विकल्प पथ
सृष्टि को बने चाहे हजारों वर्ष हुए हों अथवा लाखों अथवा करोड़ों, जब से भी यह सृष्टि बनी है तब से दो प्रवृत्तियों के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है । एक को कहते है सामाजिक और दूसरी को समाज विरोधी। यह युद्ध लगातार चलता आ रहा है, अब भी चल रहा है और भविेष्य में भी चलता रहेगा। न कभी सामाजिक प्रवृत्ति के लोग समाप्त हुए है न ही समाज विरोधी प्रवृति के लोग। किन्तु कई बार सामाजिक प्रवृत्ति के लोग मजबूत हो जाते हैं तथा दुष्ट लोग जंगलो में छिपने को मजबूर हो जाते हैं तथा कई बार दुष्ट लोग मजबूत हो जाते हैं एवं सामाजिक लोग गुलामों की तरह जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। प्रारंभिक काल मे इस संघर्ष को देवासुर संग्राम कहते थे, रामायण काल मे मनुष्य और राक्षस की लड़ाई तथा अब सामाजिक और समाज विरोधी के बीच का संघर्ष कहते हैं। शब्द भले ही बदल गये हों किन्तु अर्थ कभी नहीं बदला है।
सामान्यतया सामाजिक लोगों की संख्या लगभग एक प्रतिशत तथा समाज विरोधियों की संख्या भी लगभग उतनी ही हुआ करती है। विशेष काल में यह संख्या कुछ कम ज्यादा होती रहती है। बीच के नब्बे से लेकर अठान्नवे प्रतिशत लोगों को असंबद्ध या तटस्थ माना जाता है जिन्हे हम असामाजिक कहा करते हैं । एक ट्रेन एक्सिडेंट के कराहते हुए यात्रियो की सेवा सहायता करने वाले सामाजिक, शरीफ, यात्रियों को कराहते हुए देख सुनकर भी चुप रहने वाले तटस्थ असामाजिक तथा उनका सामान लूट ले जाने वाले व्यक्ति समाज विरोधी, अपराधी माने जाते हैं। जो तटस्थ या असामाजिक होते हैं वे अपराधी बिल्कुल नही होते । ये पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं। न किसी की सहायता करते हैं न छीनते हैं। अपना खाली समय ताश खेलने, क्रिकेट देखने, भजन गाने या परिवार में व्यतीत करते हैं। ऐसे तटस्थ लोग अस्थिर हुआ करते हैं। यदि शरीफ लोग मजबूत होते हैं तो ये लोग उनके सहयोगी हो जाते है और यदि दुष्ट मजबूत होते हैं तो ये उनकी चापलूसी किया करते हैं।
जब शरीफ लोग मजबूत होते हैं तथा दुष्ट पराजित हो जाते हैं उसे सामान्य काल कहते हैं किन्तु जब शरीफ लोग पराजित और दुष्ट लोग शक्तिशाली होते हैं उसे आपत्तिकाल कहते हैं। सामान्यकाल में प्राथमिकताएँ अलग और आपत्ति काल मे अलग हुआ करती है। सामान्यकाल में ऋषि मुनि, आचार्य और विचारकों का कार्य है आध्यात्म, पूजापाठ चरित्र निर्माण, नैतिकता का प्रसार प्रचार, योगासन, आदि सामाजिक कार्य तथा शासन की प्राथमिकता होती है भौतिक विकास, स्वास्थ्य शिक्षा पर्यावरण, सड़क, बिजली, आदि अनेक जन सुविधा के कार्य। किन्तु जब आपत्तिकाल होता है, शराफत संकट मे आ जाती है, जब शासन की संपूर्ण प्राथमिकताएँ बदलकर अपराध नियंत्रण में आकर सिमट जाती है तथा ऋषि मुनि, आचार्य एवं विचारक भी अपने सामान्य कार्य छोड़कर अपराध नियंत्रण में शासन की सहायता में आ जाते हैं। रामायण काल में दुष्ट प्रवृति के लोगों की शाक्ति के समक्ष