पुलिस और न्याय व्यवस्था की समीक्षा
कुछ मान्य सिद्धान्त हैंः-
- राज्य का एकमात्र दायित्व होता है सुरक्षा और न्याय । अन्य जनकल्याणकारी कार्य उसके स्वैच्छिक कर्तव्य होते हैं ।
- लोकतंत्र में राज्य, न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के सम्मिलित प्रयास के आधार पर कार्य करता है । तीनों एकाइयाँ एक दूसरे की पूरक भी होती हैं और नियंत्रक भी ।
- राज्य की तीनों इकाइयों को समान अधिकार प्राप्त होते हैं । न्यायपालिका को सिर्फ एक अतिरिक्त अधिकार होता है कि यदि व्यक्ति की स्वतंत्रता के विरूद्ध कोई संविधान संशोधन होता है तो न्यायपालिका ऐसे संविधान संशोधन को रद्द कर सकती है ।
- वर्तमान समय में न्यायपालिका अपनी सीमाएं भूल गई है और वह अनावश्यक रूप से कार्यपालिक या विधायी आदेश भी दे रही है ।
पुलिस और न्यायपालिका अलग-अलग होते हुये भी अपराध नियंत्रण में एक दूसरे के सहायक होते हैं । अपराध नियंत्रण सभी इकाईयों का सम्मिलित लक्ष्य होता है । कोई भी अपराध होता है तो पुलिस उसकी जाँच करती है और न्यायालय उस जाँच का परीक्षण करके तथ्य तक पहुँचता है । इस तरह दोनों का उद्देश्य समान है । पुलिस की अपनी सीमाएं हैं । पुलिस बिना न्यायालय में प्रस्तुत किये किसी व्यक्ति को दण्ड नहीं दे सकती । न्यायालय भी बिना न्यायिक प्रक्रिया पूरी हुये किसी को दण्ड नहीं दे सकता । ’’न्याय क्या है?’’-इसे विधायिका परिभाषित करती है । विधायिका की उक्त परिभाषा के आधार पर न्यायालय परीक्षण करके निर्णय देता है। कार्यपालिका न्यायालय के निर्णय के अनुसार दण्ड देती है । न्यायपालिका न्याय नहीं कर सकती क्योंकि वह तो कानून के अनुसार न्याय करने के लिये बाध्य है । यह अलग बात है कि वर्तमान समय में न्यायपालिका अपनी सीमाएं नहीं समझ रहा । जब तक संविधान का कोई अनुच्छेद किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करे तब तक न्यायपालिका संविधान संशोधन में हस्तक्षेप नहीं कर सकती । इसके अतिरिक्त यदि सरकार संविधान के विपरीत कोई कानून, किसी कानून के विपरीत कोई आदेश अथवा किसी आदेश के विपरीत कोई क्रिया करती है तो न्यायपालिका उसे विधि विरूद्ध बताकर ऐसी क्रिया को रोक सकती है । इन सबके अतिरिक्त न्यायपालिका को प्रशासनिक मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये ।
पुलिस का यह दायित्व है कि वह सुरक्षा व्यवस्था इस तरह बनाकर रखे कि अपराधियों के मन में अपराध से भय बना रहे । पुलिस का काम कानून के प्रति भय बनाये रखना होता है । पुलिस को भी भय बनाये रखने के लिये कानून के विरूद्ध कोई कार्य नहीं करना चाहिये किन्तु वर्तमान में पुलिस आमतौर पर ऐसा करती है । विचारणीय प्रश्न यह है कि इस अव्यवस्था में न्यायपालिका कितनी दोषी हैं, विधायिका कितनी और पुलिस कितनी ? यदि हम निष्पक्ष समीक्षा करें तो विधायिका कार्यपालिका में बहुत अधिक हस्तक्षेप कर रही है । पुलिस के लोग भी भ्रष्टाचार के माध्यम से नौकरी में भर्ती हो रहे हैं और स्वाभाविक है कि पुलिस में भी भ्रष्टाचार व्याप्त रहेगा ही । एक बात और है कि न्यायपालिका भी अभी स्वयं को अपराध नियंत्रण में पुलिस को सहायक न मानकर अपराधी और पुलिस के बीच पुलिस को एक स्वतंत्र पक्षकार के रूप में मानती है । इस मान्यता में कुछ कानून का दोष है तो कुछ न्यायपालिका का । कानून यह मानता है कि अपराध सिद्धि का दायित्व पुलिस पर है न कि अपराधी पर । कानून के अनुसार जबतक न्यायपालिका किसी को अपराधी सिद्ध न कर दे तब तक वह निरपराध है । कानून की यह धारणा गलत है । कोई व्यक्ति यदि पुलिस की जाँच में अपराधी सिद्ध हो जाये तो उसे निरपराध न मानकर संदिग्ध अपराधी माना जाना चाहिेये । साथ ही, उस संदिग्ध का यह दायित्व होना चाहिये कि वह न्यायालय में स्वयं को निर्दोष सिद्ध करे । लेकिन कानून की इस कमी का अपराधी लाभ उठाते है । न्यायपालिका से जुड़े लोग पुलिस को अपना सहायक नहीं मानते और न्यायालय में पुलिसवालों को बहुत हेय दृष्टि से देखते है । न्यायाधीशों का व्यवहार भी पुलिसवालों के प्रति बहुत अपमानजनक होता है । इस तरह न्यायपालिका और पुलिस के बीच सहयोग का विस्तार कमजोर पड़ जाता है । न्यायालय अपने न्यायालय में स्वयं का व्यवहार बिल्ली और पुलिसवालें को चूहे के समान मानता है ।
