समस्याएँ और समाधान भाग छः

समस्याएँ और समाधान भाग छः


हम आप सबने मिलकर चार सप्ताह तक विश्व की प्रमुख समस्याओं पर गंभीर विचार मंथन करके इस निष्कर्ष तक पहुॅचे कि वर्तमान विश्व में समस्याएँ तो हजारों प्रकार की है और यदि सिर्फ प्रमुख समस्याओं की भी चर्चा करें तो वे भी सैकड़ों में हैं किन्तु इन सब प्रकार की समस्याओं का प्रमुख कारण यह है कि राज्य और समाज के बीच के सम्बन्ध पूरी तरह असंतुलित हो गये हैं। राज्य समाज का मैनेजर या सहायक न होकर अभिभावक या मालिक बन गया है। समाधान पर हमने दो सप्ताह तक चर्चा की। चर्चा में यह निष्कर्ष निकला कि राज्य और समाज के बीच संतुलन होना ही वर्तमान सभी समस्याओं का पहला समाधान है। इस समाधान के लिये हमें दो दिशाओं से एक साथ सक्रिय होना होगाः- 1, समाज सशक्तिकरण 2, राज्य कमजोरीकरण। समाज सशक्तिकरण के किसी भी प्रयास में सबसे बड़ी बाधा यह स्पष्ट हुई कि व्यक्ति समाज की मूल इकाई है। व्यक्ति की प्रवृत्ति में स्वार्थ और उच्श्रृंखलता की भावना अधिक हो जाने के कारण हमारे सारे प्रयत्न असफल हो जाते हैं। स्पष्ट है कि हमें अपनी शुरूआत यहीं से करनी होगी कि व्यक्ति के स्वभाव से स्वार्थ और उच्श्रृंखलता पर अंकुश लगे। समाधान की चर्चा में हम इस नतीजे तक भी पहुॅचे कि राज्य कमजोरीकरण के किसी भी प्रयास में सबसे बड़ी बाधा है विश्व का वर्तमान लोकतांत्रिक स्वरूप। लोकतंत्र को लोक नियंत्रित तंत्र के रूप में होना चाहिये था किन्तु दुनियां का लोकतंत्र लोक नियुक्त तंत्र की दिशा में विकसित हो रहा है। हम यहाॅ तक निष्कर्ष निकाल चुके थे कि इन दोनों समस्याओं के समाधान खोजने की पहल भारत के लिये ही संभव है। हम यह निष्कर्ष भी निकाल चुके हैं कि ये दोनों समस्यायें बहुत व्यापक प्रभाव की हैं और समाधान बहुत ही कठिन है क्योंकि समाज का कोई भौतिक ढांचा बना हुआ नहीं है और समाज व्यवस्था में चौतरफा विकृतियां प्रवेश कर चुकी हैं। स्पष्ट है कि समाधान के लिये भी हमें समाज की सभी भौतिक इकाइयों की कमजोरियों पर मंथन करना होगा।

समाज की आपसी संबंधों की प्रमुख इकाइयों में परिवार, गांव, राष्ट्र, राज्य, धर्म, जाति, अर्थ आदि अनेक हैं जो समाज व्यवस्था के सुचारू संचालन में सहायक हैं। इन सभी सामाजिक इकाइयों की कार्यप्रणाली में व्यापक बदलाव करने होंगे। व्यक्ति पर सबसे पहला और व्यापक प्रभाव परिवार का होता है। हम व्यक्ति के स्वार्थ और उच्श्रृंखलता में कमी चाहते हैं तो हमें परिवार व्यवस्था में व्यापक बदलाव करने होंगे। इसका सबसे अच्छा समाधान है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के प्रावधान को समाप्त करके परिवार की संयुक्त सम्पत्ति तथा संयुक्त अधिकार प्रणाली लागू कर दें। व्यक्ति जिस अन्य व्यक्ति के साथ जब तक जुड़ना चाहे यह उसकी स्वतंत्रता हो किन्तु वह जिसके साथ भी जुड़ता है उस परिवार के साथ उसकी सम्पत्ति और स्वतंत्रता तब तक संयुक्त होगी जब तक व्यक्ति उस परिवार के साथ जुड़ा है। परिवार व्यवस्था में एक और बदलाव होना चाहिये कि परिवार का संविधान या कार्यप्रणाली तय करने में परिवार के सभी सदस्यों की भूमिका समान और संयुक्त होगी। परिवार के मुखिया का निर्देश परिवार के प्रत्येक सदस्य के लिये बाध्यकारी होगा तथा परिवार का सामूहिक निर्णय मानना मुखिया के लिये बाध्यकारी होगा। इस एक मात्र बदलाव से व्यक्ति के स्वार्थ और हिंसा के भाव पर अंकुश लग सकता है।
समाज व्यवस्था को सबसे अधिक नुकसान संगठनों की मान्यता से होता है। संगठनवाद धर्म को सम्प्रदाय, जाति व्यवस्था को जातीय टकराव में बदल देता है। धर्म, जाति, भाशा, उम्र, लिंग, गरीब अमीर, किसान मजदूर आदि नाम पर बने संगठन सिर्फ समाज में टकराव पैदा करते हैं। कोई भी संगठन किसी समस्या के समाधान में सहायक नहीं होता। परिवार, गांव और राष्ट्र स्वाभाविक और मान्य संगठन हैं। अन्य किसी प्रकार के संगठन की कोई आवष्यकता नहीं है। संस्थाएँ बन सकती हैं क्योंकि संस्थाएँ समाज व्यवस्था की सहायक होती हैं। इसलिये किसी भी प्रकार के संगठन बनाने पर पूरा प्रतिबंध होना चाहिये। यदि कोई अन्य संगठन बनाना हो तो वह प्रवृत्ति के आधार पर सोचा जा सकता है किसी अन्य आधार पर नहीं।