सामाजिक शक्तिया पराजित हो गई थी। आचार्यो, विद्वानों, विचारकों तथा ऋषि मुनियों ने स्थिति का ठीक-ठीक आकलन करके आपातकालीन प्राथमिकताएँ निर्धारित कर दी। धर्म का अर्थ बदल गया। आश्रम हथियार बनाने लगे तथा आश्रमों में भी मानवता के स्थान पर सुरक्षा की योजनाएँ बनने लगी। भगवान राम जिस आश्रम में गये वहां से उन्हे शस्त्र भी दिये गये और शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी। जिस भगवान राम ने यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य कहकर विश्वामित्र के यज्ञ की सुरक्षा की थी उन्हीं ने मेघनाद के यज्ञ का यह कहकर विध्वंस कर दिया की आपातकाल मे यज्ञ महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण होती है यज्ञ से प्राप्त शक्ति। यदि उससे सामाजिक शक्ति मजबूत हो तो ऐसे यज्ञ की सुरक्षा करनी चाहिये और यदि समाज विरोधी शक्तियाँ मजबूत होती हो तो वैसे यज्ञ का विध्वंस करना ही धर्म है। महाभारत काल में भी कृष्ण ने आपातकालीन परिभाषाएँ लागू की। आपातकाल में शराफत घातक होती है। शराफत छोड़कर समझदारी से काम लेना ही उचित होता है। भगवान कृष्ण ने यदि युधिष्ठिर और अर्जुन को शराफत के स्थान पर समझदारी से काम लेने हेतु उपदेश तथा दबाव नहीं बनाया होता तो ये सब शराफत में मारे जाते। शरीफ भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ी, अन्त तक राजगद्दी के प्रति वफादार बने रहे। दूसरी और कृष्ण ने परिस्थिति अनुसार अपनी प्रतिज्ञा का अर्थ बदलकर उसका उपयोग किया। आपातकाल में सत्य, धर्म, मानवता, शराफत आदि शब्दों का पूरा का पूरा अर्थ बदल जाया करता है। यही राम ने किया और यही कृष्ण ने किया और यही आज भी होना चाहीये। शराफत और समझदारी में बहुत फर्क होता है। शराफत का अर्थ होता है कर्तव्य करना, अधिकारों की चिन्ता नहीं करना। समझदारी का अर्थ होता है कर्तव्य अधिकार दोनों की चिन्ता करना। शराफत में व्यक्ति को निरभिमानी होना चाहिये और समझदारी में स्वाभिमानी। शराफत में निर्णय भावना प्रधान तथा हृदय महत्वपूर्ण होता है, समझदारी में निर्णय विवेक प्रधान तथा मस्तिष्क पूर्ण महत्व होता है। सामान्यकाल में शराफत गुण मानी जाती है और आपत्तिकाल में घातक एव मूर्खता। सामान्यकाल मे असंबद्ध, असामाजिक दो नम्बर के लोगों से दूरी बनाकर रखने की आवश्यकता है। इस समय उन्हे नैतिक शिक्षा, हृदय परिवर्तन आदि प्रयत्नों के माध्यम से शराफत की और मोड़ने की आवश्यकता होती है। आपात्काल में इन दो नम्बर वालों से दूरी समाप्त करने की आवश्यकता होती है। इस समय न नैतिक शिक्षा की आवश्यकता है, न ही चरित्र निर्माण की। यह समय है असंबद्ध अनैतिक, असामाजिक लोगों से सामंजस्य की। सामान्यकाल में ध्रुवीकरण सामाजिक अर्थात् एक नम्बर विरूद्ध अन्य होता है। आपत्तिकाल मे ध्रुवीकरण समाज विरोधी अर्थात् तीन नम्बर विरूद्ध अन्य का होना चाहिये। