श्रमशोषण और मुक्ति

श्रमशोषण और मुक्ति


व्यक्ति अपने जीवनयापन के लिए तीन माध्यमों का उपयोग करता हैं- (1) श्रम (2) बुद्धि (3) धन।
जिस व्यक्ति के जीवनयापन की आधे से अधिक आय शारीरिक श्रम से होती है उसे श्रमजीवी कहा जाता है। जिसकी आधे से अधिक बुद्धिप्रधान कार्यों से होती है उसे बुद्धिजीवी तथा जिसकी धन के माध्यम से होती है उसे पॅूजीपति माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के पास श्रम भी होता है, बुद्धि भी होती है तथा धन भी होता है। किन्तु किसी व्यक्ति में एक से अधिक गुण प्रधान नहीं होते। प्रधान तो एक ही होता है अन्य तो सहायक होते हैं। कोई भी व्यक्ति किसी भी समय श्रम,बुद्धि या धन की प्रधानता को अपनी क्षमता के अनुसार कभी भी बदल लेता है। श्रमजीवी भी कभी पॅूजीपति बन जाता है तो पॅूजीपति भी कभी श्रमजीवी। पॅूजीपति या बुद्धिजीवी कभी गरीब नहीं हो सकता। आमतौर पर श्रमजीवी ही तथा कुछ मात्रा में अधिक अच्छे बुद्धिजीवी जिन्हें प्राचीन समय में ब्राम्हण कहा जाता था वे गरीब होते है अन्यथा अन्य कोई भी बुद्धिजीवी कभी गरीब नहीं हो सकता क्योंकि श्रमजीवी के पास श्रम के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं है। जबकि बुद्धिजीवी और पॅूजीपति के पास एक से अधिक विकल्प हमेशा मौजूद रहते हैं। श्रमजीवी की अधिकतम आय 10000 रु मासिक से अधिक नहीं हो सकती किन्तु बुद्धिजीवी की अधिकतम आय लाखों रुपये मासिक तक हो सकती है और पॅूजीपति की अधिकतम आय करोडों रु मासिक तक हो सकती है। सरकारी सर्वेक्षण के अनुसार भारत में करीब 20 करोड ऐसे लोग मौजूद हैं जिनकी मासिक आय प्रतिव्यक्ति 1000 और पांच व्यक्तियो के परिवार की 5000 से भी कम हैं। सरकार के अनुसार ऐसे व्यक्तियों की प्रतिव्यक्ति दैनिक आय 32 रु और दैनिक श्रममूल्य 160 रु के आसपास है। प्राचीन समय में गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालो को भिक्षा मांगने का विकल्प भी दिया गया था। इनमें गरीब,श्रमजीवी तथा गरीब ब्राम्हण शामिल थे बाद में इसमें विकृति आ गई।

श्रमशोषण कब से शुरु हुआ इसका इतिहास मुझे नहीं मालूम। इतना अवश्य पता है कि बहुत प्राचीन समय में समाज में श्रमषोषण नहीं था। योग्यतानुसार परीक्षा के बाद वर्ण का निर्धारण होता था। कालांतर में धीरे-धीरे विकृति आयी और बुद्धिजीवियों ने श्रमशोषण प्रारंभ कर दिया अर्थात जन्म से ही वर्ण का निर्धारण होने लगा। ब्राम्हण का लडका ब्राम्हण और श्रमिक का लडका श्रमिक रहने के लिए और जीवन भर रहने के लिए अधिकृत और बाध्य कर दिया गया। यही है श्रमशोषण का इतिहास । योग्यता रहते हुए भी कोई व्यक्ति अपने वर्णो से बाहर नहीं जा सकता था। इस तरह की विकृति के परिणाम स्वरुप भारत लम्बे समय तक गुलाम भी रहा किन्तु उसने इस विकृति से छुटकारा नहीं किया। इस प्रकार का बौद्धिक आरक्षण ही भारत की गुलामी का मुख्य कारण था। स्वामी दयानंद तथा गाॅधी ने इस समस्या को दूर करने का प्रयत्न किया किन्तु भीमराव अम्बेडकर ने अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण सब गुड गोबर कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद भी बुद्धिजीवियों ने अपना षडयंत्र जारी रखा। स्वतंत्रता के पूर्व समाज में सामाजिक आरक्षण था कानूनी नहीं किन्तु स्वतंत्रता के बाद बुद्धिजीवियों ने ऐसे आरक्षण को कानूनी जामा भी पहना दिया । अंतर यह हुआ कि स्वतंत्रता के पूर्व शतप्रतिशत आरक्षण सवर्ण बुद्धिजीवियों का था तो स्वतंत्रता के बाद अम्बेडकर ,नेहरु का समर्थन पाकर उस शतप्रतिशत आरक्षण में से 20-25 प्रतिशत आरक्षण अवर्ण बुद्धिजीवियों ने भी लेकर श्रमशोषण के अपवित्र कार्य में हिस्सेदार बना लिया। यह लूट के माल में हिस्सेदारी बकायदा कानून बनाकर हुई और आज भी जारी है। भारत के आदिवासियों और हरिजनों की कुल आबादी में स्वतंत्रता के समय भी 90 प्रतिशत श्रमजीवी थे और आज भी 90 प्रतिशत ही हैं। शेश 10 प्रतिषत आदिवासी हरिजन बुद्धिजीवियों ने अपने श्रमजीवी भाईयों के शोषण में हिस्सेदारी लेकर सवर्ण बुद्धिजीवियों के साथ समझौता कर लिया। आज भी आप देखेंगे कि आरक्षण की लडाई में सवर्ण बुद्धिजीवी और अवर्ण बुद्धिजीवी ही आपस में टकराते रहते है किन्तु दोनों में से कोई भी समूह 90 प्रतिशत श्रमजीवियों की चिंता नहीं करता। आज भी आप देखेंगे कि भारत का हर बुद्धिजीवी चाहे वह सवर्ण हो या अवर्ण पूरी ईमानदारी से भीमराव अम्बेडकर के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है क्योंकि डाॅ अम्बेडकर ने ही उन्हें मिलकर श्रमशोषण का कानूनी लाइसेंस प्रदान कराया है।