समाज व्यवस्था के ठीक ठीक संचालन में अर्थ व्यवस्था का भी बहुत योगदान होता है। अर्थ व्यवस्था को पूरी तरह राज्य मुक्त होना चाहिये। लोकतंत्र में जिस तंत्र के पास सेना है, पुलिस है, कानून भी है और न्याय भी है उसी तंत्र के पास अर्थ व्यवस्था के कोई अधिकार नहीं होने चाहिये। बाजार पूरी तरह स्वतंत्र होना चाहिये। वर्तमान व्यवस्था में जो आर्थिक असमानता, श्रमशोषण, गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी आदि दिखती है उन सभी समस्याओं का एक समाधान है कि कृत्रिम उर्जा की बहुत भारी मूल्य वृद्धि करके अन्य सब प्रकार के टैक्स समाप्त कर दिये जायें। सरकार सुरक्षा कर के रूप में सम्पत्ति पर कर लगाकर अपनी व्यवस्था कर सकती है तथा अन्य आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिये कृत्रिम उर्जा की मूल्य वृद्धि करके प्राप्त धन संविधान के अनुसार सब में बराबर बराबर बांट सकती है। कृत्रिम उर्जा मूल्य वृद्धि आर्थिक समस्याओं का अच्छा समाधान है।

धर्म का वर्तमान स्वरूप भी विकृत हो गया है। धर्म व्यक्तिगत होता है, गुण प्रधान होता है, मार्गदर्शक की भूमिका तक सीमित होता है। धर्म ज्यों ही संगठन के स्वरूप में आता है तो धर्म सम्प्रदाय बन जाता है। सम्प्रदाय और धर्म शब्द को पूरी तरह अलग अलग कर देना चाहिये। धर्म का उपयोग हृदय परिवर्तन तक सीमित होना चाहिये।
समाज शब्द बहुत व्यापक है तथा उसका स्वरूप अमूर्त है। समाज का मूर्त रूप है परिवार, गांव तथा राष्ट्र। अब तक विश्व समाज का कोई स्वरूप नहीं बन पाया है। जब दो व्यक्ति एक साथ एकाकार हो गये तो वह दो व्यक्तियों का समाज बन गया और उस समाज को हम परिवार कहते हैं। इसी तरह जब दुनियां के सभी व्यक्ति एक साथ जुड़ गये तो वह समाज हो गया। समाज शब्द का अर्थ विश्व समाज ही होता है। विश्व समाज का भी अपना एक संविधान होना चाहिये जिसमें दुनियां का प्रत्येक व्यक्ति उसका भागीदार हो।

व्यक्ति समाज की प्राथमिक इकाई है और समाज अन्तिम। बीच की सभी इकाइयां समाज की सहायक इकाइयां हैं। व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता और सहजीवन का तालमेल ही समाजशास्त्र है। समाज व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देता है तो व्यक्ति समाज को सहजीवन की सुरक्षा की गारंटी देता है। वर्तमान भारत में धर्म शास्त्र, राजनीति शास्त्र, अर्थ शास्त्र तथा श्रम शास्त्र पर तो व्यापक चर्चा होती है किन्तु समाज शास्त्र की चर्चा ही या तो विकृत हो गई या बन्द हो गई। धर्म समाज का मार्गदर्शक है और राज्य समाज का रक्षक है किन्तु दोनों ने स्वयं को समाज से ऊपर घोषित कर दिया। इस भ्रम को भी समाप्त करना होगा। इसके लिये धर्म और राष्ट्र की तुलना में विश्व समाज को उपर स्थापित करना होगा। साथ ही हमें यह भी स्थापित करना होगा कि सामाजिक बुराइयां दूर करना समाज का काम है राज्य का काम नहीं क्योंकि राज्य समाज का मैनेजर मात्र है मालिक नहीं।

