शिक्षित बेरोजगारी शब्द कितना यथार्थ ? कितना षणयंत्र ?

दुनियाँ मे दो प्रकार के लोग है । 1 श्रम प्रधान 2 बुद्धि प्रधान । बहुत प्राचीन समय मे बुद्धि प्रधान लोग श्रम जीवियों के साथ न्याय करते होंगे किन्तु जब तक का इतिहास पता है तब से स्पष्ट दिखता है कि बुद्धि प्रधान लोगो मे हमेशा ही श्रम का शोषण किया । वर्ण व्यवस्था को कर्म के आधार से हटाकर जन्म के आधार पर कर दिया गया और सारे सम्मानजनक कार्य अपने लिये आरक्षित कर लिये गये, चाहे योग्यता हो या न हो । विदेशो मे भी सस्ती कृत्रिम उर्जा का अविष्कार करके श्रम शोषण के अवसर खोज लिये गये । स्वतंत्रता के बाद भारत के बुद्धिजीवियों ने भी उसी का अनुसरण किया और कभी कृत्रिम उर्जा के मूल्य को नही बढ़ने दिया । उसी तरह विदेशो की नकल करते हुए भारत मे एक शिक्षित बेरोजगारी शब्द प्रचलित कर दिया गया जिसके माध्यम से रोजगार के अवसरो मे भी बुद्धिजीवी अच्छे अवसर प्राप्त करने लग गये । इन लोगो ने शिक्षा को मौलिक अधिकार घोषित करने का भी पूरा प्रयत्न किया तथा गरीब ग्रामीण श्रमजीवियों के उत्पादन और उपभोग की वस्तुओ पर टैक्स लगाकर शिक्षा पर खर्च करना शुरू कर दिया । आज भी भारत का हर बुद्धिजीवी सस्ती कृत्रिम उर्जा शिक्षा पर बजट शिक्षित बेरोजगारी जैसे शब्दो का धड़ल्ले से प्रयोग करता है । आज भी भारत मे ऐसा कोई बुद्धिजीवी नही दिखता जो शिक्षा का बजट बढ़ाने की बात न करता हो ।

    कोई भी शिक्षित व्यक्ति कभी बेरोजगार नही हो सकता । वह तो उचित रोजगार की प्रतीक्षा मे रहता है । श्रमजीवियों के पास रोजगार का एक ही माध्यम होता है शारीरिक श्रम जबकी शिक्षित व्यक्तियो के पास शारीरिक श्रम तो होता ही है साथ-साथ शिक्षा उनके पास अतिरिक्त साधन के रूप मे होती है । मै आज तक नही समझा कि कोई भी व्यक्ति शिक्षित होने के बाद भी बेरोजागर कैसे हो सकता है । इन लोगो ने बेरोजगारी शब्द की भी एक नकली परिभाषा बना दी । एक भूखा व्यक्ति दो सौ रूपये मे काम करने को मजबूर है, किन्तु उसका नाम बेरोजगारो की सूची मे नही है । दूसरी ओर एक पढा लिखा व्यक्ति 200 रूपये मे काम करने को तैयार नही है । कुछ लोग तो हजार रूपये प्रतिदिन पर भी नौकरी न करके अच्छी नौकरी की खोज मे लगे रहते हैं किन्तु वे बेरोजगार की सूची मे है । विचार करिये कि ऐसे शोषक बुद्धिजीवियों को श्रमजीवी शिक्षा प्राप्त करने मे भी टैक्स दे ओर शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी उनके रोजगार की व्यवस्था करे किन्तु इन तथाकथित शिक्षित बेरोजगारो को कभी शर्म नही आती । और वे हमेशा समाज से और सरकार से कुछ न कुछ मांग करते रहते है ।

     यदि हम बेरोजगारी का सर्वेक्षण करे तो खेतो मे काम करने के लिये आदमी नही मिलते और सरकारी नौकरी के लिये इतनी भीड़ उमड़ती है क्योंकि दोनो के बीच मे सुविधा और सम्मान का बहुत ज्यादा फर्क है । यही कारण है कि आज शिक्षा प्राप्त करने के लिये एंव शिक्षा प्राप्त करने के बाद नौकरी के लिये भाग दौड़ दिखाई देती है ।

