न्यायिक सक्रियता समस्या या समाधान
न्यायिक सक्रियता समस्या या समाधान
सिद्धांत रुप से न्याय तीन प्रकार के होते हैं-1 प्राकृतिक न्याय, 2 संवैधानिक न्याय, 3 सामाजिक न्याय । न्याय प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तिगत अधिकार होता है, सामूहिक अधिकार नहीं । तंत्र प्रत्येक व्यक्ति के प्राकृतिक न्याय की सुरक्षा की गारण्टी देता है । इसलिये व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार की सुरक्षा तंत्र का दायित्व होता हैं । संवैधानिक न्याय तंत्र स्वेच्छा से व्यक्ति या समूह को दे सकता है । संवैधानिक अधिकार देना तंत्र का कर्तव्य होता है, दायित्व नहीं । सामाजिक न्याय सिर्फ समाज का ही कर्तव्य होता है । सामाजिक मामलों में तंत्र की भूमिका शून्य होती है । न उसका दायित्व होता है न ही कर्तव्य । तंत्र सामाजिक मामलों में समाज की सहायता मात्र कर सकता है किन्तु हस्तक्षेप नहीं कर सकता । स्वतंत्रता के समय हमारे संविधान बनाने वालों को दायित्व, कर्तव्य, प्राकृतिक संवैधानिक सामाजिक न्याय आदि का पर्याप्त अनुभव नहीं रहा होगा इसलिये वे इन सबको साफ-साफ अलग नहीं कर सके । दूसरी बात यह भी है कि उन लोगों ने भारतीय चिन्तन की मौलिक सोच को किनारे करके विदेशी संविधानों की नकल की । तीसरी बात यह भी रही है कि हमारे संविधान बनाने वालों की नीयत साफ नहीं थी। यही कारण रहा कि उन्होंने लोक को अवयस्क घोषित करके तंत्र को कस्टोडियन अर्थात् संरक्षक घोषित कर दिया । स्वाभाविक है कि वयस्क होने के लिये संरक्षित के सभी सामाजिक तथा संवैधानिक अधिकार संरक्षक के पास ही होते हैं जो वयस्क होने के बाद मिल जाते हैं।
लोकतंत्र में तंत्र तीन समकक्ष इकाइयों को मिलाकर बनता है । ये तीनों इकाइयां किसी संविधान से संचालित होती हैं । वे इकाइयां हैं- (1) विधायिका (2) न्यायपालिका (3) कार्यपालिका । तीनों इकाइयां अपने अपने दायित्व पूरे करने के लिये स्वतंत्र होती हैं । साथ ही वे दूसरी इकाइयों के लिये सहायक की भूमिका में भी होती हैं तथा नियंत्रक की भूमिका में भी । इसका अर्थ हुआ कि यदि कोई इकाई कभी पिछड़ रही होती है तो अन्य दो इकाइयां उसकी पूरक का काम करती हैं तथा यदि कोई इकाई कभी अपनी सीमाएँ तोड़कर उच्च्श्रिंखलता की दिशा में बढ़ती हैं तब अन्य दो इकाइयां उस पर लगाम लगाने का भी काम करती हैं । हमारे संविधान निर्माताओं ने भूलवश या जानबूझकर संविधान संशोधन तक के असीम अधिकार संसद को दे दिये । इस अधिकार के कारण तीनों इकाइयों में शक्ति संतुलन असंतुलित हो गया । इस अधिकार का अनैतिक दुरुपयोग करते हुए हमारी विधायिका ने संविधान बनने के एक वर्ष बाद ही लगातार न्यायपालिका तथा कार्यपालिका के अधिकारों में कटौती करनी शुरु कर दी । यहाँ तक कि अप्रत्यक्ष रुप से न्यायपालिका तथा कार्यपालिका विधायिका की गुलाम सरीखी हो गई । सन तिहत्तर में न्यायपालिका ने थोड़ी हिम्मत करके केशवानन्द भारती प्रकरण के माध्यम से विधायिका की तानाषाही पर रोक लगानी चाही । किन्तु उसे कार्यपालिका अर्थात राष्ट्रपति का पर्याप्त समर्थन नहीं मिला । परिणाम स्वरुप सन पचहत्तर के आपातकाल ने भारत में सम्पूर्ण तानाशाही ला दी । आपातकाल के बाद लोक ने हस्तक्षेप किया और तंत्र के तीनों अंगो को तानाशाही की कैद से मुक्त कराया ।