भारत में लोकतांत्रिक तरीके से सफलतापूर्वक श्रमशोषण के लिए चार माध्यम अपनाये जाते हैं- (1) आरक्षण (2) कृृत्रिम उर्जा मूल्य नियंत्रण (3) षिक्षित बेरोजगारी (4) श्रममूल्य वृद्धि। सबसे बडा आश्चर्य है कि इन चार आधारों पर बुद्धिजीवी श्रम का शोषण भी करते है तथा इन्हें श्रम समस्याओं का समाधान भी बताते हैं। इस कार्य में सबसे ज्यादा भूमिका वामपंथियों की रही है। वामपंथी पूरी ताकत से चारों आधारों पर सक्रिय रहते हैं किन्तु अब तो धीरे धीरे सभी बुद्धिजीवियों को श्रमशोषण में मजा आने लगा है और भारत का हर बुद्धिजीवी और पॅूजीपति इन चारों सिद्धांतो को विस्तार देने में लगा रहता है। आरक्षण की चर्चा तो हम उपर कर चुके है। कृत्रिम उर्जा मूल्य नियंत्रण भी आज लगातार जारी है। स्पष्ट है कि कृत्रिम उर्जा श्रम की प्रतिस्पर्धा मानी जाती है और श्रम की मांग तथा मूल्यवृद्धि में बाधक होती है किन्तु भारत में कृत्रिम उर्जा का मूल्य सिर्फ इसलिए नहीं बढने दिया जाता क्योकि उससे श्रम का मूल्य और मांग बढ जायेगी। कृत्रिम उर्जा सस्ती हो यह बहुत बडा षडयंत्र है, श्रम का शोषण करने का यह पूॅजीवादी मंत्र है।

दुनिया जानती है कि शिक्षित व्यक्ति कभी बेरोजगार नहीं हो सकता भले ही वह उचित रोजगार की प्रतिक्षा में बेरोजगार बने रहने का नाटक ही क्यों न करें किन्तु हमारे बुद्धिजीवियों ने बेरोजगारी की एक नकली परिभाषा बनाकर उस परिभाषा के आधार पर शिक्षित लोगों को भी बेरोजगार घोषित करना शुरु कर दिया। आज तक इस परिभाषा में कोई संषोधन नहीं किया जा रहा है। कितने दुख की बात है कि श्रमजीवियों द्वारा उत्पादित कृषि उपज वन उपज पर भारी टैक्स लगाकर शिक्षा पर भारी खर्च किया जा रहा है । बेशर्म बुद्धिजीवी आज भी शिक्षा का बजट बढाने की अन्यायपूर्ण मांग करते देखे जाते है किन्तु कोई नहीं कहता कि गरीब ग्रामीण श्रमजीवी द्वारा उत्पादन और उपभोग की वस्तुओं पर टैक्स लगाकर शिक्षा पर व्यय करना अन्याय है। भारत का हर संगठन यह मांग करता है कि श्रम का मूल्य बढाया जाये। एक सीधा सा सिद्धांत है कि किसी वस्तु का मूल्य बढता है तो मांग घटती है और मांग घटती है तो मूल्य घटता है। स्पष्ट है कि भारत में दो प्रकार के श्रम मूल्य चल रहे है- (1) मांग के आधार पर (2) घोषणा के आधार पर । ज्यों ही सरकार श्रम मूल्य बढाती है त्यों ही श्रम की मांग घटकर मशीनों की ओर बढ जाती है और श्रम के बाजार मूल्य तथा कृत्रिम मूल्य के बीच दूरी बढ जाती है। आज भी यह दूरी निरंतर बनी हुई है और इसे घटाने का प्रयास न करके बढाने का प्रयास हो रहा है।