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपत्तिकाल में दो नम्बर के लोगों से सन को तो कोई छेड़छाड़ करनी ही नहीं चाहिये, समाज को भी मित्रवत् व्यवहार बनाकर रखना चाहिये। यदि आपत्तिकाल में शासन या समाज चरित्र निर्माण, नैतिकता, आध्यात्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आबादी नियंत्रण, भौतिक विकास आदि को प्राथमिकता देता है तो यही माना जायगा कि वह परिस्थितियों को आपात्काल के समान महसूस नहीं कर रहा है, अथवा वह इतना नाममझ है कि स्वयं को उसके अनुरूप बदल नहीं पा रहा है अथवा वह इतना धू्रर्त है कि सबकुछ समझते हुए भी नामसझ बनकर समाज को धोखा दे रहा है।
सृष्टि को बने चाहे हजारों वर्ष हुए हों अथवा लाखों अथवा करोड़ों, जब से भी यह सृष्टि बनी है तब से दो प्रवृत्तियों के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है । एक को कहते है सामाजिक और दूसरी को समाज विरोधी। यह युद्ध लगातार चलता आ रहा है, अब भी चल रहा है और भविेष्य में भी चलता रहेगा। न कभी सामाजिक प्रवृत्ति के लोग समाप्त हुए है न ही समाज विरोधी प्रवृति के लोग। किन्तु कई बार सामाजिक प्रवृत्ति के लोग मजबूत हो जाते हैं तथा दुष्ट लोग जंगलो में छिपने को मजबूर हो जाते हैं तथा कई बार दुष्ट लोग मजबूत हो जाते हैं एवं सामाजिक लोग गुलामों की तरह जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। प्रारंभिक काल मे इस संघर्ष को देवासुर संग्राम कहते थे, रामायण काल मे मनुष्य और राक्षस की लड़ाई तथा अब सामाजिक और समाज विरोधी के बीच का संघर्ष कहते हैं। शब्द भले ही बदल गये हों किन्तु अर्थ कभी नहीं बदला है।
सामान्यतया सामाजिक लोगों की संख्या लगभग एक प्रतिशत तथा समाज विरोधियों की संख्या भी लगभग उतनी ही हुआ करती है। विशेष काल में यह संख्या कुछ कम ज्यादा होती रहती है। बीच के नब्बे से लेकर अठान्नवे प्रतिशत लोगों को असंबद्ध या तटस्थ माना जाता है जिन्हे हम असामाजिक कहा करते हैं । एक ट्रेन एक्सिडेंट के कराहते हुए यात्रियो की सेवा सहायता करने वाले सामाजिक, शरीफ, यात्रियों को कराहते हुए देख सुनकर भी चुप रहने वाले तटस्थ असामाजिक तथा उनका सामान लूट ले जाने वाले व्यक्ति समाज विरोधी, अपराधी माने जाते हैं। जो तटस्थ या असामाजिक होते हैं वे अपराधी बिल्कुल नही होते । ये पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं। न किसी की सहायता करते हैं न छीनते हैं। अपना खाली समय ताश खेलने, क्रिकेट देखने, भजन गाने या परिवार में व्यतीत करते हैं। ऐसे तटस्थ लोग अस्थिर हुआ करते हैं। यदि शरीफ लोग मजबूत होते हैं तो ये लोग उनके सहयोगी हो जाते है और यदि दुष्ट मजबूत होते हैं तो ये उनकी चापलूसी किया करते हैं।
