कृषि और पर्यावरण का संतुलन कैसे?
कृषि और पर्यावरण का संतुलन कैसे
यदि हम सम्पूर्ण भारत का आकलन करें तो पूरे देश में पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। समाधान के लिए अन्य अनेक उपायो में से वन विस्तार को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। भारत की न्यायपालिका तक वन विस्तार को बहुत अधिक महत्वपूर्ण मानकर निरंतर हस्तक्षेप करती रहती है। जंगल का क्षेत्रफल किसी भी परिस्थिति में न घटे, बल्कि बढता रहे, इसकी चिंता सभी करते रहते हैं। वन विस्तार के लिए जंगलों में हिसंक जानवर भी बढाये जा रहे हैं। पर्यावरणविद भी बहुत चिंता करते हैं। यदि कोई व्यक्ति एक भी पेड काट ले तो पर्यावरणविद ऐसा महसूस करते हैं जैसे कि उनकी जान चली गई हो। किसी व्यक्ति को अपनी भूमि पर लगाये गये अपने पेड काटने पर भी न्यायालय हस्तक्षेप करता है। स्पष्ट है कि वन विस्तार हमारे देश की एक मुख्य आवश्यकता है और उस पर सारी दुनिया अपनी नजर रखती है।
सिंचाई भी एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। पानी का स्तर निरंतर घटता जा रहा है क्योंकि जल संग्रह क्षेत्र सिकुड रहे हैं। तालाब पाटे जा रहे हैं। देश भर में कुएं और तालाब के विस्तार को बहुत महत्व दिया जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त राजेन्द्र सिंह जी ने तो इस समस्या को इतना महत्व दिया है कि वे पानी के अभाव को ही युद्ध का कारण तक बताते हैं। खेती के लिए भी सिंचाई महत्वपूर्ण आवश्यकता है। जगह जगह छोटे से लेकर बडे बडे बांध बनाये जा रहे है जिनमे हजारो एकड जमीन और जंगल डुब जाते है। फिर भी सिचाई की महत्ता को देखते हुए यह कार्य किया जा रहा है।
देश की आबादी लगातार बढ़ रही है। स्वतंत्रता के 70 वर्ष बीतते बीतते आबादी चार गुनी बढ़ गई है। स्वाभाविक है कि आबादी की वृद्धि के हिसाब से सुविधाओं की भी जरुरत बढी है। रहने के लिए घर, आवागमन के लिए रेल सडक, पढने के लिए स्कूल और स्वास्थ के लिए अस्पताल बढे भी हैं और निरंतर बढने भी चाहिये। व्यवस्था के लिए अलग अलग कार्यालय भी खोलने आवश्यक हैं। इस संबंध में भी सारे देश में कोई न कोई आन्दोलन होते ही रहते हैं।
देश के विकास के लिए कल कारखाने और उद्योग धंधो का विस्तार भी बहुत आवश्यक है। यदि उद्योगों का विस्तार नहीं होगा तो देष का विकास रुक जायेगा। हमारे निर्यात पर दुष्प्रभाव पडेगा। वर्तमान सरकार तो विकास को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दे रही है। देश के विकास के लिए खदानों को भी बहुत उपयोगी माना जा रहा है। कोयला सहित अनेक प्रकार की खदानों का निरंतर विस्तार जारी है।
आबादी की वृद्धि और अनाज के मामले में आत्मनिर्भर बनने के लिए कृषि उत्पादन का बढना भी सर्वोच्च प्राथमिकता मानी जा रही है। यदि कृषि उत्पादन नहीं बढा तो लोग हवा पानी उद्योग और अस्पताल स्कूल के सहारे जीवित नहीं रह सकते। स्पष्ट है कि कृषि उत्पादन तेजी से बढना चाहिये।
उपर में सभी पाॅच बातें इस बात पर निर्भर करती हैं कि हमारे पास भूमि का क्षेत्रफल क्या है और उसका आपस मे समायोजन कैसे हो? स्पष्ट है कि भूमि का क्षेत्रफल निश्चित है और आवश्यकताओ का बढना अनन्त है । वन विस्तार भी हो, सिचाई भी बढे, खेती भी बढे, और उधोग धंधे भी बढे तो भूमि का बटवारा किस प्रकार होगा यह कौन तय करेगा । मेधा पाटकर नारा लगाती है कि किसी की जमीन घर डूब में नहीं आनी चाहिये तो प्रो0 राजेन्द्र सिंह निरंतर आन्दोलन करते हैं कि पानी की समस्या सबसे पहले सुलझना चाहिये। राजगोपाल जी भी जल जंगल जमीन के लिए देश भर में आन्दोलन करते रहे हैं। अभी दो चार दिन पहले भी ऐसे आन्दोलनकारियों का जमघट हजारों की संख्या में दिल्ली में देखा गया है। उद्योगों पर तो मोदी जी सबसे अधिक ध्यान दे रहे है। आदिवासियों की जमीन उनके पास रहे इसके लिए ब्रम्हदेव शर्मा सहित अनेक लोग निरंतर संघर्ष करते रहे हैं। कृषि भूमि किसी भी परिस्थिति में न घटे इसकी मांग तो होती ही रहती है तो प्रश्न उठता है कि भूमि का क्षेत्रफल कैसे बढे और यदि क्षेत्र बढाना असंभव है तो कृषि