व्यक्तिगत स्वार्थ और आक्रोश की बढ़ती समस्या और समाधान
समाज सर्व व्यक्ति समूह होता है । व्यक्ति समाज की मूल इकाई होता है । व्यक्ति के कुछ प्रकृति प्रदत्त अधिकार होते हैं जिसमें उसकी सहमति के बिना कोई भी अन्य इकाई न उसमें कोई कटौती कर सकती हैं न उसकी कोई अधिकतम सीमा ही बना सकती है । इस प्राकृतिक अधिकार को ही स्वतंत्रता कहते हैं । इस स्वतंत्रता में ही संपत्ति की स्वतन्त्रता भी शामिल होती है ।
व्यक्ति के इस प्रकृति प्रदत्त अधिकार का बहुत दुरुपयोग हुआ । आज परिवार से लेकर विश्व तक ये दो समस्याएं विकराल रूप ग्रहण करती जा रही है । उनमें एक है स्वार्थ और दूसरी है आक्रोश । प्रत्येक व्यक्ति में लगातार स्वार्थ भाव बढ़ रहा है । यह स्वार्थ भाव परिवारों को अस्थिर कर रहा है । भाई-भाई मैं विवाद तो आम बात हो गई है किंतु पिता पुत्र से लेकर पति-पत्नी तक के बीच संपत्ति के झगड़े बढ़ते जा रहे हैं । परिवार के सदस्य स्वार्थ के कारण छल कपट का सहारा ले रहे हैं । आपस में परिवार में ही धोखा देने की प्रवृत्ति बढ़ रही है । न्यायालयों में एक चौथाई मुकदमों का मुख्य आधार है व्यक्तिगत संपत्ति और संपत्ति के विवाद में स्वार्थ भाव का बहुत महत्व है । परिवार से ऊपर राष्ट्र तक स्वार्थ का विशेष प्रभाव है । मानते हैं कि मरते समय सब यही रह जाएगा किंतु जीवन भर स्वार्थ भाव उन्हें अधिकतम धन संग्रह के लिए प्रेरित करता है । अच्छे से अच्छे राजा भी चोरी छुपे धन संग्रह में लिप्त मिलते हैं जिसके लिए उन्हें पूरे राष्ट्र से छल करना पड़ता है । पूरी दुनिया में आत्महत्या बढ़ रही है । यह आत्महत्या भी गरीबो या कमजोरों में कम होकर अपेक्षाकृत मजबूतों में अधिक दिख रही है ।
आत्महत्याओं के पीछे भी किसी ना किसी प्रकार का व्यक्तिगत स्वार्थ छिपा है । हर व्यक्ति अपनी-अपनी व्यक्तिगत योग्यता के लिए अधिकतम प्रयत्नशील है । वह समझता है कि उसकी अपनी व्यक्तिगत योग्यता और क्षमता ही अंत तक उसका साथ देने वाली है।
व्यक्ति के अंदर स्वार्थ जितना घातक है उतना ही घातक है उसका आक्रोश । व्यक्ति यह समझता है कि अंतिम निर्णय उसका व्यक्तिगत है और उसके निर्णय में कोई अन्य कोई साझेदार नहीं है । वह अपने को पूरी तरह स्वतंत्र मानता है । यह स्वतंत्रता भी बहुत घातक है । इस आक्रोश के परिणाम स्वरूप परिवार से लेकर विश्व तक लड़ाई झगड़े मारपीट हिंसा का विस्तार दिखता है । बात-बात पर हिंसा आम बात हो गई है । धीरे-धीरे बल प्रयोग को एक आवश्यक हथियार माना जाने लगा है । परिवारों में भी संवाद बंद हो गया है तो दुनिया में संवाद घटता जा रहा है ।
स्वार्थ और बल प्रयोग की समस्या नई नहीं है । हजारों वर्ष पूर्व भी थी किंतु इन पर सामाजिक नियंत्रण के लिए धर्म और राज्य रूपी दो व्यवस्थाये थी । धर्म व्यक्ति के स्वार्थ को त्याग में बदलने का काम करता था तो राज्य आक्रोश को संवाद में। धीरे-धीरे दोनों व्यवस्थाएं कमजोर हुई और अब स्वतंत्रता के बाद तो लगभग शून्य हो गई । स्वार्थ धूर्तता में और स्वतंत्रता उच्श्रृंखलता में बदल गई । साम्यवादियों ने इस पतन को और ज्यादा गति दी । साम्यवादियों ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिया । कर्तव्य पूरी तरह अधिकार में बदल गया । संवाद और सहजीवन बंद हो गया । पश्चिम ने भी अनियंत्रित स्वतंत्रता को प्रोत्साहित किया । परिणाम हुआ कि भारत सब प्रकार से अव्यवस्था का शिकार हुआ ।
