क्या कोई अमीरी रेखा भी बननी चाहिये ?
व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं 1 शरीफ 2 अपराधी । शरीफ को प्राचीनकाल मे देव तथा अपराधियों को राक्षस कहा जाता था । वर्तमान समय मे इन्ही दोनो को सामाजिक तथा समाज विरोधी कहा जाता है । सामाजिक व्यक्ति को समाज का अंग और समाज विरोधी को समाज बहिष्कृत माना जाता है । इन दोनो के बीच भी एक वर्ग होता है, जो पूरी तरह किसी परिभाषा मे नही होता, उसे असामाजिक कहा जाता है । इस तरह असामाजिक और समाज विरोधी बिल्कुल अलग-अलग होते है जिन्हे आम तौर पर एक समझने की गलती हो जाया करती है ।
व्यक्ति को तीन प्रकार के अधिकार होते है । 1 मौलिक 2 संवैधानिक 3 सामाजिक । मौलिक अधिकार प्रकृति प्रदत होते है, जिनमे राज्य अथवा समाज आपराधिक क्रिया के अतिरिक्त कभी कोई कटौती नहीं कर सकता । संवैधानिक अधिकार राज्य व्यवस्था द्वारा कभी भी दिये भी जा सकते है और लिये भी जा सकते है । सामाजिक अधिकार व्यक्ति को समाज द्वारा दिये जाते है तथा कभी भी समाज द्वारा लिये भी जा सकते है । इसी तरह व्यक्ति की भी सीमाएं है । किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति के मौलिक अधिकारो पर आक्रमण अपराध, संवैधानिक अधिकारो का अतिक्रमण गैर कानूनी तथा सामाजिक अधिकारो की अन्देखी अनैतिक कार्य माना जाता है । भारत के संविधान निर्माताओं मे इन अधिकारो का ठीक-ठीक वर्गीकरण तथा विष्लेषण करने की क्षमता का अभाव ही आज पैदा अनेक समस्याओं का कारण है । दुर्भाग्य से आज भी हमारे मार्ग दर्शक इस वर्गीकरण को ठीक से नही समझ पा रहे । मौलिक अधिकारों की सुरक्षा राज्य का दायित्व होता है, कानूनी मार्ग नहीं जबकि संवैधानिक अधिकार देना राज्य का संवैधानकि कर्तव्य होता है, दायित्व नहीं । सामाजिक अधिकार देने या न देने मे राज्य कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता । सिर्फ सलाह तक दे सकता है या स्वैच्छिक कर्तव्य मानकर सहायक हो सकता है । किसी भूख से मरने वाले को मरने से बचाना राज्य का संवैधानिक कर्तव्य मात्र होता है दायित्व नहीं । इसी तरह आत्महत्या को रोकना भी राज्य का दायित्व नही होता । किन्तु किसी की हत्या या दुर्धटना मृत्यु मे यथासंभव सुरक्षा देना राज्य का दायित्व होता है । दायित्व और कर्तव्य मे यह अन्तर होता है कि दायित्व के लिये आप बाध्य होते है और दायित्व पूरा न करने पर पीडित पक्ष आपकी व्यवस्था के विरूद्ध समाज तथा न्यायालय तक जाकर आपको वैसा करने को मजबूर कर सकता है । जबकि संवैधानिक या सामाजिक अधिकारो की पूर्ति मे व्यक्ति या न्यायालय संवैधानिक व्यवस्था को मजबूर नही कर सकता । वर्तमान स्थिति इतनी विचित्र है कि हमारी न्यायपालिका के सर्वोच्च लोग भी दायित्व और कर्तव्य के बीच फर्क नही समझ पाते । उन्हे तो सिर्फ किताबी शिक्षा की सीमा तक बंधे रहने के कारण कभी-कभी मौलिक, संवैधानिक और सामाजिक अधिकारो तक का अंतर समझ मे नही आता ।
