अमेरिका हमारा मित्र, प्रतिस्पर्धी, विरोधी या शत्रु

किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति से व्यवहार आठ स्थितियों से निर्धारित होता है । 1. शत्रु 2. विरोधी 3. आलोचक 4. समीक्षक 5. प्रषंसक 6. समर्थक 7. सहयोगी 8. सहभागी । ये भूमिकाएं बिल्कुल अलग-अलग होती हैं । शत्रु के साथ व्यवहार करते समय हम किसी भी प्रकार के असत्य और छल कपट का सहारा ले सकते है । शत्रु के साथ व्यवहार में कोई नैतिकता हमारे बीच बाधक नहीं होती । विरोधी के साथ व्यवहार में हम झूठ नहीं बोल सकते भले ही हम सत्य को छिपा ले या पूरी तरह तोड मरोडकर प्रस्तुत कर दे । विरोधी के विरूद्ध हम छल-कपट का प्रयोग नहीं कर सकते । यदि कोई व्यक्ति सिर्फ आलोचक मात्र है, किन्तु विरोधी नहीं तो हमें विरोधी की तुलना में उसके प्रति और अच्छा मार्ग अपनाना चाहिये अर्थात उसकी कमजोरियों को प्रकट करके अच्छाइयों को आंशिक रूप से छिपा सकते है पूरी तरह नही । यदि कोई तटस्थ समीक्षक मात्र है तो हमें भी पूरी तरह निष्पक्ष रहना चाहिये । ऐसे व्यक्ति की अच्छाई-बुराई में से किसी तरफ झुकने की जरूरत नहीं । यदि हम किसी के प्रशंसक है तो हम उसके अच्छे कार्यो को अधिक और गलतियों को कम करके बता सकते है । यदि हम किसी के समर्थक है तो इसकी गलतियों को छिपाकर सिर्फ अच्छाइयो का प्रचार कर सकते है । यदि हम किसी के सहयोगी है तो हम उसके हर अच्छे काम में सहयोग कर सकते है और गलत कार्यो से चुप रह सकते है । किन्तु यदि हम किसी के किसी काम में सहभागी है तो हम उसके उस अच्छे या बुरे काम के सभी परिणामों से संबद्ध रहना होगा । हम अपने सहभागी की मदद से लिये असत्य का भी सहारा ले सकते है ।

      हमारी दो भूमिकायें हैं । 1. धार्मिक 2. राष्ट्रीय । सामाजिक भूमिका पर हम कोई चर्चा नहीं कर रहे । अमेरिका एक इसाई बहुल देश है । इसाइयों के अतिरिक्त हमें मुसलमानों से भी सम्पर्क रहता है तथा नास्तिक अर्थात साम्यवादियों से भी । यदि हम इसाइयों मुसलमानों तथा साम्यवादियों के बीच तुलना करे तो साम्यवादी सबसे अधिक खतरनाक होते है तो इसाई सबसे कम । साम्यवादी लगभग पूरी तरह भावना शून्य तथा बुद्धि प्रधान होते है तो मुसलमान पूरी तरह भावना प्रधान । हर साम्यवादी व्यक्तिगत आधार पर भी खतरनाक होता है जबकि मुसलमान स्वयं खतरनाक नहीं होता क्योंकि हर साम्यवादी संचालक होता है और आमतौर पर मुसलमान संचालित । साथ ही यह भी सत्य है कि आमतौर पर मुसलमानों का बाहरी लोग ऐसा ब्रेनवाश कर देते है कि वह विचार शून्य होकर उनका अनुकरण करने लग जाता है । इस तरह कुल मिलाकर मुसलमान बुद्धि के मामले में कमजोर होने के कारण अन्य कट्टरपंथी धर्म गुरूओं या साम्यवादियों की लय ताल पर सक्रिय होकर अधिक खतरनाक बन जाता है । इस मामले मे इसाइयों का व्यवहार अन्य दो की तुलना में बहुत अच्छा है । साम्यवादी साम, दाम, दंड, भेद का सहारा लेकर अपना विस्तार करते है तो मुसलमान सिर्फ दंड और भेद के बल पर । इसाई साम, दाम और भेद का प्रयोग करते है । दंड का नहीं करते । इसलिये हम उन्हें कम खतरनाक मानते है । मुस्लिम शासन और इसाई शासन की भारत मे तुलना करे तो दोनो का अंतर स्पष्ट हो जाता है । आज भी भारत में अपनी जनसंख्या बढाने में मुसलमानों और इसाईयों का तुलनात्मक फर्क देखा जा सकता है ।