आपातकाल के बाद मिली जुली सरकारों का युग आया । न्यायपालिका धीरे-धीरे मजबूत होने लगी । अटल जी की सरकार आते तक न्यायपालिका लगभग विधायिका के बराबर ही एक दूसरे की पूरक और नियंत्रक के रुप में आ चुकी थी । यद्यपि दोनों ही सन पचास से ही कार्यपालिका को दबाकर रखे जो आज भी जारी है। आज भी न्यायपालिका के छोटे से छोटे जज तथा विधायिका के छोटे से छोटे सांसद विधायक और कभी-कभी तो उनके चमचे तक, बड़े बड़े सरकारी अधिकारी या पुलिस वाले की अपनी सीमा में जो दुर्गति करते हैं वह किसी से छिपा नहीं हैं । अटल जी के बाद जब मनमोहन सिंह सरीखे शरीफ और लोकतंत्र की दिशा में सर्वाधिक सक्रिय व्यक्ति प्रधानमंत्री बने तो न्यायपालिका अधिक सशक्त होने लगी । यह सक्रियता यदि न्यायिक प्रक्रिया की दिशा में होती, तब तो वह सक्रियता तंत्र सहायक होती किन्तु न्यायपालिका की यह सक्रियता, विधायिका की तुलना में न्यायिक सर्वोच्चता स्थापित करने की छीना झपटी की ओर बढ़ी और ऐसी सक्रियता घातक सिद्ध हुई ।
न्यायपालिका का दायित्व होता है प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा । यह सुरक्षा प्रत्येक व्यक्ति के लिये किसी अन्य व्यक्ति, व्यक्ति समूह, समाज या राज्य सहित सभी एकाईया से आवश्यक होती है । किसी अन्य इकाई से तो सुरक्षा संविधान करता है किन्तु यदि संविधान ही अतिक्रमण करने लगे तब समस्या पैदा होती है । ऐसी स्थिति में संविधान की कोई धारा ऐसी स्वतंत्रता का अतिक्रमण करती है तो न्यायपालिका ऐसे संविधान संशोधन को रद्द भी कर सकती है । इस दायित्व के साथ-साथ न्यायपालिका को कुछ संवैधानिक अधिकार भी दिये गये हैं। न्यायपालिका संविधान विरुद्ध कानून, कानून विरुद्ध आदेश और आदेश विरुद्ध क्रिया को भी रद्द कर सकती है । न्यायपालिका सीमा के बाहर किये गये ऐसे संविधान संशोधन, कानून, आदेश और क्रिया को रोक तो सकती है किन्तु कोई नई व्यवस्था नहीं दे सकती । न्यायपालिका को कहीं से यह अधिकार नहीं कि वह किसी संविधान, कानून, आदेश या क्रिया के लिये कोई आदेश दे सके या संशोधित कर सके । न्यायपालिका जब अति सक्रियता की ओर बढ़ी तो वह अपनी सीमाएं भूल गई और वह न्यायिक आदेशों की अपेक्षा प्रशासनिक तथा विधायी आदेश देने लगी । न्यायपालिका ने जनहित याचिकाए सुनने का असंवैधानिक आदेश देकर बदनाम और उच्श्रृंखल विधायिका के घोड़े को जब लगाम लगाई तो लोक ने न्यायपालिका की भरपूर प्रशंसा और उत्साह वर्धन किया । न्यायपालिका ने जब कालेजियम सिस्टम बनाने जैसा भी अधिकार विहीन आदेश दिया तब भी न्यायपालिका की कोई आलोचना नहीं हुई किन्तु धीरे-धीरे न्यायपालिका को प्रशंसा में मजा आने लगा और विधायिका या कार्यपालिका को नीचा दिखाना उसकी आदत सी बन गई । मनमोहन सिंह के पूर्व तक हर राजनेता डंके की चोट पर संसद सर्वोच्च की बात कहता था और तर्क देता था कि तंत्र की तीन इकाइयों में एक मात्र वही अकेली इकाई है जो सीधे जनता द्वारा चुनी जाती है, तो मनमोहन सिंह के आने के बाद हर अधिवक्ता या न्यायिक प्रक्रिया से जुड़ा चपरासी भी डंके की चोट पर न्यायपालिका सर्वोच्च की बात इस