आर्थिक विषमता कम करना तथा गरीबी हटाना राज्य का कर्तव्य मात्र होता है, दायित्व नहीं जबकि आम तौर पर इस कार्य को दायित्व कहकर प्रचारित किया जाता है और कभी-कभी तो इसे राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता तक कह दिया जाता हैं जबकि व्यक्ति के मौलिक अधिकारो की सुरक्षा राज्य की सर्वोच्च प्राथमिकता होती है । यदि वर्तमान समय का आकलन करें तो सुरक्षा और न्याय जैसे दायित्व पूरे करने मे राज्य पूरी तरह असफल है और अपनी असफलता को छिपाने के लिये आर्थिक असमानता दूर करने को पहली प्राथमिकता घोषित करके समाज को धोखा देने की कोशिश करता है । राज्य का विश्व स्तर का भी और खास कर भारत की राज्य व्यवस्था का भी यही चरित्र रहा है कि वह पहले समस्याओ को पैदा करती है और बाद मे उक्त समस्या के समाधान की पहल करती है । स्पष्ट है कि भारत मे आर्थिक विषमता स्वतंत्रता के बाद की गलत नीतियों का परिणाम है जो अर्थनीति मे सुधार मात्र से कम हो सकती है, किसी प्रशासनिक कानून से नहीं । राज्य का सैद्धान्तिक स्वरूप यह होता है कि उसे सामाजिक समस्याओ का सामाजिक, प्रशासनिक का प्रशासनिक तथा आर्थिक का आर्थिक सीमाओ मे रहकर ही समाधान खोजना चाहिये किन्तु सत्ता के केन्द्रीयकरण के भूखे राजनेता तथा उनके सहयोगी प्रशासनिक समस्याओ का आर्थिक तथा आर्थिक समस्याओ का प्रशासनिक समाधान खोने का प्रयास करते हैं । आज भारत मे ऐसे लोगो की कमी नही जो नक्सलवाद का समाधान आर्थिक विकास और आर्थिक समस्याओ का समाधान छीनकर बांटने जैसी प्रशासनिक समस्या से करना चाहते हैं । एक भी राजनेता कभी भूलकर भी यह नही कहता कि सत्ता का सीमा रहित केन्द्रीयकरण घातक है । इसके विपरीत हर नेता पहली प्राथमिकता मे आर्थिक विषयों की ही चर्चा करता है । क्योकि इस चर्चा मे उसे अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता के केन्द्रीयकरण की उम्मीद छिपी रहती है । वर्तमान के सभी राजनेता तो ऐसा प्रयत्न करते ही रहते है किन्तु डाक्टर राम मनोहर लोहिया तक ने भी आर्थिक समस्याओ के समाधान के लिये राज्य को अधिक शक्तिसम्पन्न होने की आवश्यकता बनाने की पहल की थी । इंदिरा जी ने तानाशाह बनने के लिये ही गरीबी हटाओ और राष्ट्रीयकरण जैसे नारे उछाले थे । आज भी हर नेता, चाहे वह बिल्कुल सड़क छाप ही क्यो न हो, आर्थिक समस्याओ के प्रशासनिक समाधान की बात करता है ।
व्यक्ति की भौतिक आवश्यकताओ की पूर्ति के तीन माध्यम है । 1 श्रम 2 बुद्धि 3 धन । श्रम और बुद्धि के परिणाम का परिवर्तित स्वरूप ही धन होता है तथा धन का परिवर्तित स्वरूप सम्पत्ति होती है । श्रम या बुद्धि के परिणाम को किसी अन्य माध्यम से संचित नही किया जा सकता, जबकि वृद्धावस्था अथवा विशेष काल के लिये धन संचय की आवश्यकता होती है । श्रम की उत्पादन क्षमता बहुत कम होती है जबकि बुद्धि की श्रम की अपेक्षा कई गुना ज्यादा । बुद्धि के साथ संग्रहित धन भी जुड़ जाता है, तब इन दोनो की उत्पादन क्षमता असीम हो जाती है । वैसे भी श्रम प्रधान, बुद्धि प्रधान और धन प्रधान की उत्पादन क्षमता मे स्वाभाविक रूप से भी बहुत फर्क होता है । श्रम प्रधान व्यक्ति के पास मुख्य रूप से श्रम ही प्रमुख माध्यम होता है जबकि बुद्धि प्रधान के पास श्रम भी रहता है तथा बुद्धि भी और धन प्रधान के पास धन, बुद्धि और श्रम तीनो एक साथ सहायक हो जाते हैं । यही कारण है कि तीनों की उत्पादन क्षमता अलग-अलग होती है । वैसे ही श्रमजीवी प्राकृतिक रूप से धन के मामले