क्या न्यायपालिका सर्वोच्च है ।
समाज में व्यक्ति एक मूल और सम्प्रभुता सम्पन्न स्वतंत्र इकाई मानी जाती है । व्यक्ति की स्वतंत्रता पर तब तक कोई अन्य कोई नहीं लगा सकता जब तक उसने किसी अन्य की स्वतंत्रता में बाधा न पहुंचाई हो । समाज को भी ऐसा लगाने का अधिकार नहीं । किन्तु जब कोई अन्य व्यक्ति या व्यक्ति समूह किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता अंकुश में बाधक होता है तब उसकी स्वतंत्रता की रक्षा करने का दायित्व समाज का है । समाज स्वयं में एक अमूर्त इकाई होने से वह प्रत्यक्ष रूप से ऐसी सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकता । इसलिये समाज ऐसी सुरक्षा की गारंटी के लिये एक तंत्र की नियुक्ति करता है जिसे सरकार कहते है । यह तंत्र बहुत शक्तिशाली होता है क्योंकि उसके पास सेना, पुलिस, वित्त सहित अनेक अधिकार होते है । तंत्र उच्श्रृंखल न हो जाये इसलिये तंत्र के अधिकारों की सीमाएं निर्धारित करने के लिये समाज एक संविधान का निर्माण करता है । तंत्र स्वेच्छा से उस संविधान में कोई फेर बदल नहीं कर सकता । तंत्र स्वयं ही व्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक न बन जाये अथवा तानाशाह न हो जाये इसलिये समाज संवैधानिक रूप से तंत्र की शक्तियों को तीन भागों में बांटकर रखता है । इन तीन भागों को विधायिका, न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के नाम से जाना जाता है । संविधान के अंतर्गत तीनों के अधिकार दायित्व तथा सीमाएं बराबर होती है । तीनों ही एक दूसरे के सहायक भी होते है और नियंत्रक भी। यदि कोई एक अपनी सीमाएं तोड़ने लगे तब अन्य दो मिलकर उस पर अंकुश लगाते है । यदि तीनों मिलकर सीमाएं तोड़ने लगे तब संविधान उसमे हस्तक्षेप करता है, अन्यथा नहीं ।
तीनो के कार्य क्षेत्र अलग-अलग है । विधायिका न्याय-अन्याय को परिभाषित करती है किन्तु वह किसी इकाई के न्याय अन्याय का विश्लेषण नहीं कर सकती । न्यायपालिका किसी इकाई के न्याय-अन्याय के मामले में विश्लेषण करके घोषित करती है, किन्तु क्रियान्वित नहीं कर सकती । विधायिका द्वारा परिभाषित और न्यायपालिका द्वारा घोषित न्याय-अन्याय का क्रियान्वयन कार्यपालिका करती है । इस तरह तीनों के बीच स्पष्ट कार्य विभाजन है । साथ ही न्यायपालिका को एक विशेष अधिकार प्राप्त है कि वह प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता में संविधान अथवा तंत्र द्वारा भी बनायी गई किसी बाधा से व्यक्ति को सुरक्षा दे सकता है । इस तरह न्यायपालिका संविधान से व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारों की सुरक्षा का भी दायित्व पूरी करती है । यदि संविधान का कोई संशोधन समाज या तंत्र के द्वारा इस प्रकार किया जाता है कि वह व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकारो का उल्लंघन करता है तो न्यायपालिका पूरे विश्व समाज का प्रतिनिधित्व करते हुए उक्त संशोधन को रद्द कर सकती है । इसके अतिरिक्त न्यायपालिका व्यक्ति के संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा मे भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यदि विधायिका कोई ऐसा कानून बनाती है जो संविधान के विरूद्ध हो तो न्यायालय उस कानून को रद्द कर सकता है । यदि कार्यपालिका किसी कानून के विरूद्ध कोई आदेश देती है तो न्यायपालिका ऐसे आदेश को भी रद्द कर सकती है । यदि कार्यपालिका का कोई व्यक्ति किसी कार्यपालिक आदेश के विरूद्ध क्रिया करता है तो न्यायपालिका ऐसी क्रिया को भी रोक सकती है । इस तरह न्यायपालिका को कुछ विशेष अधिकार दिखते है किन्तु वास्तविकता में विशेष अधिकार है नहीं, क्योंकि न्यायपालिका कोइ्र्र विधायी या कार्यपालिक आदेश नहीं दे सकती । वह तो किसी अधिकार के अतिक्रमण को रोक देने तक सीमित रहती है । अप्रत्यक्ष रूप से भी उसे वीटों पावर अर्थात विशेषाधिकार तो प्राप्त है किन्तु विशेषाधिकार प्राप्त नहीं है ।
