भारत में संसदीय लोकतंत्र

भारत में संसदीय लोकतंत्र

 समाज सर्वोच्च होता है। धर्म, राज्य, अर्थ तथा श्रम उसके सहायक होते है। भारत ने समाज व्यवस्था को सर्वोच्च माना, पश्चिम ने अर्थव्यवस्था को साम्यवाद ने राज्य व्यवस्था को तथा इस्लाम ने धर्म व्यवस्था को। प्राचीन समय में भारत वर्ण व्यवस्था तथा परिवार व्यवस्था को सर्वाधिक महत्व देता था। धीरे धीरे वर्ण व्यवस्था और परिवार व्यवस्था में रूढिवाद आया, विकृतियाँ आई, भारत में चिन्तन मंथन बंद हो गया और भारत आँख बंद करके दुनियाँ की नकल करने लग गया। पश्चिम के देशों ने भारत को लोकतंत्र और पूंजीवाद दिया, साम्यवादी देशों ने भारत को राजतंत्र दिया और मुस्लिम देशों ने भारत को साम्प्रदायिकता दी। भारत ने तीनों को स्वीकार कर लिया। वर्ण व्यवस्था और परिवार व्यवस्था की कमियों को दूर करने की अपेक्षा उसे टूटने दिया। यह एक भूल हुई। भारत में चार व्यवस्थाओं का समन्वय था - धर्म, राज्य, अर्थ और श्रम। पश्चिम की नकल करने के बाद भारत में राज्य सबसे अधिक महत्वपूर्ण बन गया और धीरे धीरे राज्य ने पूरी तरह समाज को गुलाम बना लिया। इस गुलामी में धर्म, अर्थ और श्रम या तो राज्य के पीछे चलने लगे अथवा निष्क्रिय और प्रभावहीन हो गये।

 

दुनियां में लोकतंत्र भी कई प्रकार के हैं। कहीं राष्ट्रपतीय प्रणाली है, कहीं प्रत्यक्ष लोकतंत्र है तो कहीं संसदीय लोकतंत्र है। भारत ब्रिटेन की गुलामी से मुक्त हुआ था और गुलामी काल में ही संविधान बनना शुरू हो गया था। इसलिये भारत ने संसदीय लोकतंत्र को अपनाया। इस संसदीय लोकतंत्र प्रणाली में भारत ने परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को पूरी तरह नकार दिया। दूसरी ओर इन्होंने धर्म, जाति जैसे अनेक समाज तोड़क प्रावधान संविधान में शामिल कर दिये। पश्चिम के अनेक लोकतांत्रिक देशों में संविधान संशोधन के लिये अप्रत्यक्ष रूप से जनमत संग्रह की भी व्यवस्था है किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओं ने हर मामले में तो ब्रिटेन की नकल की लेकिन संविधान संशोधन का अंतिम अधिकार भी तंत्र को दे दिया। इससे सिद्ध होता है कि इनकी नीयत खराब थी। समाज व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने के लिये इन्होंने वर्ग निर्माण, वर्ग विद्वेष का सहारा लिया तो परिवार व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने के लिये इन्होंने परिवार की परिभाषा ही बदल दी। स्वतंत्रता के पूर्व भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली लागू थी इसमें परिवार के सभी सदस्यों के अधिकार सामूहिक होते थे। संविधान निर्माताओं ने संयुक्त परिवार प्रणाली को अस्वीकार करके सम्मिलित परिवार प्रणाली लागू कर दी जिसका अर्थ है कि परिवार के प्रत्येक सदस्य को परिवार में रहते हुये भी अलग अलग संवैधानिक अधिकार होंगे। इस परिभाषा में बदलाव के कारण परिवार टूटे।

 