तर्क के साथ कहता है कि न्यायपालिका को संविधान सहित हर मामले में समीक्षा का अंतिम अधिकार है । मनमोहन सिंह के कार्यकाल तक न्यायपालिका का मनोबल लगातार बढ़ता रहा । न्यायपलिका ने न कभी प्रधानमंत्री की परवाह की, न राष्ट्रपति की । मनमोहन सिंह के कार्यकाल में न्यायपालिका ने बहुत अशोभनीय तरीके से प्रधानमंत्री के निर्णय ले लिये तथा फांसी की सजा के लिये राष्ट्रपति के निर्णय के लिये भी एक समय सीमा तय कर दी । लेकिन न्यायपालिका यह भूल गई कि उसने अपने निर्णय के लिये आज तक कोई समय सीमा नहीं बनाई है । फांसी की सजा प्राप्त व्यक्ति यदि उस सीमा से अधिक समय तक राष्ट्रपति की दया याचिका के निर्णय के अभाव में जेल में बन्द रहा तो न्यायपालिका ने ऐसे कार्य को उस व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना किन्तु कोई व्यक्ति न्यायपालिका के निर्णय की प्रतीक्षा में दस-दस वर्ष जेल में रहकर निर्दोष छूटता है तो कभी न्यायपालिका ने अपना दोष नहीं माना । बल्कि कभी-कभी तो ऐसे न्यायिक विलम्ब के लिये भी न्यायपालिका कार्यपालिका पर ही दोष मढ़कर स्वयं को पाक, साफ, सिद्ध रखने की चेष्टा करती रही । मैं मानता हॅू कि सभी अधिवक्ता न्यायपालिका को भगवान की तरह प्रचारित करते रहते हैं । मीडिया या अन्य लोग भी न्यायिक अवमानना के डण्डे के भय से या तो उनकी प्रशंसा करते रहते हैं या चुप रहते हैं किन्तु स्पष्ट है कि किसी निर्दोष व्यक्ति को आवश्यकता से एक दिन भी अधिक जेल में रखना उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और ऐसा उल्लंघन करने में कहीं न्यायपालिका भी दोषी है तो उसे उत्तरदायी होना चाहिये । यह अलग बात है कि न्यायिक सक्रियता को ढाल बनाकर न्यायपलिका ने तो विधायिका और कार्यपालिका को उत्तरदायी बना दिया किन्तु न्यायिक गलतियों के लिये उसने न कभी अपनी समीक्षा की न ही कोई अन्य तंत्र विकसित किया जो ऐसे विलम्ब के लिये न्यायपालिका की समीक्षा कर सके । न्यायपालिका जानती है कि लंबित मुकदमों के अंबार लगे हैं । न्यायपालिका इसके लिये जजों की कमी का रोना रोती है । विधायिका के भी अपने तर्क हैं । भारत में जितने प्रतिशत न्यायाधीश के स्वीकृत पद खाली हैं उससे अधिक प्रतिशत के स्वीकृत पद पुलिस, स्कूल, अस्पताल जैसे अनेक आवष्यक स्थानों पर भी खाली हैं । यदि कोई न्यायिक पदाधिकारी भावुक होकर अपने न्यायिक पदों की पूर्ति प्राथमिकता के आधार पर कराने में सफल हो जावे तो पुलिस, शिक्षक और अस्पतालों का क्या होगा? उनकी चिंता कौन करेगा? क्या न्यायिक प्रक्रिया देश की अन्य समस्याओं से अधिक प्राथमिकता रखती है कि चाहे अन्य पद भले ही न भरे किन्तु न्यायिक पद अवश्य भरे जावें । अरुण जेटली ने जब हिम्मत करके टिप्पणी की थी कि अब न्यायपालिका ही देश का बजट भी बनाना शुरु कर दे तब न्यायपालिका निरुत्तर थी । बात भी सच है । न्यायपालिका आपराधिक मुकदमों के निर्णय मेँ विलम्ब की कीमत पर दिन रात पर्यावरण प्रदूषण के लिये कभी दिल्ली सरकार तो कभी किसी अन्य को फटकार लगाने की वाहवाही लूटने में व्यस्त रहेगी तो आपराधिक मुकदमों में विलम्ब स्वाभाविक है । हमारी न्यायपालिका सरकार को बिना मांगे सलाह देती है कि वह नक्सलवाद