स्वतंत्रता के बाद विधायिका तत्काल ही उच्श्रृंखल हो गई, क्योंकि उसने संविधान संशोधन का विशेषाधिकार अपने पास सुरक्षित कर लिया था । भारतीय लोकतंत्र में यह विशेषाधिकार समाज के पास होता है और विदेशी लोकतंत्र में आंशिक रूप से समाज की भूमिका होती है तथा साथ ही तंत्र की भूमिका महत्वपूर्ण होती है । स्वतंत्रता के समय संविधान बनाने वालो ने भारतीय संविधान बनाते समय बुरी नीयत से संविधान संशोधन के अधिकार से समाज को पूरी तरह अलग कर दिया और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका को भी किनारे करते हुए सारे अधिकार अपने पास समेट लिये । अप्रत्यक्ष रूप से विधायिका तानाशाह बन गई और उसने स्वतंत्रता के प्रारंभ से ही इस अधिकार का खुला दुरूपयोग किया । पंडित नेहरू तानाशाही प्रवृत्ति के व्यक्ति थे जो लोकतंत्र का मुखौटा पहने हुए थे । उन्होंने सन् 50 में ही न्यायपालिका के पंख कतरने शुरू कर दिये जिसे बाद मे उनकी तानाशाह बेटी इंन्दिरा ने राष्ट्रपति अर्थात कार्यपालिका के पंख कतरकर पूरा किया । इस तरह सारी शक्ति विधायिका के पास आ गई । इस शक्ति के एकत्रीकरण के विरूद्ध कार्यपालिका आज तक उसी स्थिति में है किन्तु न्यायपालिका ने संविधान के विरूद्ध जाकर केशवानंद भारती प्रकरण में अपनी स्वतंत्रता स्थापित करने की शुरूआत की । जब इंदिरा गांधी के बाद विधायिका का एक क्षत्र शासन कमजोर होने लगा तब न्यायपाकिा और मजबूत होने लगी । धीरे-धीरे विधायिका इतनी कमजोर हो गई कि न्यायपालिका के मन मे भी सर्वोच्चता की भूख पैदा हुई और 1995 के आस पास उसने संविधान की मनमानी व्याख्या करके अपनी तानाशाही की शुरूआत कर दी। कालेजियम सिस्टम एक ऐसी ही शुरूआत थी । बदनाम विधायिका और कमजोर कार्यपालिका मुकाबला नहीं कर सकी और न्यायपालिका अपनी सर्वोच्चता सिद्ध करती रही । स्थिति यहां तक आई कि विधायिका की तुलना मे न्यायपालिका के भ्रष्टाचार की अधिक चर्चा होने लगी । किन्तु स्वाभाविक है कि भ्रष्ट दुकानदार किसी भी संभावित बदनाम से नहीं डरता । न्यायपालिका भी ऐसे ही दुकानदार के समान सारी बदनामी झेलते हुए भी ढीठ बनी हुई है । अब परिस्थितियां बदली और नरेन्द्र मोदी ने आने के बाद न्यायपालिका को अपनी औकात में रहने का सबक सिखाना शुरू कर दिया । अब फिर विधायिका अपना रंग दिखा सकती है ।
महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि विधायिका और न्यायपालिका मे से क्या कोई सर्वोच्च है और क्या कोई सर्वोच्च हो सकता है लोकतंत्र मे लोक सर्वोच्च होता है, तंत्र नहीं क्योंकि लोक नियुक्त करता है और तंत्र नियुक्त होता है । सिद्धान्त रूप से इन सब में किसी को सर्वोच्च नहीं होना चाहिये और यदि तीनो एक साथ जुट जाये तब भी वे सर्वोच्च नही हो सकते क्योकि संविधान इन सबसे ऊपर होता है । किन्तु व्यावहारिक धरातल पर इन तीनों नें एकजुट होकर भारतीय संविधान पर अपना नियंत्रण कर लिया और उस आधार पर इन नकली समूहों ने अपने को सरकार कह दिया । संविधान पर नियंत्रण जिसका होगा वही सर्वोच्च होगा । क्योकि लोकतंत्र और तानाशाही मे सिर्फ एक ही फर्क होता है कि लोकतंत्र मे संविधान का शासन होता है तो तानाशाही मे शासन का संविधान । स्पष्ट है कि वर्तमान समय मे लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही चल रही है । क्योकि संविधान तंत्र के नियंत्रण मे है । यदि संविधान पर ही तंत्र का नियंत्रण समाप्त होकर लोक का नियंत्रण हो जाये तो सर्वोच्चता का विवाद सदा के लिये समाप्त हो सकता है । सिद्धान्त रूप से तो यही घोषित है कि लोक ही सर्वोच्च है किन्तु व्यवहारिक धरातल पर न्यायपालिका और विधायिका ने व्यक्ति को अक्षम अयोग्य घोषित करके स्वयं को संरक्षक बता दिया है और संविधान पर अपना नियंत्रण कर लिया है । अच्छा होगा कि इस विवाद को सदा के लिये समाप्त कर दे । इस उद्देश्य से संविधान संशोधन का पूरा अधिकार इनके हाथ से बाहर कर दिया जाना चाहिये । न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी ।
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