एक पक्ष और विचारणीय है कि चाहे कानून में कमी हो अथवा न्यायिक प्रक्रिया में किन्तु अपराधों में सजा का प्रतिशत बहुत ही कम हो गया है । अपराधियों का न्यायालय पर बहुत विश्वास बढ़ गया है और पुलिस से डरते हैं । पुलिस का यह सामान्य दायित्व होता है कि अपराध नियंत्रण में रहे। जब कोई अपराधी बार-बार अपराध करने के बाद भी न्यायालय से दण्डित न होकर निर्दोष सिद्ध हो जाता है तब पुलिस के सामने कानून व्यवस्था को बनाये रखने का एक संकट खड़ा हो जाता है । ऐसी परिस्थिति में पुलिस के लोग कई बार अपराधियों को पकड़कर बिना न्यायालय में प्रस्तुत किये गैर कानूनी तरीके से दण्ड दे देते है । साधारण अपराधों में ऐसा दण्ड साधारण मारपीट तक सीमित होता है और गम्भीर अपराधों में पुलिस बिना मुकदमा चलाये गोली भी मार देती है । स्वाभाविक है कि ऐसी परिस्थिति में पुलिस की प्रशंसा होती है और कानून के ज्ञाता पुलिस की आलोचना करते हैं । आमतौर पर मीडिया के लोग, मानवाधिकारी अथवा कुछ समाजसेवी पुलिस के खिलाफ न्यायालय तक भी दौड़ लगाते हैं । ऐसी परिस्थिति में न्यायालय भी बहुत अधिक सक्रिय हो जाता है । जो न्यायालय किसी अपराधी को दण्ड देने के पहले सौ बार सोचता है वही न्यायालय पुलिस वालों को दण्डित करने में एक बार भी नहीं सोचता है । कानून के अनुसार यदि किसी हत्या में हत्या करने वाले का कोई उद्देश्य नहीं छिपा है तो उसे 304 में भूल मानकर दण्डित किया जाता है । स्पष्ट है कि यदि किसी पुलिस वाले ने किसी व्यक्तिगत उद्देश्य से किसी की हत्या कर दी है तो उसे हत्या के आरोप में दण्डित होना चाहिये लेकिन यदि किसी पुलिस वाले ने जनहित में किसी की हत्या कर दी है तो उसे धारा 304 में दण्डित होना चाहिये । क्योंकि पुलिस वाले का कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं था । मैं देखता हूँ कि न्यायपालिका ऐेसे मामलों में बहुत आगे आकर इस प्रकार पुलिस का मनोबल तोड़ती है कि उसकी अपनी छवि पर कोई दाग न लगे, भले ही पुलिस का मनोबल कितना भी टूट जाये ।
मैं स्पष्ट रूप से यह नहीं कह सकता कि वर्तमान समय में अपराधों की आई हुई बाढ़ में न्यायपालिका कितनी दोषी है, विधायिका कितनी और पुलिस कितनी?, किन्तु मुझे ऐसा महसूस होता है कि पुलिस की तुलना में विधायिका और न्यायपालिका इस मामलें में अधिक दोषी हैं । विधायिका नये-नये अनावश्यक कानून बनाकर न्यायपालिका और पुलिस को ओवर लोडेड किये रहती है । न्यायपालिका भी जनहित के नाम पर अपने को और अधिक बोझिल बना लेती है । परिणाम होता है कि सुरक्षा और न्याय कमजोर होते जाते हैं । पुलिस की जाँच भी कमजोर होती है । पुलिस गवाहों को सुरक्षा भी नहीं दे पाती । पुलिस को भ्रष्टाचार भी करना पड़ता है । न्यायपालिका अपराधियों को निर्दोष घोषित करके अपनी छवि बचा लेती है या 20-20 साल तक मुकदमों का फैसला ही नहीं करते और किसी भी प्रकार का संकट आने पर एक तरफ न्यायपालिका तो दूसरी तरफ विधायिका सारा दोष पुलिस विभाग पर डाल देते हैं । यह स्थिति चिंतनीय है । हमारा कर्तव्य है कि हम कानून व्यवस्था की वर्ममान दुर्गति के लिये लोकतंत्र की तीनों इकाइयों की अलग-अलग समीक्षा करें ।
स्पष्ट दिखता है कि यदि हम एक माह के लिये न्यायालय या विधायिका का काम रोक दें तो उतनी क्षति नहीं होगी जितनी एक घंटे के लिये पुलिस को हटा लेने से संभव है । इतना सबकुछ समझते हुये भी सबसे अधिक आलोचना पुलिस की होती है क्योंकि पुलिस किसी प्रशासनिक अनुशासन से बंधी होती है जबकि न्यायपालिका पूरी तरह स्वतंत्र । विधायिका की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती । इसलिये और भी अधिक आवश्यक है कि न्यायपालिका जनहित में न्यायालय पुलिस संबंधों पर स्वः प्रेरित चिन्तन करे ।
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