संसदीय लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष की प्रणाली लागू होती है। निर्वाचित जनप्रतिनिधि प्रारंभ से ही दल प्रतिनिधि बन जाता है और स्वतंत्रता पूर्वक किसी भी विषय पर संसद में अपना मत नहीं रख पाता। आदर्श स्थिति में जनप्रतिनिधि को संसद में अपनी बात रखने की पूरी स्वतंत्रता होनी चाहिये। किन्तु हमने आँख बंद करके ऐसी नकल की कि जनप्रतिनिधि को भी हमारी बात संसद में रखने की स्वतंत्रता नहीं है। मैं नहीं समझा कि नकल करने में भी हमारे संविधान निर्माताओं ने अपनी अकल का उपयोग क्यों नहीं किया। प्रारंभ में तो अप्रत्यक्ष रूप से संसद में जनप्रतिनिधित्व था और संविधान के अनुसार उन्हें बोलने की आंशिक स्वतंत्रता भी थी किन्तु बाद में राजीव गांधी के कार्यकाल में वह स्वतंत्रता भी पूरी तरह छीन ली गई। देश की जनता ने कई बार संसदीय लोकतंत्र को सहभागी लोकतंत्र अथवा लोकस्वराज्य की दिशा में ले जाने की बात उठाई। कई बार दल विहीन लोकतंत्र की मांग भी उठी किन्तु हमारे राजनेताओं ने लगातार संविधान में मनमाने संशोधन करके अपने अधिकारों का दुरूपयोग किया और समाज के अधिकार इतने कम कर दिये कि अप्रत्यक्ष रूप से हमारे जनप्रतिनिधि भी भेड़ बकरे सरीखे खरीदने बिकने लगे। कई बार राष्ट्रपतीय प्रणाली की भी आवाज उठी लेकिन हमारे स्वार्थी नेताओं को संसदीय प्रणाली का भारतीय स्वरूप इतना अच्छा लगा कि इन्होंने किसी भी सुधारात्मक प्रस्ताव पर विचार करना ही उचित नहीं समझा।

 

लोकतंत्र, तानाशाही और लोकस्वराज्य में एक महत्वपूर्ण फर्क होता है। तानाशाही में कुव्यवस्था भी हो सकती है और सुव्यवस्था भी किन्तु अव्यवस्था नहीं होती। लोकतंत्र में अव्यवस्था ही होती है कुव्यवस्था या सुव्यवस्था नहीं होती। लोकस्वराज्य में स्वव्यवस्था होती है-जो सुव्यवस्था मानी जाती है। लोकस्वराज्य में कुव्यवस्था या अव्यवस्था नहीं होती। भारत को संसदीय लोकतंत्र से आगे बढ़कर सहभागी लोकतंत्र की दिशा में जाना चाहिये था किन्तु भारत नकल करने के लिये इतना प्रसिद्ध हुआ कि वह मौलिक चिन्तन ही नहीं कर सका और वह संसदीय लोकतंत्र से चिपक गया। संसदीय लोकतंत्र पश्चिम के देशों में जीवन पद्धति से शुरू होकर शासन पद्धति तक आया परिणामस्वरूप वहाँ अव्यवस्था कम हुई। भारत या अन्य दक्षिण एशिया के देशों में लोकतंत्र जीवन पद्धति से न आकर सिर्फ शासन पद्धति तक आया इसलिये भारत सहित इन देशों में अव्यवस्था अधिक बढ़ती रही। दक्षिण एशिया के अन्य देश तो कभी कभी तानाशाही के माध्यम से अव्यवस्था को कम करते रहे किन्तु भारत लगातार संसदीय लोकतंत्र से चिपका रहा इसलिये भारत में निरंतर अव्यवस्था बढ़ती रही और हार थक कर भारत ने अव्यवस्था के समाधान के लिये वर्तमान संसदीय तानाशाही की दिशा में धीरे धीरे बढ़ना शुरू किया। भारत की जनता अच्छी तरह जानती थी कि मनमोहन सिंह का कार्यकाल संसदीय लोकतंत्र का सबसे अच्छा कार्यकाल रहा और सबसे अधिक अव्यवस्था उन्हीं के कार्यकाल में परिलक्षित हुई। परिणामस्वरूप सबकुछ समझते हुये भी जनता नरेन्द्र मोदी को आगे बढा रही है और भविष्य में भी लक्षण इसी दिशा में बढते दिख रहे है।

 