मे बहुत कमजोर और सहायता का पात्र होता है किन्तु जब बुद्धि प्रधान तथा धन प्रधान लोग श्रम शोषण के उददेष्य से श्रम के साथ छल करने लगें तब विकट स्थिति उत्पन्न हो जाती है । देश की सम्पूर्ण राजनैतिक आर्थिक व्यवस्था में श्रमजीवियों का प्रतिनिधित्व शून्य होता है । यदि कोई ग्रामीण श्रमजीवी राजनीति मे जाने मे सफल हुआ तो चुनाव जीतते ही वह तत्काल बुद्धिजीवी बन जाता है। अब वहां जाकर वह श्रमजीवी बुद्धिजीवीयों पूँजीपतियों के साथ मिलकर श्रमशोषण तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विरूद्ध सोचना शुरू कर देता है । कृत्रिम उर्जा श्रम की प्रतिस्पर्धी तथा बुद्धिजीवी पूँजीपति के विस्तार मे सहायक होती है । सभी बुद्धिजीवी पूँजीपति किसी न किसी रूप मे सस्ती कृत्रिम उर्जा की तिकड़म मे लगे रहते है । ये लोग बडी चालाकी से ग्रामीण उत्पादन कृषि उत्पादन वन उत्पादन तथा श्रम उत्पादनो से भारी मात्रा मे अप्रत्यक्ष कर वसूल कर तथा उन्हे थोड़ी सी प्रत्यक्ष सुविधा देकर उन्हे धोखा देते रहते हैं । बुद्धिजीवियों, पूँजीपतियों को सस्ता श्रम चाहिये और राजनेताओं को आसान वोट । सस्ती कृत्रिम ऊर्जा दोनो को संतुष्ट रखती है । मै आज तक नहीं समझ सका कि गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, छोटे किसानो से बड़ा अप्रत्यक्ष कर वसूल कर उन्हे प्रत्यक्ष सब्सीडी देने जैसे षणयंत्र का पर्दाफाश न करने के पीछे क्या-क्या उद्देश्य छिपा है ? आर्थिक असमानता वृद्धि स्पष्ट रूप से आर्थिक समस्या है । कृत्रिम उर्जा को सस्ता करने से यह असमानता और बढ़ती है । यदि हमारे पास इस आर्थिक समस्या का आर्थिक समाधान है तब गरीबी रेखा और अमीरी रेखा की जरूरत क्या है ? यदि अन्य समाधान नही होता तब सोचा भी जा सकता था । किन्तु आर्थिक समाधान है और आर्थिक समाधान की जगह गरीबी और अमीरी रेखा की चर्चा करने के पीछे भी राजनेताओ का छिपा स्वार्थ है कि वे इसी बहाने और अधिक अधिकार अपने पास समेटना चाहते हैं ।
कुछ लोग इस साम्यवादी विचार का प्रचार करते हैं कि दुनियाँ की संपूर्ण सम्पत्ति मे दुनियाँ के सब लोगो का समान अधिकार हैं । यह बात भारत मे भी जोर-शोर से प्रचारित हो रही है । यदि यह सही होता तो भविष्य मे कोई अधिक काम क्यो करेगा ? क्योकि अधिक या कम काम करने से उसका परिणाम सबके बीच समान बंटेगा तो उत्पादन पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा । यह कैसे संभव है कि अलग-अलग श्रम और बुद्धि रखने वालो का परिणाम सबके बीच समान रूप से बंटे । रूस और चीन इस प्रयोग की असफलता जान चुके है । भारत मे भी आम तौर पर इस साम्यवादी विचार के समर्थन मे इक्के-दुक्के लोग ही आ रहे है तथा उनकी संख्या भी घटती जा रही है । श्रम, बुद्धि और धन की उत्पादन क्षमता कभी समान नहीं हो सकती । रूस, चीन आदि अनेक साम्यवादी देशो ने भरपूर प्रयास किया । यहाँ तक कि तानाशाही तक ला दी । बड़ी संख्या मे बुद्धिजीवियों की हत्या कर दी गई । किन्तु इन देशो मे इस प्रयत्न के विपरीत परिणाम हुए । प्रत्येक व्यक्ति की उत्पादक शक्ति प्रतिस्पर्धा से बढ़ जाया करती है । यदि विकास की प्रतिस्पर्धा न हो तो अल्पकाल के लिये भय के सहारे आप काम करा सकते है किन्तु भय का अभाव उत्पादन क्षमता पर बहुत विपरीत प्रभाव डालता है । प्रतिस्पर्धा व्यक्ति को कार्य की क्षमता के साथ-साथ परिणाम भी निश्चित करती जाती है । यह प्रतिस्पर्धा ही उसे और अधिक गति से काम करने की प्रेरणा देती है । गरीबी या अमीरी रेखा ऐसी प्रेरणा को नुकसान पहुंचाती है और ऐसे नुकसान के परिणाम भी घातक होते है ।
