वैचारिक गाँधी GT-438

वैचारिक गांधी

गाँधीवादी अब साम्प्रदायिक हो चुके हैं:

महात्मा गांधी सांप्रदायिकता से दूर रहते थे महात्मा गांधी मुसलमानो के साथ राजनीतिक समझौता करते थे मुसलमान के हाथों की कठपुतली कभी नहीं बने लेकिन गांधी के मरने के बाद गांधीवादी मुसलमान के हाथों की कठपुतली बन गए इन्होंने हमेशा संघ के नाम पर हिंदुत्व का विरोध किया हिंदुत्व को नुकसान पहुंचाया। 2002 में जब गोधरा कांड हुआ तो गांधीवादी मुसलमानो के साथ हो गए और गांधीवादियों ने उस समय नरेंद्र मोदी को हराने की कसम खाई थी उस कसम को आज तक निभा रहे हैं । आज भी हर गांधीवादी नरेंद्र मोदी को हराने के लिए प्राण देने तक की कसम खाता है भले ही उनके करने से एक पत्ता भी नहीं हिलता। हिंदुत्व भले ही आज भी जिंदा हो लेकिन गांधीवादी समाप्त हो रहे हैं । लेकिन अकड़ आज भी वही है कि वह किसी भी तरीके से मुसलमान को खुश रखकर ही गांधी का काम कर पाएंगे यह इनकी भूल है वास्तव में गांधी सांप्रदायिक नहीं थे और गांधीवादी पूरी तरह सांप्रदायिक हो गए हैं आज का गांधीवादी भी आंख बंद करके नरेंद्र मोदी और हिंदुत्व का विरोध करता है। पूरी दुनिया में मुस्लिम अत्याचारों के खिलाफ एक लहर उठ रही है भारत में भी इस प्रकार की लहर मजबूत हो रही है लेकिन गांधीवादी आंख बंद करके मुसलमान के साथ खड़ा है। यह गांधीवाद नहीं है गांधी के नाम की दुकानदारी है।

गांधीवाद – विचार या संपत्ति की सुरक्षा:

आज मेरे एक गांधीवादी मित्र से मेरी रायपुर में चर्चा हुई उन्होंने दुख व्यक्त किया की सरकार ने बनारस में सर्वोदय की संपत्ति को नष्ट कर दिया और इस तरह सरकार गांधी विचारों को समाप्त करना चाहती है मैंने उनसे यह प्रश्न किया की गांधीवादियों ने 2002 में अर्थात 20 वर्ष पहले एक प्रस्ताव पारित करके नरेंद्र मोदी को हराने का राष्ट्रीय संकल्प लिया था यह संकल्प गुजरात गांधीवादियों का नहीं था बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर था तब से गांधीवादी पूरी तरह नरेंद्र मोदी को हराने के लिए जी जान लगा देते हैं क्या यह गांधीवादी पूरी तरह नेहरू खानदान के गुलाम नहीं हो गए हैं और यदि यह नेहरू खानदान के गुलाम हैं तो उसमें गांधी कहां से आ जाते हैं क्योंकि नेहरू खानदान तो नकली गांधी है असली गांधी नहीं इसलिए यह गांधीवादी नकली गांधी के पक्षधर है गांधी विचारों के नहीं । मैंने अपने मित्र से एक दूसरा प्रश्न उठाया कि गांधी विचारों में और गांधी के नाम की संपत्ति में समानता क्या है क्या गांधी भी इस तरह विचारों के नाम पर संपत्ति इकट्ठी कर रहे थे मेरे विचार से नहीं इसलिए संपत्ति और विचार इन दोनों को एक मानने का कोई औचित्य नहीं है मेरे मित्र ने दोनों प्रश्नों का कोई उत्तर न देकर अनभिज्ञता प्रकट की उसे नहीं पता था कि 2002 में ही सर्वोदय ने सम्मेलन में मोदी को हराने के लिए प्रस्ताव पारित किया था। मैं स्पष्ट हूं की ही वर्तमान समय में सर्वोदय में विचारों के लिए कोई महत्व नहीं है सिर्फ संपत्ति की लड़ाई है सर्वोदय के दोनों गुट संपत्ति की लड़ाई लड़ रहे हैं विचारों की नहीं

गांधीवाद – एक जीवन पद्धति:

मैंने गांधी के मरने के बाद कई लोगों के जीवन पद्धति में गांधी की झलक देखी है उनमें से ठाकुरदास की बंग सिद्धराज जी ढढा गंगा प्रसाद अग्रवाल अविनाश भाईतथा अन्य अनेक लोग तो कालकवलित हो गए लेकिन वर्तमान समय में यदि आप जीवंत गांधी को देखना चाहते हैं तो कृष्ण कुमार जी खन्ना जो मेरठ के रहने वाले हैं उनमें अभी आप देख सकते हैं वे अपने को संपत्ति का ट्रस्टी ही समझते हैं और आप अपने जीवन में भी संपत्ति का इस तरह उपयोग करते हैं मलिक के रूप में नहीं मैं खन्ना जी से बहुत बार मिला हूं और आज भी 99 वर्ष की उम्र में उनके जीवन पद्धति में गांधी दिखता है। यदि वैचारिक धरातल पर आप कुछ-कुछ गांधी को जानना चाहते हो तो अमरनाथ भाई से भी आप चर्चा कर सकते हैं वैचारिक धरातल पर अमरनाथ भाई भी गांधी विचारों के प्रत्यक्ष प्रमाण है।