इसके पक्ष में तर्क दिया जाता है कि दुनिया के अनेक विकसित देश इस आधार पर प्रगति कर रहे हैं किन्तु हम यह भूल जाते है कि वे विकसित देश श्रम अभाव देश है और भारत श्रम बहुल देश। यदि हम साम्यवादी देशो की नकल कर रहे हैं तो हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि साम्यवाद में व्यक्ति राष्ट्रीय सम्पत्ति माना जाता है और भारत में स्वतंत्र जीव। साम्यवाद में व्यक्ति को मूल अधिकार नहीं होते और भारत में ऐसे अधिकार होते हैं। इसलिए साम्यवाद या पश्चिम के देशो की नकल करते हुये यदि भारत में श्रमशोषण को न्याय संगत ठहराया जाता है तो यह अमानवीय है और चाहे सारी दुनिया ऐेसे श्रमशोषण के विरुद्ध भले ही आवाज न उठावे किन्तु मैं तो ऐसे अमानवीय कृत्य के विरुद्ध आवाज उठाउॅगा। श्रम के विरुद्ध बुद्धिजीवियों का इतना बडा षडयंत्र होते हुए भी यदि चुप रहा जाये तो मेरी दृष्टि में यह पाप है। आज भारत में यदि नक्सलवाद दिख रहा है तो उसके अनेक कारणों में यह कारण भी एक है । नक्सलवादियों को यह बहाना मिला हुआ है। आप विचार करिये कि बुद्धिजीवियों द्वारा इस तरह श्रमजीवियों के साथ लोकतांत्रिक षडयंत्र होता रहे और हम चुपचाप देखते रहे यह कैसे उचित और संभव है । 20 वर्ष पहले तो मुझे कभी कभी ऐसा लगता था कि मैं भी बंदुक उठाकर नक्सलवादियों के साथ हो जाऊ किन्तु अग्रवाल परिवार में जन्म लेने के कारण संस्कार मुझे रोक देते थे। फिर भी मैं अपनी आवाज उठाने से चुप नहीं रह सकता।

श्रमशोषण से मुक्ति के कुछ उपाय किये जा सकते हैं-(1) परिवार व्यवस्था को सम्पूर्ण सामाजिक व्यवस्था में कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। गरीब या बेरोजगार व्यक्ति नहीं परिवार माना जाना चाहिये। (2) गरीब ग्रामीण श्रमजीवी के सभी प्रकार के उत्पादन और उपभोग की वस्तुओं को कर मुक्त करके सारा टैक्स कृत्रिम उर्जा पर लगा देना चाहिये। (3) शिक्षा पर होने वाला सारा बजट शिक्षा प्राप्त कर रहे या कर चुके लोगों से पूरा किया जाना चाहिये। (4) सरकार जो भी श्रममूल्य घोषित करे उस श्रममूल्य पर किसी भी बेरोजगार को रोजगार देने की सरकारी बाध्यता होनी चाहिये।
मैं समझता हॅू कि अभी यदि इतने भी उपाय कर लिये जाये तो श्रम , बुद्धि और धन के बीच बढती हुई अन्यायपूर्ण दूरी कम हो सकती हैं। और भी अन्य उपाय हो सकते है किन्तु श्रमशोषण में सक्रिय चार व्यवस्थाओं पर तत्काल रोक लगनी चाहिये। यदि श्रम के साथ न्याय नहीं हुआ तो यह कभी भी समाज में शांति नहीं स्थापित होने देगा। बंदूके कुछ समय के लिये आवाज को रोक सकती है किन्तु सदा के लिए नहीं रोक सकती। मैं समझता हॅू कि इस विषय पर गंभीरता से विचार मंथन का प्रयास होगा।