दूसरी बात यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की श्रम और बुद्धि की क्षमता भिन्न-भिन्न होती है । इस क्षमता का निर्धारण उसकी जन्म पूर्व की स्थिति, पारिवारिक वातावरण तथा सामाजिक परिवेश को मिलाकर बनती है । पूरी दुनियाँ मे किन्ही दो लोगो की कुल क्षमता कभी एक समान नही होती । आप पांच लोगो को आज आर्थिक रूप से समान कर दीजिये और कल ही जांच करिये तो सब मे आपस मे कुछ न कुछ फर्क हो जाएगा । कोई भी तरीका आज तक नही बन सका जो किन्ही दो को भी बहुत दिनो तक समान रख सकें । यह अंतर स्वाभाविक भी है और सर्वकालिक भी ।
सम्पत्ति के विषय मे सम्पूर्ण विश्व मे तीन प्रकार के विचार हैं 1 पश्चिम का जहाँ सम्पत्ति व्यक्ति की व्यक्तिगत होती है । यहाँ तक कि व्यक्ति परिवार का सदस्य रहते हुए भी पृथक सम्पत्ति रख सकता है । 2 साम्यवाद का जहाँ सम्पूर्ण सम्पत्ति समाज की होती है अर्थात सरकार की होती है । 3 गांधी का ट्रस्टीशिप का सिद्धान्त जो अब तक स्पष्ट रूप से समझ मे नही आया । चौथा सिद्धान्त मैने दिया है जिसमे न सम्पत्ति व्यक्तिगत होगी न सरकार की बल्कि परिवार की होगी जिसमे परिवार से अलग होते समय व्यक्ति बराबर हिस्सा ले सकता है । इस तरह व्यक्तिगत सम्पत्ति से अलग यह सिद्धान्त सोचा गया है । यह विचार सम्पत्ति के व्यक्तिगत अधिकार को समाप्त कर देगा ।
भारत मे सम्पत्ति की अधिकतम सीमा की बात उठाना अव्यावहारिक भी है । भारत को सम्पूर्ण विश्व से पूँजीगत प्रतिस्पर्धा करनी है । आप ऐसी सीमा बनाकर विश्व प्रतिस्पर्धा से अपने पूँजीपतियों को बाहर कर देंगे । साथ ही यह बात भी है कि विदेशी कम्पनियाँ तो भारत मे और भी कई गुना ज्यादा सम्पत्ति लेकर आ रही है । उनके प्रति इस सम्पत्ति सीमा का क्या संबंध होगा ?
सबसे खतरनाक बात यह है कि सम्पत्ति की सीमा भारत के तंत्र को और ज्यादा शक्तिशाली बना देगी । जिस तंत्र के अधिकार क्षेत्र मे सेना है, पुलिस है, न्याय है, उसी तंत्र को सम्पत्ति के भी असीम अधिकार देना घातक होगा ।
फिर भी मै चाहता हूँ कि सांप भी मरे और लाठी भी न टूटे । न सरकार की प्रशासनिक शक्ति बढ़े न बेलगाम सम्पत्ति बढ़े । मै किसी प्रकार की अमीरी रेखा को अव्यवहारिक तथा घातक मानता हूँ । मेरा तो मानना यह है कि किसी प्रकार की गरीबी रेखा से भी बचा जाए । कृत्रिम उर्जा की बहुत भारी मूल्य वृद्धि करके निचली आधी आबादी को दो हजार रूपया प्रतिमाह प्रति व्यक्ति की तब तक सहायता दे दी जाए जब तक आर्थिक असमानता नियंत्रित न हो जाये, तो एक ही प्रयास से सभी आर्थिक समस्याओ का समाधान हो सकता । साथ ही अनेक कर समाप्त करके सम्पूर्ण सम्पत्ति पर सिर्फ उस दर से कर लगा दिया जाय जितना सरकार को न्याय सुरक्षा जैसे दायित्व पूरा करने के लिये आवश्यक हो ।
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