       दुनियाँ मे पहली बार वर्तमान सरकारो ने इस विषय पर कुछ करने की हिम्मत दिखाई है । बिहार मे नीतिश कुमार और उत्तर प्रदेश मे योगी आदित्यनाथ ने परीक्षाओ मे नकल रोकने की पहल की । मै जानता हूँ कि इस पहल के विरूद्ध इन दोनो पर कितना दबाव पड़ा किन्तु ये अब तक अडिग है । इसी तरह पहली बार केन्द्र सरकार ने छोटे-छोटे स्वतंत्र रोजगार को भी रोजगार कहने का खतरा उठाया । देश भर के बुद्धिजीवियो ने पकौड़ा पौलिटिक्स कहकर इस अच्छे प्रयास का मजाक भी उड़ाया और विरोध भी किया । ऐसा सिद्ध किया गया जैसे शिक्षित बेरोजगारो का अपमान किया जा रहा है । सच्चाई यह है कि आज तक जिस तरह लघु उद्योग और श्रम का अपमान किया जाता रहा उस अपमान पर मरहम लगाने की आवश्यकता थी । टीवी पर बहस सुनकर ऐसा लगा जैसे पकौड़ा बेचना बहुत नीचे स्तर का कार्य है और पकौड़ा बेचने वालो से टैक्स लेकर शिक्षा प्राप्त करना तथा शिक्षा प्राप्त करने के बाद नौकरी के लिये भाग दौड़ करना बहुत अच्छा कार्य है । मेहनत करने वाला नीचे स्तर का आदमी है और कुर्सी पर बैठकर मेहनत करने वालो का रस चूसने वाला सम्मानित । शिक्षित बेरोजगारी के नाम पर ऐसे लोगो ने जिस तरह श्रम के साथ अन्याय किया वह बहुत ही कष्टदायक रहा है । अब इस विषय पर कुछ सोचने की आवश्यकता है । मै तो धन्यवाद दूंगा मोदी जी को जिन्होने सारे खतरे और विरोध झेलकर भी पकौड़ा पौलिटिक्स का मुँहतोड़ जवाब दिया । शिक्षित बेरोजगारी का हल्ला करने वालो का मुँह बंद हो गया ।

           आदर्श स्थिति यह होगी कि अब सम्पूर्ण नीति मे बदलाव किया जाए और श्रम शोषण के सभी बुद्धिजीवी षणयंत्रो से श्रम को बचाया जाय । देश के विकास की गणना श्रम मूल्य वृद्धि के आधार पर होनी चाहिये । शिक्षा का पूरा बजट रोक कर श्रमिको के साथ न्याय पर खर्च होना चाहिये । गरीब ग्रामीण श्रमजीवी कृषि उत्पादन, वन उत्पादन, पर से सारे टैक्स हटाकर कृत्रिम उर्जा पर लगा देनी चाहिये । जो शिक्षा प्राप्त लोग श्रमजीवियो की तुलना मे अधिक लाभ के पद पर है उन्हे अधिक टैक्स देना ही चाहिये । इसी तरह बेरोजगार की परिभाषा भी बदल देनी चाहिये । किसी स्थापित व्यवस्था द्वारा घोषित न्यूनतम श्रम मूल्य पर योग्यतानुसार काम का अभाव बेरोजगारी की सही परिभाषा होती है । जो व्यक्ति न्यूनतम श्रममूल्य पर योग्यतानुसार काम नही करना चाहता वह उचित रोजगार की प्रतीक्षा मे है बेरोजगार नही । उसे प्रतिस्पर्धा के माध्यम से रोजगार की पूरी स्वतंत्रता है किन्तु उसे समाज और सरकार की दया की पात्रता नही है । श्रम के साथ अन्याय करने मे सबसे अधिक भूमिका साम्यवादियो की रही है । वे कभी कृत्रिम उर्जा का मूल्य नही बढ़ने देते । वे कभी शिक्षित बेरोजगारी की परिभाषा नही बदलने देंगे । वे कभी नही चाहते कि श्रम का मूल्य बढ़े । वे तो श्रम का का मूल्य इस प्रकार बढ़वाना चाहते है जिससे समाज मे श्रम की मांग घटे और श्रम जीवियो के हाथ से रोजगार निकल कर मशीनों के पक्ष मे चला जाये । अब साम्यवाद से मुक्ति मिल रही है और साथ ही शिक्षित बेरोजगारी के बुद्धिजीवियो के षणयंत्र से भी मुक्ति मिलनी चाहिये ।