हम देख रहे है कि भारत में राजनीति पूरी तरह व्यवसाय बन गई है। कोई भी ऐसा नेता नहीं दिख रहा जिसके कथन को सत्य मानने की कोई गारंटी हो। राजनीति में शत प्रतिशत भ्रष्टाचार घुस गया है। नरेन्द्र मोदी, मनमोहन सरीखे गिने चुने लोग ही बचे होंगे जिन्हें व्यक्तिगत रूप से ईमानदार कहा जा सकता है किन्तु पार्टी के लिये इसकी भी कोई गारंटी नहीं है। संसद में विचार मंथन तो शून्य होता है किसी विषय पर नूराकुश्ती ही देखने को मिलती है और आमतौर पर गुंडागर्दी, मारपीट या हिंसा भी दिख जाया करती है। बडे बडे नेता सडको पर खुलेआम कानून तोडते है और इस कानून उल्लंघन के कार्य को संवैधानिक बताते हैं। जिस तरह मोहल्ले के दो गुंडों के बीच स्वतंत्र युद्ध होता है उस तरह का युद्ध सड़को पर पुलिस और राजनेताओं के बीच प्रतिदिन देखने को मिलता है। प्रतिदिन समाचार मिलता है कि किसी एक पक्ष द्वारा लोकतंत्र की हत्या की खुलेआम घोषणा की जाती हैं। भारत का हर राजनेता कभी न कभी लोकतंत्र की हत्या की बात सार्वजनिक रूप से घोषित करता है किन्तु पता नहीं भारत का लोकतंत्र प्रतिदिन किस प्रकार मरता है कि वह लगातार जीवित रहता है। ऐसा लगता है कि भारत का लोकतंत्र कब मरता है कब जिन्दा रहता है, यह बात सिर्फ तंत्र ही जानता है लोक नहीं। राजनीति का स्तर इस सीमा तक नीचे चला गया कि उसका दुष्प्रभाव आम जनता पर भी बुरा पड़ रहा है फिर भी हमारे नेता और उनके चमचे सामाजिक साहित्यिक लोग खुलेआम कहते है कि भारत का लोकतंत्र सबसे अच्छा है, सबसे मजबूत है और टिकाऊ है। वही नेता थोडी देर के बाद लोकतंत्र की हत्या की घोषणा कर देता है और वही थोड़ी देर बाद लोकतंत्र के दीर्घायु होने की बात भी हमें समझा देता है। समाज का स्तर गिर रहा है, पूंजीपतियों का स्तर भी गिर रहा है। धन का महत्व राजनीति में बढता जा रहा है। खुलेआम धन के बल पर मतदाता खरीदे जा रहे है, सांसद खरीदे जा रहे है और लोकतंत्र के मजबूत होने की दुहाई दी जा रही है। पैसे और धन के ताकत पर मीडिया और साहित्यकारों, कलाकारों को खरीदा जाता है और जो नहीं बिकता उसे कोई राष्ट्रीय सम्मान देकर उसका मुँह बंद कर दिया जाता है। अच्छे अच्छे धर्म गुरू भी संसद में जाने के लिये लालायित हैं, लोकतंत्र की चापलूसी कर रहे हैं। आश्चर्य हुआ जब प्रणव पाण्डया ने राज्य सभा की सदस्यता अस्वीकार करके एक इतिहास रचा। भविष्य में शायद ऐसे भी लोग न निकल सकें क्योंकि जब लोकतंत्र के नाम पर तंत्र द्वारा लोक को गुलाम बनाने की प्रतिस्पर्धा ही चल रही हो, तब कोई धर्मगुरू, विचारक या साहित्यकार ’लोक’ का नेतृत्व न करके तंत्र के साथ बहती गंगा में हाथ धोने के लिये तैयार क्यों न हो जाये। दुनियां जानती है कि लोकतंत्र में संविधान के अन्तर्गत तंत्र संचालित होता है और तानाशाही में तंत्र के नियंत्रण में संविधान होता है। आज तक भारत के किसी विद्वान, धर्मगुरू अथवा राजनेता ने यह नहीं बताया कि भारत में संसदीय लोकतंत्र है अथवा संसदीय तानाशाही। कोई अंधा भी या अपढ़ नासमझ भी अच्छी तरह जानता है कि भारत में तंत्र को संविधान संशोधन के असीम अधिकार प्राप्त है परन्तु किसी की यह हिम्मत नहीं कि वह इस बात को जनता को बीच साफ कर सके।

 

भारत प्राचीन समय से ही दुनियाँ को मार्गदर्शन देता आया है। वर्तमान समय में भारत नकल करने के लिये मजबूर हो गया है। यह स्थिति दुःखद है। हम लोकतंत्र के मामले में दुनियां के सामने एक नई रोशनी दिखा सकते हैं। सबसे अच्छा तरीका तो यह होगा कि संसदीय लोकतंत्र की जगह लोकस्वराज्य या सहभागी लोकतंत्र स्थापित हो। संविधान संशोधन के तंत्र के असीम अधिकार हटाकर उसके लिये लोक नियंत्रित संविधान सभा बने जिसमें तंत्र की भूमिका सिर्फ प्रस्तावक की हो, निर्णायक की नहीं। यदि ऐसा भी सम्भव न हो तो भारत में दलविहीन लोकतंत्र स्थापित हो और यदि ऐसा भी संभव न हो तो कम से कम दल बदल कानून द्वारा हमारे सांसदों के मुँह पर लगाया गया जाब हटा दिया जाये जिससे वे संसद में लोक की बात को स्वतंत्रता पूर्वक रख सकें। परिवार व्यवस्था और समाज व्यवस्था को मान्यता दी जाये। वर्ग संघर्ष के प्रयत्नों को बंद किया जाये। संभव है कि हम लोकतंत्र का एक नया संस्करण दुनियां के सामने प्रस्तुत कर पाएँगे और सि़द्ध करेंगे कि भारत अब पुनः दुनियां को मार्गदर्शन करने की शुरूआत कर रहा है।