चरित्र पतन का कारण व्यक्ति या व्यवस्था

किसी भी व्यक्ति के चरित्र निर्माण मे उसके जन्म पूर्व के संस्कारो का महत्व होता है । साथ ही पारिवारिक वातावरण और सामाजिक परिवेश भी महत्व रखते है । सामाजिक परिवेश को ही समाजिक व्यवस्था का नाम दिया जाता है जिसमे पारिवारिक व्यवस्था भी शामिल होती है । बहुत प्राचीन समय मे व्यक्ति के गुण और स्वभाव के आधार पर परीक्षाए लेकर उनके वर्ण निर्धारित करने की प्रक्रिया बताई जाती है और वर्ण के आधार पर उनका कर्म के अनुसार  विभाजन करके जातियां बनती थी । इसका अर्थ हुआ कि व्यक्ति महत्वपूर्ण न होकर चरित्र निर्माण मे व्यवस्था महत्वपूर्ण होती थी । बाद मे धीरे-धीरे व्यवस्था टूटने लगी और व्यक्ति महत्वपूर्ण होने लगे । राजा का बेटा ही राजा और विद्वान का बेटा ही विद्वान घोषित  होगा, चाहे उसके संस्कार कैसे भी हो, चाहे उसकी योग्यता कुछ भी क्यो न हो । परिवार का मुखिया भी मां के गर्भ से बनने लगा । इस सामाजिक विकृति के कारण अनेक प्रकर की समस्याएं पैदा हुईं ।

         जब कोई व्यक्ति व्यवस्था का निर्माता और संचालक साथ- साथ होता है उसे तानाशाही कहते है । जब अलग-अलग व्यक्ति व्यवस्था के निर्माता और संचालक होते है उसे लोकतंत्र कहते है । किन्तु जब किसी व्यवस्था से प्रभावित सभी लोग मिलकर व्यवस्था बनाते है और उस व्यवस्था के अनुसार सब लोग काम करते है, उस व्यवस्था को लोक स्वराज्य कहते है । पश्चिम के देशो मे लोक स्वराज्य और लोकतंत्र के बीच की राजनैतिक तथा पारिवारिक व्यवस्था काम करती है । भारत सहित दक्षिण एशिया के अधिकांश देशो मे लोकतंत्र और तानाशाही के बीच की राजनैतिक व्यवस्था  काम करती है । अधिकांश मुस्लिम और साम्यवादी देशो मे व्यवस्था  लगभग पूरी तरह तानाशाही की ओर झुकी रहती है । भारत मे परिवारो की आंतरिक व्यवस्था मे भी तानाशाही का ही प्रभाव प्रमुख होता है । इसका अर्थ हुआ कि व्यवस्था से व्यक्ति नही चलता बल्कि व्यक्ति के अनुसार व्यवस्था चलती है । व्यक्ति के अनुसार व्यवस्था परिवारो मे भी है धार्मिक व्यवस्था मे भी है, राजनैतिक व्यवस्था मे भी है, तथा सामाजिक व्यवस्था भी इससे भिन्न नही है ।

      व्यक्ति दो प्रकार के होते है । 1 अच्छे 2 बुरे ।  आज तक दुनिया मे ऐसा कोई भौतिक मापदंड नही बना जिसके आधार पर किसी व्यक्ति को अंतिम रूप से अच्छा या बुरा मान लिया जाये ।  इसका अर्थ हुआ कि यदि व्यक्ति ही व्यवस्था बनाने का काम करेगा तो व्यवस्था के अच्छे या बुरे होने की संभावनाए पचास-पचास प्रतिशत ही होगी । क्योकि व्यवस्था बनाने वाला अच्छा आदमी होगा, इसका कोई पैमाना नही है । ऐसी अच्छी-बुरी व्यवस्था मे जीने के लिये व्यक्ति समूह मजबूर होगा । इसलिये सारी दुनियां मे लगातार नैतिक पतन हो रहा है । धूर्त लोग व्यवस्था बनाने मे आगे आ जाते है । आप विचार करिये कि हजारो वर्षो से स्वामी विवेकानंद, दयानंद, चाणक्य आदि अनेक महापूरूष सामाजिक व्यवस्था बनाते रहे । आज भी अनेक महापूरूष निरंतर सामाजिक व्यवस्था बनाने मे संलग्न हैं । राजनेता भी लगातार व्यवस्था बनाते रहे है और बना रहे हैं । स्वतंत्रता के तत्काल बाद की राजनैतिक व्यवस्था मे आज की अपेक्षा कई गुना चरित्रवान लोग थे । इन सब प्रयत्नो के बाद भी व्यक्ति का चरित्र नीचे जा रहा है । यहां तक कि चरित्र निर्माण करने वाले महत्वपूर्ण लोगो का भी चरित्र का स्तर गिर रहा है । स्वाभाविक है कि यदि चरित्र निर्माण का कार्य व्यवस्था की अपेक्षा व्यक्ति करेगा तो चरित्र पतन का खतरा निरंतर बना ही रहेगा । यदि व्यक्ति चरित्र निर्माण की भूमिका मे रहेगा तो ऐसा क्या तरीका हो सकता है कि किसी अच्छे व्यक्ति को चुनकर यह दायित्व सौपा जाये? आवश्यक है  कि ऐसे व्यक्ति को चुनने वाला व्यक्ति चुने जाने वाले से अधिक चरित्रवान होना चाहिये । किन्तु दुनियाँ मे ऐसा कोई तरीका न तो आज तक बन सका है न ही बन सकेगा कि सर्वोच्च चरित्रवान को चरित्र निर्माण तथा व्यवस्था बनाने के लिये किसी तरीके से चुना जाये । स्पष्ट है कि अन्ना हजारे , जय प्रकाश नारायण अथवा गांधी ने भी चरित्रवान व्यक्ति को व्यवस्था मे भेजने की वकालत की है किन्तु ये उनके व्यक्तिगत संस्कार हो सकते हैं,   उचित मार्ग नही । किसी भी चुनाव द्वारा राजनैतिक प्रणाली मे अच्छे व्यक्ति को चुनकर भेजने की बात पूरी तरह गलत है । न तो कोई अच्छा  व्यक्ति कभी चुना जा सकता है न ही उसका अच्छा रहना निश्चित है, तब इस अच्छे व्यक्ति को चुनने की सलाह को मृगतृष्णा से अधिक और कुछ कैसे समझा जाये । मै तो अच्छी तरह समझ चुका हॅू कि चुनाव प्रणाली मे सुधार और अच्छे लोगो को चुनने की बाते अनर्गल प्रलाप के अतिरिक्त कुछ नही है ।