के समाधान के लिये बातचीत का मार्ग अपनावे । मैं नहीं समझता कि यह सलाह किसी भी रुप में न्यायिक प्रक्रिया का भाग है । न्यायपालिका उत्तराखंड में आई बाढ़ के लिये कार्यपालिका से प्रश्न करती है तो कभी दिल्ली की गाडियों में काले शीशे बन्द करने का फर्मान सुनाती है । न्यायपालिका रोज ही बैठे ठाले पेशेवर जनहित याचिका दाखिल करने वालों को भी न्यायिक प्रक्रिया में शामिल करके स्वयं को ओवर लोडेड करती रहती है तो दोष किसका? यदि हम अस्पताल के डाकघरों की भर्ती रोक कर जज बढ़ा भी दें और न्यायपालिका जनहित याचिकाओं में स्वयं को और ज्यादा सक्रिय कर ले तो क्या समाधान हुआ? क्यों नहीं न्यायपालिका अन्य सब काम छोडकर अपनी सारी शक्ति आपराधिक मुकदमों के निर्णय पर केन्द्रित कर लेती? जब लोक समस्या महसूस करेगा तब अपने आप सब लोग मिलकर समाधान सोचेंगे । किन्तु न्यायपालिका अनावश्यक पहल करके पूरी तंत्र व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करने की भूल कर रही है । बार-बार प्रश्न उठता है कि यदि विधायिका या कार्यपालिका अपना काम न करे तो क्या न्यायपालिका भी हाथ पर हाथ धरे बैठी रहें? ऐसे प्रश्न एकपक्षीय उठाये जाते हैं । स्पष्ट है कि यदि न्यायपालिका गलत करें तो प्रश्न कौन और किससे किया जा सकता है? क्या न्यायपालिका मालिक है जिससे कोई प्रश्न नहीं हो सकता? क्या न्यायपालिका भगवान है जिससे गलती नहीं हो सकती? कम से कम विधायिका से पांच वर्ष में एक बार चुनाव के समय तो प्रश्न हो सकता है किन्तु न्यायपालिका से तो वह भी व्यवस्था नहीं ।
न्यायपालिका समय-समय पर अपनी सीमाएँ भी खुद ही बदल लेती है । सिद्धान्त रुप से तो न्यायपालिका संविधान संशोधन की समीक्षा के अतिरिक्त हर मामले में कानून के अनुसार न्याय करने को बाध्य है । स्पष्ट है कि न्यायपालिका को स्वतंत्र न्याय का कभी कोई अधिकार नहीं । किन्तु न्यायपालिका अपनी सुविधा अनुसार जब चाहे तब स्वयं को न्यायकर्ता भी मानना शुरु कर देती है और जब चाहे तब कानून से बंधा हुआ मान लेती है । वस्तु स्थिति यह है कि तंत्र के दो भाग न्यायपालिका और कार्यपालिका अर्थात पुलिस मिलकर विधायिका द्वारा बनाई गई प्रक्रिया अनुसार न्याय और सुरक्षा देते हैं । पुलिस भी न्याय का एक अहम हिस्सा होती है । पुलिस द्वारा आरोपित अपराधी निर्दोष न होकर संदिग्ध अपराधी होता है। पता नहीं क्यों और कब से न्यायपालिका पुलिस को एक पक्षकार के रुप में मानकर अपराधी और पुलिस के बीच ही निष्पक्ष न्याय करने लगती है । संदिग्ध अपराधी भले ही घोषित अपराधी न हो किन्तु वह परीक्षण काल तक निर्दोष भी नहीं कहा जा सकता । न्यायपालिका सौ अपराधी भले ही छूट जायें किन्तु कोई निरपराध दडिण्त न हो मानकर न्यायालय में ऐसी बाल की खाल निकालती है कि एक अनुमान के अनुसार लगभग सत्तर प्रतिशत तक वास्तविक अपराधी निर्दोष छूट जाते हैं या जमानत पर छूटकर पुनः अपराध करते हैं । यदि कोई खूंखार अपराधी दर्जनों अपराध करने के बाद भी न्यायिक प्रक्रिया के अन्तर्गत जमानत पर छूटकर पुनः अपराध करें तो दोष किसका? यदि न्यायपालिका अनन्त काल तक या तो अपराधी का फैसला ही न करें या करे भी तो ऐसे अपराधी को सबूत के अभाव में मुक्त कर दे