      हम राष्ट्रीय परिप्रेक्क्षय में अमेरिका की समीक्षा करे । अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है तो अधिकांश साम्यवादी तथा मुस्लिम देश लोकतंत्र और तानाशाही के बीच नाटक करते रहते है । लोकतान्त्रिक व्यवस्था उन्हें पसंद नहीं तो तानाशाही शब्द भी उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं । हाल में ही चीन के राष्ट्रपति ने संविधान संशोधन के लिये जनमत संग्रह का नाटक कर दिखाया । रूस भी ऐसा कोई न कोई नाटक करेगा ही । मुस्लिम देशो में भी जनमत संग्रह का नाटक चलता रहता है । किसी मुस्लिम तानाशाह की उसकी हत्या के बाद बहुत दुर्गति होती है और हत्या के पूर्व उसे 95 प्रतिशत तक वोट मिलते है । नकली लोकतंत्र का ऐसा नमूना अधिकांश मुस्लिम और साम्यवादी देशो में देखने को मिल सकता है । इन सबकी तुलना में अमेरिका या अन्य सहयोगी देशो का लोकतंत्र बहुत अच्छा है । अमेरिका आदि देश अन्य देशो को कूटनीतिक या आर्थिक तरीके से जाल मे फंसाकर उन्हे अपने पक्ष में रहने को मजबूर कर देते है जबकि मुस्लिम और साम्यवादी देश सैनिक ताकत को ही अपनी कूटनीति समझते है । आज तक अमेरिका ने किसी भी देश पर सैनिक नियंत्रण नहीं किया जबकि रूस और चीन ने कही भी अपने प्रयासो को नहीं छोडा । हम कह सकते है कि भारत को अमेरिका से कूटनीतिक राजनैतिक अथवा आर्थिक गुलामी का तो खतरा है किन्तु सैनिक गुलामी का नहीं जबकि भारत को चीन या पाकिस्तान से आर्थिक कुटनैतिक या राजनैतिक गुलामी का कोई खतरा नहीं है । यदि है तो सिर्फ सैनिक गुलामी का ।

         हम जानते है कि अमेरिका एक पूंजीवादी देश है और चीन अर्ध साम्यवादी । भारत भी एक लोकतांत्रिक और पूंजीवादी देश है । भारत अपनी सुरक्षा तक सीमित रहता है । आक्रमण से विस्तार के लिये तो कभी सोचा ही नहीं गया । इस तरह पूंजीवाद और लोकतंत्र के मामले में भारत और अमेरिका स्वाभाविक मित्र होने के कारण बहुत निकटता है तो चीन, रूस अथवा मुस्लिम देशो से भारत की बहुत दूरी है ।  

            हम इस नतीजे पर पहुंच रहे है कि लोकतांत्रिक पूंजीवादी देश अमेरिका सैद्धांतिक रूप से हमारा विरोधी है ही नहीं । व्यावहारिक धरातल पर जब भारत सरकार चीन ओर रूस की तरफ झुकी हुई थी तब मजबूर होकर अमेरिका को भारत के विरूद्ध पाकिस्तान को खडा करना पडता था । अब भारत अमेरिका के साथ तालमेल बिठा रहा है तब स्वाभाविक है कि अमेरिका भारत का विरोधी देश न होकर उसी तरह एक प्रतिस्पर्धी देश के रूप में स्थापित हो रहा है जिस तरह ब्रिटेन, फ्रांस, कनाडा या जर्मनी जापान । मोदी के आने के पूर्व भारत कभी भी अमेरिका के साथ इतना विश्वसनीय नहीं रहा जितना अब है ।