                तंत्र से जुडे लोगो की संख्या भी सीमित होती है और शक्ति भी । यदि किसी देश मे बन चुके कानूनो की संख्या दो प्रतिशत से अधिक आबादी को प्रभावित करती है तो उक्त कानून को लागु करना कठिन होता है । ऐसे कानून समाज मे भ्रष्टाचार और चरित्र पतन के कारण बनते है । वर्तमान समय मे भारत मे निन्यानवे प्रतिशत लोग कानूनो से प्रभावित है । प्रत्येक व्यक्ति सैकडो कानूनो से प्रभावित होता है । भारत मे चरित्र पतन का मुख्य कारण कानूनो की बेशुमार संख्या है । 

           कल्पना करिये की एक ट्रेन मे यात्रा के लिये आप टिकट के लिये लाइन मे खड़े है । दुसरे लोग धक्का देकर या  भ्रष्टाचार द्वारा टिकट पहले ले लेते है और आप वही के वही खड़े है । मन मे तीन तरह के सवाल उठते है । 1 क्या मै वही खड़ा रहूँ और अपनी बारी का इंतजार करता रहूं । 2 क्या मै भी अन्य लोगो की तरह धक्के देकर या भ्रष्टाचार से टिकट प्राप्त कर लूँ । 3 क्या मै धक्का देने वालो को बल पूर्वक आगे बढ्ने से रोकने का प्रयास करू । आज तक यह निर्णय नही हो सका कि कौन सा कार्य ठीक है । जो लोग चरित्र निर्माण को व्यवस्था से भी अधिक महत्वपूर्ण मानते है उन्हे उत्तर देना चाहिये कि तीनो मे से कौन सा मार्ग उचित है । मेरे विचार से सिर्फ चौथा मार्ग उचित है और वह है व्यवस्था परिवर्तन । व्यवस्था व्यक्ति की नही होगी बल्कि सामूहिक होगी । सामूहिक व्यवस्था से ही व्यक्ति अपनी सीमाओ मे चलने के लिये मजबूर होगा और यदि नही होगा तो व्यवस्था द्वारा मजबूर कर दिया जायेगा । 

