सुभाष चन्द्र बोस की गुप्त फाइलों के प्रगटीकरण की एक समीक्षा

स्वतंत्रता संघर्ष में सुभाषचन्द्र बोस का योगदान एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना रही है। सुभाषचन्द्र बोस ने अपनी सारी सुख सुविधाएँ छोड़कर,परिवार तथा मित्रों से दूरी बनाकर, जो कष्ट झेले वे कोई सहज कार्य नहीं थे। दिन रात सोते जागते उन्हें भारत की स्वतंत्रता की ही चिन्ता लगी रहती थी। भारत की स्वतंत्रता के लिए वे दुनिया के अनेक देशों की खाक छानते रहे। स्वतंत्रता की याद करते समय सुभाष बाबू के प्रति सहज सरल श्रद्धा भाव से हर भारतीय का सर झुक जाता है।

      सुभाषचन्द्र बोस जी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहें। उन्हें पार्टी में पूरा-पूरा समर्थन प्राप्त था। आमतौर पर विचारधारा के रुप में वे गांधी जी के प्रत्यक्ष प्रतिद्वंदी थे। सुभाषचन्द्र बोस मानते थे कि गुलाम देश में तानाशाह के समक्ष या तो कायरों के समान रहना पढ़ता है या शत्रु के समान। दूसरी ओर गांधी इन दोनों से हटकर एक तीसरा प्रयोग कर रहे थे जिसमें अहिंसा को एक शस्त्र के समान उपयोग करना था। कांग्रेस पार्टी के चुनाव में अधिकांश लोगों ने सुभाषचन्द्र बोस की नीतियों के पक्ष में वोट दिया किन्तु जब विश्वास और विचार आमने-सामने टकरा गये तब गांधी के प्रति विश्वास मजबूत पड़ा और सुभाषचन्द्र बोस को त्यागपत्र देना पड़ा। मैं महसूस करता हूँ कि स्वतंत्रता संघर्ष के लिए गांधी मार्ग ठीक था और सुभाष मार्ग गलत। आज गॉधी मार्ग से प्राप्त स्वतंत्रता और सुभाष मार्ग से प्राप्त स्वतंत्रता का आकलन करें तो स्थिति स्पष्ट हो सकती है। मैं यह मानता हूँ कि यदि सुभाष मार्ग से भारत स्वतंत्र होता तो वह विभाजित नहीं होता किन्तु साथ-साथ यह भी सच है कि सुभाष मार्ग से भारत आज तक स्वतंत्र नहीं होता क्योकि स्वतंत्रता के पूर्व विश्व युद्ध की हार को जीत में बदलना आवश्यक था और यदि  जीत हो भी जाती तो वैसी स्वतंत्रता नहीं मिलती जैसी आज है। यदि सुभाष बाबू ने गांधी का साथ दिया होता तो स्वतंत्रता जल्दी भी मिल सकती थी और गांधी ने सुभाष बाबू का साथ दिया होता तब भी परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हिटलर सरीखों के साथ मिलकर ब्रिटेन की गुलामी से मुक्ति महंगी भी पड़ सकती थी। मैं आज भी सुभाष बाबू के मार्ग की अपेक्षा गांधी मार्ग का अधिक पक्षधर हूँ यद्यपि मेरे मन में सुभाष बाबू की त्याग तपस्या के प्रति पूरा सम्मान है।

               सुभाष जयन्ती के अवसर पर सुभाष बाबू की मृत्यु के समय की घटनाओं के संबंध में गुप्त रखी गई कई फ़ाइलों खोली और पढ़ी गई। कोई नई बात सामने नहीं आई। नेहरु और सुभाष के आपसी सम्बंधों पर एक अस्पष्ट बात सामने आई। नेहरु जी ने क्या कहा, किस परिस्थिति में कहा, किस भाषा में कहा यह स्पष्ट नहीं है। यह सही है कि नेहरु जी और सुभाष बाबू राजनैतिक प्रतिद्वंदी थे। नेहरु जी गांधी जी की कृपा से प्रधानमंत्री बनना चाहते थे और सुभाष बाबू गांधी का विरोध करके। हो सकता है कि नेहरु जी ने वैसा कहा भी हो तो आज दोनों जीवित नहीं है। हम ऐसी बातों को दूर तक उछालकर क्या प्राप्त करना चाहते हैं? मुझे विश्वास है कि यदि नेहरु जी ने ऐसा कुछ लिखा भी होगा तो यह बात किसी भी रुप में गांधी की जानकारी में तो नहीं ही होगी।

        विमान दुर्घटना में या तो नेताजी की मृत्यु हुई होगी या बचकर रुस चले गये होंगे। वे या तो रुस की जेल में मरे होंगे या स्वेच्छा से नाम बदल कर रहे होंगे । सच्चाई चाहे जो हो किन्तु एक बात तो सच है कि अब वे जीवित नहीं हैं। हम इस बात को जानने के लिये इतने सक्रिय क्यों हैं? पिछली सरकार ने रहस्य पर पर्दा रखा और यह सरकार भी रख रही है तो अवश्य ही कोई खास बात होगी? यदि हम किसी तरह सच जान भी लें तो लाभ शून्य और हानि बहुत हो सकती है। ऐतिहासिक सच खोजना इतिहासकारों का काम है, हम आपका नहीं। यदि कोई बात उचित होगी तो समय पर अपने आप आ जायगी।

         सुभाष बाबू की मौत की सच्चाई जानने के लिए अब तक तीन आयोग बन चुके हैं। करोड़ो रुपया और कीमती समय बर्बाद हों चुका है। अलग अलग निष्कर्ष आ चुके हैं। एक जांच और करा ली जाये तो क्या विश्वास है कि उस जांच पर सब सहमत हो जायेंगे। जिन्हें सिर्फ प्रश्न ही खड़े करना है वे उनके बाद भी नये प्रश्न खड़े करेंगे ही। न उन्हें कोई और काम है, न उनका कोई पैसा खर्च होना है। लाभ में बयान टीवी में आ ही जायगा। आज देश की जो हालत है, किसान आत्महत्या कर रहे हैं, प्रधानमंत्री विदेशों से उधार मांग रहे हैं,हम समय पर कर्ज नहीं पटा पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में क्या यह उचित नहीं होगा कि हम ऐसे विवादास्पद संदर्भो की जांच पर होने वाले व्यय की कोई सीमा तय करें? कहीं न कहीं तो हमें जांच को समाप्त करना ही होगा क्योंकि हम ऐसी जांचो पर असीमित साधन खर्च नहीं कर सकते। गांधी हत्या की जांच बाकी ही है कि गोडसे को प्रेरित करने में किसका हाथ था? लाल बहादुर शास्त्री या श्यामाप्रसाद मुखर्जी प्रकरण की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए? क्या ये सब लोग कम महत्वपूर्ण थे? और यदि थे तो हम सिर्फ जांच ही करते रहेंगे या और भी काम हैं।

         मेरा मत है कि सुभाष बाबू के मृत्यु प्रकरण को उछालने से भाजपा या तृण मूल कांग्रेस को बंगाल चुनाव में कुछ लाभ हुआ होगा किन्तु देश को कोई लाभ नहीं हुआ । मेरे विचार में इस प्रकरण की चर्चा को यहीं समाप्त करके इसे सरकार के निर्णय पर छोड़ देना चाहिए।