                 यदि हम विरोधी और शत्रु के बीच खोज करे तो चीन हमारा विरोधी देश हो सकता है किन्तु शत्रु नहीं । विरोधी और शत्रु में बहुत अंतर होता है । चीन के साथ भारत का सिर्फ सीमा विवाद है किन्तु सांस्कृतिक रूप से कोई टकराव नहीं है । पाकिस्तान के साथ भारत का कोई सीमा विवाद नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विवाद हैं जिसमें पाकिस्तान कट्टरपंथी मुसलमानों के दबाव में भारत से टकराता रहता है और भारत अपनी सुरक्षा के लिये मजबूर है । कश्मीर विवाद कोई भी सीमा विवाद नहीं है बल्कि आम मुसलमानों की विस्तारवादी नीति के कारण जिस तरह सारी दुनियां के सभी देशो में बिना बात का झगडा पैदा किया जाता है, कश्मीर विवाद भी उसी की एक कडी है । मुस्लिम देशो को तो सबके साथ लडना ही है । यदि कोई अन्य देश हो तो उससे लड़ेंगे न हो तो अपनो से लडेंगे । यहां तक कि आमतौर पर मुसलमान स्वप्न मे भी किसी न किसी से अवश्य लडता होगा । जहाँ शक्तिशाली होते है वहाँ किसी को न्याय नहीं देते और कमजोर होते है तो इन्हें सबसे न्याय चाहिये । ऐसी परिस्थिति मे भारत के लिये पाकिस्तान की भूमिका विरोधी की न होकर शत्रु की है क्योंकि पाकिस्तान तो न स्वयं संचालित है न लोकतांत्रिक है और न ही पूंजीवादी है बल्कि वह तो कट्टरपंथी इस्लामिक देश है जिससे भारत की शत्रुता स्वाभाविक है ।  

                 भारत को हमेशा अमेरिका को प्रतिस्पर्धी चीन को विरोधी और पाकिस्तान को शत्रु देश मानना चाहिये । वर्तमान भारत सरकार अन्य मामलो मे तो लगभग ऐसी नीति पर चल रही है । किन्तु पाकिस्तान को शत्रु देश न मानकर अब तक विरोधी ही मान रही हैं जो पूरी तरह गलत है । भारत के विपक्षी दलो की तो कभी कोई नीति रही ही नही । वे तो सत्ता का विरोध करना ही एकमात्र कार्य मानते रहे है । जब भाजपा विरोध मे थी तो उसकी भी नीतियां ऐसी ही थी जैसी आज कांग्रेस या अन्य विपक्षी दलो की है । इस मामले मे थोडा सा नीतिश कुमार तथा अखिलेश यादव को अधिक समझदार माना जा सकता है तो अरविन्द केजरीवाल को सबसे कम । फिर भी प्रतिस्पर्धी विरोधी और शत्रु के बीच का फर्क संघ परिवार भी कभी नही कर पाता । संघ परिवार के लोग भी कभी भी अमेरिका का अंध विरोध करने लग जाते है । ये लोग कभी-कभी चीन को भी शत्रु की श्रेणी मे डाल देते है जो इनकी नासमझी का प्रतीक है । पाकिस्तान और चीन की मित्रता हमारे लिये सोच समझकर नीति बनाने का अवसर है । हमे चीन के साथ शत्रुता का व्यवहार नहीं बनाना चाहिये भले ही हम सतर्क रहे । साथ ही बिना जरूरत अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देशो की सिर्फ इसलिये आलोचना नहीं करनी चाहिये कि वे इसाई देश है । इसाई भारत में हिन्दूओं के भी प्रतिस्पर्धी है । प्रतिस्पर्धा विरोध और शत्रुता के बीच स्पष्ट विभाजन कि सीमा रेखाएं बनी हुई है । अब नासमझ संघ परिवार इन सीमा रेखाओ को बिना सोचे समझे मनमाने तरीके से शत्रुता और मित्रता का निर्धारण करने लगे तो हमे इस संबंध मे बहुत सोच समझकर चलना चाहिये । मेरा यह मत है कि भारत को लोकतांत्रित पूंजीवादी देश के साथ मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा की नीति पर आगे बढना चाहिये और पाकिस्तान को एक मात्र शत्रु मानकर हमे अपनी सारी नीतियां बनानी चाहिये ।