             कल्पना करिये कि मुझे प्रतिबंधित सड़क से सौ फुट चलकर किसी जगह जाना है । यदि स्वीकृत सड़क से जायेगे तो एक किलो मीटर की दूरी है और प्रतिबंधित सड़क से बहुत नजदीक है । मै देख रहा हॅू कि अनेक लोग मेरे सामने प्रतिबंधित सड़क से जाने मे पांच-पांच रूपया सिपाही को घूस देकर जा रहे है । मेरे सामने संकट है कि मै क्या करू । मै देखता हॅू कि अनेक लोग गर्व से कहते है कि वे घूस नही देते, जबकि मै अपने को तौलता हॅू तो पाता हॅू कि बिना घूस दिये मेरा कोई काम नही होता । गर्व करने वाले मुझे दो नम्बर का व्यक्ति कहकर आत्म संतोष कर लेते है और मै उन लोगो को अव्यावहारिक मानकर अपने ऊपर गर्व करता हॅू । प्रश्न उठता है कि व्यवस्था मुझे दो नम्बर का कार्य करने के लिये मजबूर कर रही है या मै स्वयं गलत हॅू । मै लम्बे समय तक राजनीति मे रहा । तीस चालीस वर्ष पूर्व राजनीति मे ईमानदार लोगो का जो प्रतिशत था वह आज घट कर लगभग शून्य हो गया है । इस पतन का कारण व्यक्ति का गिरता चरित्र नही है बल्कि व्यवस्था की कमजोरियो के कारण मजबूरी है । इक्के-दुक्के उच्च चरित्रवान लोग अपने चरित्र के घमंड मे ऐसे व्यावहारिक लोगो का मजाक उड़ाते है । यदि मुझे कोई यह कहे कि आप जैसे अच्छे चरित्रवान व्यक्ति को ऐसा दो नम्बर का काम नही करना चाहिये था तो आप सोचिये कि मै उस मुर्ख को क्या कहॅू । इसलिये मै इस नतीजे पर पहुंचा कि व्यक्ति के चरित्र पर व्यवस्था का प्रभाव अधिक पड़ता है और शिक्षा प्रवचन उपदेश का कम । ये प्रवचन और उपदेश चरित्र वान लोगो को अधिक चरित्र की ओर प्रेरित कर सकते है किन्तु किसी चालाक या धूर्त को किसी तरह चरित्रवान नही बना सकते हैं बल्कि ऐसे दुश्चरित्र लोगो का ऐसा चरित्र वालो के उपदेश और प्रवचन मार्ग प्रशस्त करते है । यही कारण है कि आज सम्पूर्ण समाज मे चरित्र पतन की गति अधिक से अधिक  तेज होती जा रही है । यदि अच्छे लोगो को व्यवस्था मे बिठाने या  चुनने की अव्यावहारिक सलाह को पूरी तरह ठुकराकर व्यवस्था को ही ठीक करने का प्रयास किया जाता है तो बहुत कम समय मे चरित्र पतन को रोका जा सकता है । व्यवस्था का प्रभाव चरित्र पर पड़ता है चरित्र का व्यवस्था पर नही पड़ता । यह बात स्वीकार करनी चाहिये  यह आदर्श वाक्य पूरी तरह भूल जाने की जरूरत है कि यदि अच्छा व्यक्ति सत्ता मे आयेगा तो सब ठीक कर देगा । यह सोच ही अव्यावहारिक है । इसलिये मेरे विचार से चरित्र निर्माण की अपेक्षा  व्यवस्था परिवर्तन को अधिक महत्व दिया जाना चाहिये ।

कुछ निष्कर्ष निकले है-

1 व्यक्ति कितना भी महत्वपूर्ण क्यो न हो किन्तु व्यवस्था से नियंत्रित ही होना चाहिये । व्यवस्था कितनी भी महत्वपूर्ण क्यो न हो किन्तु समाज से नियंत्रित ही होनी चाहिये । वर्तमान समय मे व्यवस्था समाज पर और व्यक्ति व्यवस्था पर हावी होता जा रहा है ।

2 संसदीय लोकतंत्र असफल है । इसे सहभागी लोकतंत्र के रूप मे बदलना चाहिये । भारत को इस दिशा मे पहल करनी चाहिये ।

3 व्यवस्था समाज के नीचे होती है । व्यवस्था व्यक्ति को नियंत्रित या निर्देशित कर सकती है किन्तु व्यक्ति समूह अर्थात समाज को नही कर सकती ।

4 व्यक्ति की तीन अलग-अलग भूमिकाएं होती है । जब व्यक्ति होता है तब वह स्वतंत्र होता है । जब वह नागरिक होता है तब व्यवस्था का गुलाम होता है और जब वह समूह मे होता है तब व्यवस्था का  मालिक होता है । व्यक्ति को अपनी सीमाएं समझनी चाहिये ।

5 संविधान तंत्र को लोक के प्रतिनिधि के रूप मे नियंत्रित करता है । संविधान संशोधन मे तंत्र का हस्तक्षेप शून्य तथा लोक का सम्पूर्ण  होना चाहिये ।

6 तंत्र से जुड़े किसी भी व्यक्ति या समूह को स्वयं प्रबंधक ही मानना और कहना चाहिये, सरकार नहीं । सरकार तो सिर्फ समाज ही हो सकता है, समाज का प्रतिनिधि नहीं । सरकार शब्द अहंकार भरा है मालिक का बोध कराता है तथा घातक है ।

 

7 कानूनो की मात्रा जितनी अधिक होती है चरित्र पतन भी उतना ही अधिक होता है । कानून का पालन करने वाले कानून तोड़ने के लिये मजबूर हो जाते है और कानून के रक्षक भ्रष्ट । बहुत थोड़े से कानून रखकर अन्य सारे कानून हटा लेने चाहिये ।