जब शरीफ लोग मजबूत होते हैं तथा दुष्ट पराजित हो जाते हैं उसे सामान्य काल कहते हैं किन्तु जब शरीफ लोग पराजित और दुष्ट लोग शक्तिशाली होते हैं उसे आपत्तिकाल कहते हैं। सामान्यकाल में प्राथमिकताएँ अलग और आपत्ति काल मे अलग हुआ करती है। सामान्यकाल में ऋषि मुनि, आचार्य और विचारकों का कार्य है आध्यात्म, पूजापाठ चरित्र निर्माण, नैतिकता का प्रसार प्रचार, योगासन, आदि सामाजिक कार्य तथा शासन की प्राथमिकता होती है भौतिक विकास, स्वास्थ्य शिक्षा पर्यावरण, सड़क, बिजली, आदि अनेक जन सुविधा के कार्य। किन्तु जब आपत्तिकाल होता है, शराफत संकट मे आ जाती है, जब शासन की संपूर्ण प्राथमिकताएँ बदलकर अपराध नियंत्रण में आकर सिमट जाती है तथा ऋषि मुनि, आचार्य एवं विचारक भी अपने सामान्य कार्य छोड़कर अपराध नियंत्रण में शासन की सहायता में आ जाते हैं। रामायण काल में दुष्ट प्रवृति के लोगों की शाक्ति के समक्ष सामाजिक शक्तिया पराजित हो गई थी। आचार्यो, विद्वानों, विचारकों तथा ऋषि मुनियों ने स्थिति का ठीक-ठीक आकलन करके आपातकालीन प्राथमिकताएँ निर्धारित कर दी। धर्म का अर्थ बदल गया। आश्रम हथियार बनाने लगे तथा आश्रमों में भी मानवता के स्थान पर सुरक्षा की योजनाएँ बनने लगी। भगवान राम जिस आश्रम में गये वहां से उन्हे शस्त्र भी दिये गये और शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी। जिस भगवान राम ने यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य कहकर विश्वामित्र के यज्ञ की सुरक्षा की थी उन्हीं ने मेघनाद के यज्ञ का यह कहकर विध्वंस कर दिया की आपातकाल मे यज्ञ महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण होती है यज्ञ से प्राप्त शक्ति। यदि उससे सामाजिक शक्ति मजबूत हो तो ऐसे यज्ञ की सुरक्षा करनी चाहिये और यदि समाज विरोधी शक्तियाँ मजबूत होती हो तो वैसे यज्ञ का विध्वंस करना ही धर्म है। महाभारत काल में भी कृष्ण ने आपातकालीन परिभाषाएँ लागू की। आपातकाल में शराफत घातक होती है। शराफत छोड़कर समझदारी से काम लेना ही उचित होता है। भगवान कृष्ण ने यदि युधिष्ठिर और अर्जुन को शराफत के स्थान पर समझदारी से काम लेने हेतु उपदेश तथा दबाव नहीं बनाया होता तो ये सब शराफत में मारे जाते। शरीफ भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ी, अन्त तक राजगद्दी के प्रति वफादार बने रहे। दूसरी और कृष्ण ने परिस्थिति अनुसार अपनी प्रतिज्ञा का अर्थ बदलकर उसका उपयोग किया। आपातकाल में सत्य, धर्म, मानवता, शराफत आदि शब्दों का पूरा का पूरा अर्थ बदल जाया करता है। यही राम ने किया और यही कृष्ण ने किया और यही आज भी होना चाहीये। शराफत और समझदारी में बहुत फर्क होता है। शराफत का अर्थ होता है कर्तव्य करना, अधिकारों की चिन्ता नहीं करना। समझदारी का अर्थ होता है कर्तव्य अधिकार दोनों की चिन्ता करना। शराफत में व्यक्ति को निरभिमानी होना चाहिये और समझदारी में स्वाभिमानी। शराफत में निर्णय भावना प्रधान तथा हृदय महत्वपूर्ण होता है, समझदारी में निर्णय विवेक प्रधान तथा मस्तिष्क पूर्ण महत्व होता है। सामान्यकाल में शराफत गुण मानी जाती है और आपत्तिकाल में घातक एव मूर्खता। सामान्यकाल मे असंबद्ध, असामाजिक दो नम्बर के लोगों से दूरी बनाकर रखने की आवश्यकता है। इस समय उन्हे नैतिक शिक्षा, हृदय परिवर्तन आदि प्रयत्नों के माध्यम से शराफत की और मोड़ने की आवश्यकता होती है। आपात्काल में इन दो नम्बर वालों से दूरी समाप्त करने की आवश्यकता होती है। इस समय न नैतिक शिक्षा की आवश्यकता है, न ही चरित्र निर्माण की। यह समय है असंबद्ध अनैतिक, असामाजिक लोगों से सामंजस्य की। सामान्यकाल में ध्रुवीकरण सामाजिक अर्थात् एक नम्बर विरूद्ध अन्य होता है। आपत्तिकाल मे ध्रुवीकरण समाज विरोधी अर्थात् तीन नम्बर विरूद्ध अन्य का होना चाहिये। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपत्तिकाल में दो नम्बर के लोगों से सन को तो कोई छेड़छाड़ करनी ही नहीं चाहिये, समाज को भी मित्रवत् व्यवहार बनाकर रखना चाहिये। यदि आपत्तिकाल में शासन या समाज चरित्र निर्माण, नैतिकता, आध्यात्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आबादी नियंत्रण, भौतिक विकास आदि को प्राथमिकता देता है तो यही माना जायगा कि वह परिस्थितियों को आपात्काल के समान महसूस नहीं कर रहा है, अथवा वह इतना नाममझ है कि स्वयं को उसके अनुरूप बदल नहीं पा रहा है अथवा वह इतना धू्रर्त है कि सबकुछ समझते हुए भी नामसझ बनकर समाज को धोखा दे रहा है।
सृष्टि को बने चाहे हजारों वर्ष हुए हों अथवा लाखों अथवा करोड़ों, जब से भी यह सृष्टि बनी है तब से दो प्रवृत्तियों के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है । एक को कहते है सामाजिक और दूसरी को समाज विरोधी। यह युद्ध लगातार चलता आ रहा है, अब भी चल रहा है और भविेष्य में भी चलता रहेगा। न कभी सामाजिक प्रवृत्ति के लोग समाप्त हुए है न ही समाज विरोधी प्रवृति के लोग। किन्तु कई बार सामाजिक प्रवृत्ति के लोग मजबूत हो जाते हैं तथा दुष्ट लोग जंगलो में छिपने को मजबूर हो जाते हैं तथा कई बार दुष्ट लोग मजबूत हो जाते हैं एवं सामाजिक लोग गुलामों की तरह जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। प्रारंभिक काल मे इस संघर्ष को देवासुर संग्राम कहते थे, रामायण काल मे मनुष्य और राक्षस की लड़ाई तथा अब सामाजिक और समाज विरोधी के बीच का संघर्ष कहते हैं। शब्द भले ही बदल गये हों किन्तु अर्थ कभी नहीं बदला है।
सामान्यतया सामाजिक लोगों की संख्या लगभग एक प्रतिशत तथा समाज विरोधियों की संख्या भी लगभग उतनी ही हुआ करती है। विशेष काल में यह संख्या कुछ कम ज्यादा होती रहती है। बीच के नब्बे से लेकर अठान्नवे प्रतिशत लोगों को असंबद्ध या तटस्थ माना जाता है जिन्हे हम असामाजिक कहा करते हैं । एक ट्रेन एक्सिडेंट के कराहते हुए यात्रियो की सेवा सहायता करने वाले सामाजिक, शरीफ, यात्रियों को कराहते हुए देख सुनकर भी चुप रहने वाले तटस्थ असामाजिक तथा उनका सामान लूट ले जाने वाले व्यक्ति समाज विरोधी, अपराधी माने जाते हैं। जो तटस्थ या असामाजिक होते हैं वे अपराधी बिल्कुल नही होते । ये पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं। न किसी की सहायता करते हैं न छीनते हैं। अपना खाली समय ताश खेलने, क्रिकेट देखने, भजन गाने या परिवार में व्यतीत करते हैं। ऐसे तटस्थ लोग अस्थिर हुआ करते हैं। यदि शरीफ लोग मजबूत होते हैं तो ये लोग उनके सहयोगी हो जाते है और यदि दुष्ट मजबूत होते हैं तो ये उनकी चापलूसी किया करते हैं।