वर्तमान समय में भौतिक उन्नति को ही विकास का एकमात्र पैमाना मान लिया गया है और नैतिक प्रगति का विकास में कोई महत्व नहीं है। भौतिक उन्नति में विज्ञान की प्रगति का योगदान है और वैज्ञानिक प्रगति में शिक्षा महत्वपूर्ण है। अब भौतिक उन्नति के साथ साथ नैतिक उन्नति को भी जोड़कर चलना होगा। नैतिक उन्नति में ज्ञान का महत्व होता है और ज्ञान के विस्तार में विचार मंथन सहायक होता है। विचार मंथन पूरी तरह बंद हो गया। अब परिवार से लेकर विश्व तक की सभी इकाइयों में संवाद प्रणाली को विकसित करना होगा। संवाद प्रणाली अनेक विवादों का समाधान कर सकती है। हम विचार मंथन प्रणाली को भी जागृत करें। विचार मंथन भी सामाजिक समस्याओं के समाधान में सहायक होगा।

अब तक हम समाज सशक्तिकरण के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं तक सीमित रहे। अब हम राज्य कमजोरीकरण की चर्चा करें। राज्य कमजोरीकरण का सबसे प्रमुख आधार है कि तंत्र लोक का मैनेजर और व्यक्ति का नियंत्रक होता है। तंत्र के लिये यह अनिवार्य हो कि वह संविधान की सीमाओं का कभी अतिक्रमण न कर सके। संविधान निर्माण या संशोधन में लोक या लोक द्वारा बनाई गई किसी इकाई का प्रमुख योगदान होना चाहिये और तंत्र संविधान में या तो कोई हस्तक्षेप ही न कर सके या उसकी भूमिका सहयोगी की हो। संविधान सभा को तंत्र से बिल्कुल अलग और समकक्ष होना चाहिये अर्थात् संविधान सभा तंत्र की व्यवस्था में कोई दखल न दे और तंत्र संविधान संशोधन या निर्माण में कोई दखल न दे। यदि संविधान तंत्र के कैदखाने से मुक्त करा लें तो राज्य कमजोरीकरण का अधिकांश काम पूरा हो जायेगा।

इसके साथ साथ हम वर्तमान राजनैतिक कमजोरियों पर भी ध्यान देना होगा। लोकतंत्र भारत के लिये आयातित प्रणाली है। भारत में तो वर्ण व्यवस्था के साथ साथ लोक स्वराज्य को आदर्श प्रणाली माना गया। भारत में लोकतंत्र की विदेशी परिभाषा को न मानकर उसे लोक नियंत्रित तंत्र के रूप में आदर्श प्रणाली माना लेकिन गुलामी के बाद भारत में लोकतंत्र का जो स्वरूप विकसित हुआ वह दुनियां का सबसे अधिक विकृत स्वरूप है। इसका सबसे अच्छा मार्ग तो यह है कि हम एक ओर तो संशोधित वर्ण व्यवस्था की दिशा में आगे बढ़े जिसमें मार्गदर्शक, रक्षक, पालक और सेवक के बीच स्वतंत्र किन्तु संतुलित स्वरूप हो तो दूसरी ओर हम सहभागी लोकतंत्र की दिशा में भी आगे बढ़ें जिसमें परिवार, गांव, जिला, प्रदेश और राष्ट्र की अपनी स्वतंत्र सामाजिक व्यवस्था हो तथा तंत्र स्वयं को सुरक्षा और न्याय तक सीमित कर ले। तंत्र प्रत्येक इकाई की स्वतंत्रता की सुरक्षा तथा उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण का दायित्व तो संभाले किन्तु तंत्र किसी इकाई की इकाईगत स्वतंत्रता में कभी कोई हस्तक्षेप न करे। तंत्र के पास पुलिस, सेना, वित्त, विदेश और न्याय विभाग तो हों किन्तु अन्य सारे विभाग परिवार सभा से राष्ट्र सभा के बीच वितरित हो जाये। इस तरह हम प्रयत्न करें कि राज्य समाज के मामले में तो कमजोर हो और उच्श्रृंखलता पर नियंत्रण में बहुत शक्तिशाली हो सके। वर्तमान में राज्य के पास अधिकतम दायित्व न्यूनतम शक्ति का सिद्धान्त है। अब उसे बदलकर न्यूनतम दायित्व अधिकतम शक्ति के रूप में कर दिया जाये।

वर्तमान संवैधानिक स्वरूप में भी बदलाव होना चाहिये। हमारें संवैधानिक स्वरूप की पांच प्राथमिकताएँ होनी चाहियेः- 1. लोक स्वराज्य 2. अपराध नियंत्रण की गारंटी 3. आर्थिक असमानता में कमी 4. श्रम सम्मान वृद्धि 5. समान नागरिक संहिता। इस प्रकार के बदलाव से भी वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था में बहुत सुधार हो सकता है।संविधान के वर्तमान प्रीयूमबल का स्वरूप इस प्रकार बदलना चाहिए कि ये पांचो प्राथमिकताओं का उद्देश्य पूरा हो सके।