और पुलिस अति सक्रिय होकर उसे गैर कानूनी तरीके से सजा दे दे, तो पुलिस द्वारा दी गई गैर कानूनी सजा अन्याय होगी या न्यायालय द्वारा कानूनी तरीके से अनन्तकाल तक लटकाये रखने का कार्य अन्याय है? न्यायपालिका ऐसी पुलिस की अति सक्रियता के मामलों में अधिक रुचि क्यों लेती है । यदि न्याय और कानून विपरीत दिशा में चलते हैं तो या तो कानून को न्याय की दिशा में सुधरना चाहिये अन्यथा कानून की तुलना में न्याय का पक्ष लिया जाना चाहिए । किसी अपराधी का निर्दोष छूटना पीड़ित पक्ष के प्रति अन्याय है । यदि ऐसा अन्याय बड़ी मात्रा में हो रहा है तो या तो कानून को सुधरना होगा अन्यथा समाज में स्वयं दण्ड देने की इच्छा जाग्रत होगी। आज यदि समाज में प्रत्यक्ष हिंसा का प्रभाव बढ़ रहा है तो उसका महत्वपूर्ण कारण है विलम्बित न्याय, अपराधियों का निर्दोष छूटना और पुलिस की गैर कानूनी सक्रियता के मामलो में न्यायपालिका की अतिसक्रियता । किसी पुलिस वाले ने जनहित की भावना से गैर कानूनी तरीके से किसी की हत्या कर दी तो यह कार्य अपराध न होकर गैर कानूनी मात्र ही होगा । तब तक जब तक उस पुलिस वाले ने अपने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के लिये वह कार्य न किया हो । अपराध और गैरकानूनी का अंतर करने में कर्ता की नीयत महत्वपूर्ण होती है जो न्यायपालिका नहीं समझती या समझना नहीं चाहती। न्यायपालिका कानून की रक्षा के लिये न्याय की अन्देखी करे और पुलिस वाला न्याय के निमित्त कानून की अन्देखी करे तो हम न्यायलय की प्रशंसा करें या पुलिस की । अभी तो हम मानहानि के डर से पुलिस की प्रशंसा नहीं कर पाते किन्तु क्या लम्बे समय तक हम चुप रह सकते हैं? स्वाभाविक है नहीं।
अब सरकार बदली है । पुनः एक दलीय सरकार बनी है । अब तक न्यायपालिका सर्वोच्च के एकपक्षीय नारे को चुनौती मिलनी शुरु हुई है । किन्तु मेरे विचार में सर्वोच्च कौन का यह विवाद पहले भी गलत था और अब भी गलत है । यह सच है कि केशवानन्द भारती केस के माध्यम से न्यायपालिका ने विधायिका पर आंशिक नकेल डालकर भारत में लोकतंत्र को बचा लिया अन्यथा भारत का लोकतंत्र खतरे में था । तत्कालीन न्यायपालिका अपनी इस हिम्मत के लिये बधाई की पात्र है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि न्यायपालिका भी सर्वोच्चतम की छीना झपटी में लग जावे । लोकतंत्र में सर्वोच्च तो सिर्फ लोक ही होता है । तंत्र तो प्रबंधक मात्र होता है । तंत्र के तीनों भाग समकक्ष होते है, उपर नीचे नहीं । यह टकराव अनाव्श्यक है । फिर भी इसलिये हो रहा है कि तंत्र ने लोक को गुलाम या संरक्षित मानकर स्वयं को मालिक मान लिया है । तंत्र के दोनों भाग न्यायपालिका और विधायिका अपनी सर्वोच्चता की लड़ाई इस तरह लड़ रहे हैं जैसे दो लुटेरे मिलकर माल लूट लें और बाद में बंटवारे के लिये आपस में ही छीना झपटी करें । क्या यह अच्छा नहीं होगा कि दोनों स्वयं किनारे होकर लूट का माल वास्तविक मालिक लोक को वापस कर दें? मेरी सलाह है कि अब तंत्र को चाहिये कि वह लोक को अवयस्क की जगह वयस्क मानकर स्वयं को शासन की जगह प्रबंधक मान ले तो भारत का लोकतंत्र इस सर्वोच्चता के अनावश्यक विवाद से बच जायेगा।
Comments