गांधी विनोबा के विचारों को आगे बढ़ाना आवश्यक:

सामाजिक कार्यकर्ता प्रेमनाथ गुप्ता ने आज देश के प्रख्यात मौलिक चिंतक बजरंग मुनि जी से बातचीत की। प्रेमनाथ ने जब उनसे सवाल पूछा कि गांधी, विनोबा की विरासत को लेकर आपस में यह लोग क्यों लड़ रहे हैं तो उन्होंने कहा कि गांधी के शरीर की हत्या तो पहले ही गोडसे ने कर दी थी लेकिन उनके विचारों की हत्या उस समय के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हीं कर दिया। महात्मा गांधी का सपना था कि लोकस्वराज पर आधारित समाज का निर्माण हो लेकिन उन्होंने इस विचार को दरकिनार करके उसकी जगह पर उन्होंने मिश्रित अर्थव्यवस्था को लागू कर दिया। उन्होंने ही सर्व सेवा संघ की स्थापना भी कराई और उसकी जिम्मेदारी विनोबा भावे को देते हुए यह यह कहा कि आप लोग केवल समाज सुधार का काम करें बाकी काम हमको आप लोगों को करने दे। मुनि जी ने यह भी कहा कि हर महापुरुष के साथ ऐसा ही होता है यह प्रकृति का नियम है कि विध्वंस के बाद निर्माण होता है। यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। उन्होंने यह भी कहा कि गांधी, विनोबा के अनुयाई बेहद ईमानदार होते हैं वह कभी कोई आर्थिक घोटाला नहीं करते और आज भी यह लोग ईमानदार हैं। लेकिन गांधी और विनोबा के भेष में कुछ नकली गांधी विनोबा के शिष्य बने हुए हैं। यही लोग गांधी विनोबा के सच्चे अनुयायियों को बेदखल करने की साजिश करते रहते हैं इन लोगों को गांधी के विचारों से कुछ भी लेना-देना नहीं है सिर्फ उनके संपत्तियों पर कब्जा करने की योजना है। यही लड़ाई के मूल है। उन्होंने आगे कहा कि इन्हीं लोगों ने पहले साबरमती आश्रम को सरकार के हवाले कर दिया और उसके बाद सर्व सेवा संघ वाराणसी को भी नष्ट किया। हो सकता है आज नहीं तो कल वर्धा आश्रम और पवनार आश्रम को भी सरकार अपने कब्जे में ले लेगी। जब हमने उनसे पूछा कि गांधी विनोबा के आश्रमों को कैसे बचाया जाए तो उन्होंने कहा कि हमने तो इन लोगों को बहुत ही नजदीक से देखा है और हमने काफी प्रयास भी किया है लेकिन यह लोग दूसरे की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं है। हालांकि अभी भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है। हमने यह भी प्रयास किया कि सारे अच्छे लोगों को एक जगह मिलकर के गांधी विनोबा के विचारों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए लेकिन अच्छे लोगों की जगह गलत लोगों की संख्या ज्यादा हो गई है और वही लोग ज्यादा सक्रिय रहते हैं। इसलिए अच्छे लोग अपने को पीछे कर लेते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों रहते हैं और उनके बीच लगातार संघर्ष चलता रहता है।

गाँधी की सामाजिक स्वतंत्रता का अधूरा संघर्ष:

भारत की स्वतंत्रता में क्रांतिकारियों का भी योगदान रहा और गांधी का भी। गांधी तथा उनके अनुयाई सामाजिक स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे तो भगत सिंह, आजाद, सुभाष चंद्र बोस आदि क्रांतिकारी राष्ट्रीय स्वतंत्रता तक सीमित थे। एक तीसरा गुट भी था जिसमें नेहरू, अंबेडकर, पटेल, सावरकर आदि शामिल थे। यह तीसरे गुट के लोग राष्ट्रीय स्वतंत्रता के साथ-साथ सत्ता संघर्ष में भी लिप्त थे। गांधी मार्ग को जन समर्थन अधिक मिला और क्रांतिकारियों के मार्ग को बहुत कम फिर भी क्रांतिकारियों ने स्वतंत्रता में ईमानदारी से सहयोग किया। स्वतंत्रता के बाद सत्ता लोलुप लोगों ने गांधी को किनारे कर दिया और भारत सामाजिक स्वतंत्रता संघर्ष से दूर हो गया। गांधी को राष्ट्रपिता ना कह कर लोकनायक या समाज पिता कहना अधिक उपयुक्त होता क्योंकि राष्ट्रीय स्वतंत्रता को गांधी ने लक्ष्य नहीं एक पड़ाव माना था और क्रांतिकारियों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता को लक्ष्य घोषित कर दिया था। गांधी के मरने के बाद सामाजिक स्वतंत्रता की लड़ाई कमजोर पड़ने लगी और गांधीवादियों का भी एक गुट सत्ता संघर्ष के साथ हो गया। मुझे पता चला कि गांधीवादियों का एक गुट आचार्य कुल को सामाजिक स्वतंत्रता की लड़ाई से जोड़ने का प्रयास कर रहा है। मेरे विचार में यह एक अच्छा प्रयास है। राष्ट्रीय स्वतंत्रता की लड़ाई तो सरकार लड़ रही है लेकिन सामाजिक स्वतंत्रता की लड़ाई अभी शुरू होना बाकी है।