को नुकसान पहॅुचाये बिना शेष चार जगह भूमि वितरण को संतुलित कैसे किया जाये। हर आदमी को घर बनाने के लिये तथा खेती के लिये थोडी थोडी जमीन मिलनी चाहिये यह मांग सही है किन्तु कहां से जमीन निकले और कहां कटौती हो इसका उत्तर किसी मांग कर्ता के पास नही है। पांच प्रकार की अलग अलग मांग करने वाले कभी एक साथ बैठकर समाधान नही खोजते। यहां तक कि ये लोग एक दूसरे की मांग मे शामिल तक हो जाते है। समस्या जटिल है और समाधान मिल बैठकर ही संभव है। हमारी मांगे पूरी हों चाहे जो मजबूरी हो के समान नारे लगाने वाले समाधान नहीं खोजना चाहते क्योंकि ऐसे नारे लगाना तो उनकी दुकानदारी है। यह दुकानदारी उस समय बहुत घातक हो जाती है जब ऐसे पेशेवर लोग विदेशो से धन और सम्मान लेकर ऐसे किसी संतुलन में बाधा पहुॅचाते हैं। मैं जानता हैू कि ये पर्यावरण, जल और वन विस्तार, सबको घर मकान और सबको भूमि का नारा लगाने वाले न स्वयं पेड लगाते है न ही छोटे घर में रहते है और कभी स्वयं खेती भी नहीं करते क्योंकि नारा लगाना उनका व्यवसाय है।
किन्तु हम सबको मिलकर तो इस समस्या का समाधान करना ही चाहिये । खेती से जुडी एक महत्वपूर्ण समस्या यह भी है कि प्रतिवर्ष हजारों किसान आत्महत्या करते हैं और यह सिलसिला रुक नहीं रहा। कृषि उत्पादन बढे और कृषि का क्षेत्रफल घटे ये दोनों एक साथ अस्वाभाविक है और इसके अतिरिक्त कोई अन्य मार्ग भी नहीं है। हमें कृषि की भूमि में कटौती करके अन्य चार को मजबूत करना होगा तथा साथ में कृषि उत्पादन भी बढाना ही होगा। प्राचीन समय में भारत कृषि पर निर्भर था। यह भावनात्मक निर्भरता ही हमारी समस्याओं का प्रमुख कारण है। कृषि को उद्योगमाना जाये और किसान को श्रमिक एवं उद्योगपति के बीच से पूरी तरह निकाल दिया जाये तो ये दोनों काम एक साथ संभव हैं। छोटी छोटी जमीने बडे उद्योगपतियों के द्वारा खरीद ली जा सकती हैं। तकनीक के सहारे कृषि उत्पादन कम भूमि में बढाया जा सकता है। अभाव में मर रहे छोटे किसान श्रम करके आराम से रह सकते हैं। मेरे विचार से हमें किसान शब्द का परम्परागत मोह वर्तमान परिस्थितियों के आधार पर छोड देना चाहिये। सरकार छोटे किसानों को व्याज मुक्ति या कुछ सब्सीडी देकर उन्हें जिंदा रखने का प्रयास करती है। और ऐसे ही प्रयास में से कुछ लोग आत्महत्या करते हैं। इसे तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक कि उन्हें मजदूर या बडे किसान में से एक दिशा में बढने की छूट न दी जाये। खेती के नाम पर दी जा रही अनेक प्रकार की सुविधाए उन्नत खेती के विकास मे बाधक बन रही है। न्याय के नाम पर व्यवस्था लगातार कमजोर हो रही है। मैं जानता हॅू कि आदिवासी के नाम से लाखो एकड ऐसी जमीन फंसी हुई है जो बहुत कम उत्पादन कर पा रही है। यदि हम आदिवासी को भारत का सामान्य नागरिक मानना शुरु कर दें तो आदिवासी भी अपने को छोटे किसान से मुक्ति पा लेगा और भूमि उन्नत तकनीक की दिशा में बढ जायेगी।
मैं जानता हॅू कि कुछ लोग यह प्रश्न उठायेंगे कि किसानों को एकाएक छूट बंद कर देने से उनकी आत्महत्या बढ सकती है । मैं समझता हॅू कि जल्दी ही आत्महत्याए पूरी तरह बंद हो जायेगी क्योंकि आमतौर पर मजदूर आत्महत्या नहीं कर रहे और छोटे किसान कर रहे हैं। न तो छोटे किसान रहेंगे न ही आत्महत्या होगी। मैं यह भी जानता हॅू कि विदेशो से पैसा लेकर हमारी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने वाले अनेक परजीवी इसमें बहुत बाधा पैदा करेंगे। वे आन्दोलन करेगे जल जगंल जमीन का, डूब का, सबको भूमि वितरण का और साथ ही आदिवासी के लिए। इस जमात को विदेशो से भी बहुत प्रोत्साहित किया जायेगा। इस परजीवी जमात से तो हमें निपटना ही पडेगा। मैं चाहता हॅू कि भूमि का अच्छे से अच्छा उपयोग हो और भूमि के क्षेत्रफल में सब बैठकर समन्वय स्थापित करें कि कम से कम भूमि में अधिक से अधिक उत्पादन कैसे लिया जा सकता है। सभी समस्याओ के एक मुश्त समाधान के लिये कुछ न कुछ तो करना ही होगा और मुझे यह मार्ग अधिक उपयुक्त तथा सुविधाजनक लगता है।
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