इशारा यह था कि यदि आप सिर्फ डंडे का प्रयोग करेंगे तो मुसलमान एक जुट होता जाएगा और यदि आप भेद नीति का उपयोग करेंगे तो वह कभी एकजुट नहीं हो सकता । अफगानिस्तान घटना के समय हम स्पष्ट देख रहे है कि अफगानिस्तान का मुस्लिम बहुमत तालिबान के खिलाफ है और भारत का मुस्लिम बहुमत तालिबान के पक्ष मे । स्पष्ट है कि बुद्धि का काम सिर्फ डंडे से नही हो सकता है । हमें भारत की वर्तमान परिस्थितियों का भी आकलन करते हुए विभाजन को रोकने के उद्देश्य से बुद्धि का उपयोग करना चाहिए ।
भारत की स्वतंत्रता को अब गुलामी का कोई खतरा नहीं है । हमारी सेनाएं भी पर्याप्त सक्षम है और आर्थिक स्थिति भी ठीक है । हमें इस संबंध में सरकार पर हमेशा भरोसा करना चाहिए । सांप्रदायिकता के मामले में वर्तमान मोदी सरकार की दिशा बिल्कुल ठीक है, हमें इस संबंध में सरकार पर भरोसा करना चाहिए कि जिस तरह कश्मीर को शांत किया गया है और जिस तरह धीरे-धीरे देश नागरिक संहिता की दिशा में बढ़ रहा है वह हमारे लिए संतोष का आधार है । नेहरू वादी अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीतियां भी लगातार कमजोर होती जा रही हैं । लेकिन स्थानीय स्तर पर तथा व्यक्तिगत स्तर पर हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है । स्थानीय स्तर पर हमें अपनी प्राथमिकताओं को इस दिशा में बढाना चाहिए कि हमारे आसपास जो मुसलमान हैं वे समान नागरिक संहिता का समर्थन करें, समाज को धर्म से ऊपर माने एवं अपनी धार्मिक गतिविधियों तक सीमित रह कर संगठनात्मक गतिविधियों से पूरी तरह दूरी बनाये, उनके साथ हमारा स्थानीय स्तर पर बहुत ही अच्छा संबंध होना चाहिए । यदि हम ऐसे लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे तो अवश्य ही हम साम्प्रदायिकता को रोकने में सफल होंगे । लेकिन हमें प्रेम पूर्वक व्यवहार करते हुए यह भी सावधानी रखनी चाहिए कि दुनियां भर के आम मुसलमानों की यह कमजोरी है कि वह संप्रदायिकता की आवाज उठते ही तुरंत इकट्ठे हो जाते हैं और यदि ऐसी आवाज के साथ हिंसा भी जुड़ी हो तब तो वह अपने को बिल्कुल भी रोक नहीं पाते हैं । यदि इन दोनों स्थितियों के साथ ही सांप्रदायिक और हिंसक शक्ति मजबूत स्थिति में हो तो मुसलमान का सारे संबंध तोड़ कर उसके साथ हो जाना लगभग निश्चित होता है इसलिए हमें ऐसी परिस्थितियां होते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर सावधान जरूर रहना चाहिए तथा हमें दो बातें याद रखनी चाहिए कि सांप्रदायिकता को सिर्फ कुचला ही जा सकता है, इसे कभी संतुष्ट किया नहीं जा सकता और सांप्रदायिकता से बचाव का सबसे अच्छा मार्ग बुद्धि का प्रयोग है डंडे का उपयोग नहीं ।
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