समस्या विकराल है किंतु समाधान भी खोजना होगा । स्वतंत्रता मौलिक अधिकार है इसलिए स्वतंत्रता में व्यक्ति की सहमति के बिना कटौती नहीं हो सकती किंतु स्वतंत्रता में कटौती के बिना स्वार्थ और आक्रोश पर अंकुश भी संभव नहीं । इसलिए हम बीच का मार्ग निकाल सकते हैं । इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को मजबूर किया जाए कि वह अपनी स्वतंत्रता को किसी अन्य के साथ साझा करें । समाजशास्त्र की स्पष्ट परिभाषा है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता और सहजीवन का तालमेल ही समाजशास्त्र है । इस आधार पर कोई भी व्यक्ति जब तक अकेला है तब तक वह व्यक्ति है । नागरिक बनने के लिए उसे सहजीवन स्वीकार करना ही होगा तभी वह सामाजिक व्यवस्था का अंग होगा । इस आधार पर व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के साथ सहजीवन के लिए बाध्य होगा । सहजीवन में संपत्ति और स्वतंत्रता दोनों की सामूहिक हो जाएगी व्यक्तिगत नहीं । ऐसे दो से अधिक व्यक्ति भी एक साथ जुड़ सकते हैं जिनकी संपत्ति और स्वतंत्रता सामूहिक हो । इस आधार पर व्यक्ति के स्वार्थ पर भी अंकुश लग सकता है तथा आक्रोश पर भी । प्रत्येक व्यक्ति की स्वतंत्रता अपने आप सीमित हो गई । व्यक्तिगत संपत्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता किसी की रहेगी ही नहीं । उस व्यक्ति की स्वतंत्रता है कि वह किसके साथ जुड़कर रहना चाहता है । जब व्यक्तिगत संपत्ति का अधिकार ही नहीं रहेगा तो संपत्ति विवाद भी घट जायेंगे तथा जब उच्श्रृंखलता पर सामूहिक दंड होने लगेगा तो परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे पर नियंत्रण रखने का प्रयास करेंगे । परिवार बचपन से ही बच्चों को अनुशासित करेगा । यहीं से त्याग और संवाद की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी ।
आज दुनिया में त्याग की जगह स्वार्थ संवाद की जगह आक्रोश तथा प्रतिस्पर्धा की जगह विरोध का जो वातावरण बनता जा रहा है उसकी जगह संयुक्त संपत्ति संयुक्त उत्तरदायित्व का सिद्धांत एक अच्छा समाधान हो सकता है इस दिशा में सोचा जाना चाहिए ।
इसके लिए हमे दो अलग अलग दिशाओं में काम करना होगा । हम धर्म का विकृत स्वरूप ठीक करे । धर्म को संगठन नहीं बनने दे । धर्म सिर्फ समाज का मार्गदर्शन करें । धर्म लोगों को प्रेरित करे कि वे स्वार्थ और आक्रोश से दूर रहे दूसरी ओर राज्य प्रत्येक व्यक्ति को कानून द्वारा बाध्य करे कि परिवार की संपत्ति और स्वतंत्रता सामूहिक होगी । राज्य और धर्म को इस दिशा में सक्रिय होना चाहिए और अपनी सीमाएं समझनी चाहिए ।
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