मै मानता हूँ कि शिक्षा श्रम के अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण है किन्तु दोनो के बीच इतना असंतुलन नही होना चाहिये । शिक्षा को ज्ञान का माध्यम मानना चाहिये रोजगार का नही । शिक्षा को श्रम शोषण का आधार नही बनाया जा सकता जैसा कि आज हो रहा है । जिस तरह नौकरी की चाहत वालो ने श्रमिक रोजगार का मजाक उड़ाया और उसे कुछ राजनैतिक समर्थन मिला वह चिंता का विषय है । नौकर मालिक की गरीबी का पकौड़ा बेचने वाला कहकर मजाक उड़ाएँ यह गलत संदेश है । इस बात पर सोचा जाना चाहिये । मेरे विचार मे निम्नलिखित निष्कर्षो पर मंथन होना चाहिये ।

1 प्राचीन समय से ही दुनियाँ मे श्रम के साथ बुद्धिजीवियो का षणयंत्र चलता रहा है । भारत मे भी निरंतर यही होता रहा है और आज भी हो रहा है । इसे बदलना चाहिये ।

2 कोई भी शिक्षित व्यक्ति कभी बेरोजगार नही हो सकता क्योंकि बेरोजगारी का संबंध शारीरिक श्रम से है और शिक्षित व्यक्ति के पास शारीरिक श्रम के अतिरिक्त शिक्षा भी एक अतिरिक्त माध्यम होता है ।

3 गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, कृषि उत्पादन, उपभोग की वस्तुओ पर टैक्स लगाकर शिक्षा पर खर्च करना और फिर ऐसे शिक्षित लोगो को रोजगार देने का प्रयास श्रमजीवियों के साथ अन्याय है ।

4 शिक्षित बेरोजगार शब्द श्रम शोषण का षणयंत्र है क्योकि इस षणयंत्र के अंतर्गत बुद्धिजीवियो ने बेरोजगारी की परिभाषा बदल दी है ।

5 बेरोजगारी के अच्छी परिभाषा यह है कि किसी स्थापित व्यवस्था द्वारा घोषित न्यूनतम श्रम मूल्य पर योग्यतानुसार काम का अभाव ।

6 शिक्षा या तो ज्ञान के लिये हे या रोजगार के लिये । यदि नौकरी के लिये होने लगे तो वह निकृष्ट प्रयत्न है ।

7 दुसरो के टुकड़ो पर पलने वाले शिक्षार्थी तथा नौकरी मांगने वाले भिखारी स्वतंत्र श्रमिक की अवहेलना करने यह विदेशी मानसिकता है, भारतीय नही । इसे निरूत्साहित करने की आवश्यकता है ।

8 योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश मे कड़ाई से नकल रोकने तथा नरेन्द्र मोदी ने शिक्षित बेरोजगारी शब्द पर आक्रमण करके बहुत हिम्मत का काम किया है । इनका पूरा-पूरा समर्थन करना चाहिये ।

9 गरीब, ग्रामीण, श्रमजीवी, कृषि उत्पादन, वनोत्पादन आदि से सभी टैक्स हटाकर कृत्रिम उर्जा पर लगा देनी चाहिये । साथ ही शिक्षा का बजट पूरी तरह बंद करके उसे कृषि पर खर्च करना चाहिये ।