जब शरीफ लोग मजबूत होते हैं तथा दुष्ट पराजित हो जाते हैं उसे सामान्य काल कहते हैं किन्तु जब शरीफ लोग पराजित और दुष्ट लोग शक्तिशाली होते हैं उसे आपत्तिकाल कहते हैं। सामान्यकाल में प्राथमिकताएँ अलग और आपत्ति काल मे अलग हुआ करती है। सामान्यकाल में ऋषि मुनि, आचार्य और विचारकों का कार्य है आध्यात्म, पूजापाठ चरित्र निर्माण, नैतिकता का प्रसार प्रचार, योगासन, आदि सामाजिक कार्य तथा शासन की प्राथमिकता होती है भौतिक विकास, स्वास्थ्य शिक्षा पर्यावरण, सड़क, बिजली, आदि अनेक जन सुविधा के कार्य। किन्तु जब आपत्तिकाल होता है, शराफत संकट मे आ जाती है, जब शासन की संपूर्ण प्राथमिकताएँ बदलकर अपराध नियंत्रण में आकर सिमट जाती है तथा ऋषि मुनि, आचार्य एवं विचारक भी अपने सामान्य कार्य छोड़कर अपराध नियंत्रण में शासन की सहायता में आ जाते हैं। रामायण काल में दुष्ट प्रवृति के लोगों की शाक्ति के समक्ष सामाजिक शक्तिया पराजित हो गई थी। आचार्यो, विद्वानों, विचारकों तथा ऋषि मुनियों ने स्थिति का ठीक-ठीक आकलन करके आपातकालीन प्राथमिकताएँ निर्धारित कर दी। धर्म का अर्थ बदल गया। आश्रम हथियार बनाने लगे तथा आश्रमों में भी मानवता के स्थान पर सुरक्षा की योजनाएँ बनने लगी। भगवान राम जिस आश्रम में गये वहां से उन्हे शस्त्र भी दिये गये और शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी। जिस भगवान राम ने यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य कहकर विश्वामित्र के यज्ञ की सुरक्षा की थी उन्हीं ने मेघनाद के यज्ञ का यह कहकर विध्वंस कर दिया की आपातकाल मे यज्ञ महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण होती है यज्ञ से प्राप्त शक्ति। यदि उससे सामाजिक शक्ति मजबूत हो तो ऐसे यज्ञ की सुरक्षा करनी चाहिये और यदि समाज विरोधी शक्तियाँ मजबूत होती हो तो वैसे यज्ञ का विध्वंस करना ही धर्म है। महाभारत काल में भी कृष्ण ने आपातकालीन परिभाषाएँ लागू की। आपातकाल में शराफत घातक होती है। शराफत छोड़कर समझदारी से काम लेना ही उचित होता है। भगवान कृष्ण ने यदि युधिष्ठिर और अर्जुन को शराफत के स्थान पर समझदारी से काम लेने हेतु उपदेश तथा दबाव नहीं बनाया होता तो ये सब शराफत में मारे जाते। शरीफ भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ी, अन्त तक राजगद्दी के प्रति वफादार बने रहे। दूसरी और कृष्ण ने परिस्थिति अनुसार अपनी प्रतिज्ञा का अर्थ बदलकर उसका उपयोग किया। आपातकाल में सत्य, धर्म, मानवता, शराफत आदि शब्दों का पूरा का पूरा अर्थ बदल जाया करता है। यही राम ने किया और यही कृष्ण ने किया और यही आज भी होना चाहीये। शराफत और समझदारी में बहुत फर्क होता है। शराफत का अर्थ होता है कर्तव्य करना, अधिकारों की चिन्ता नहीं करना। समझदारी का अर्थ होता है कर्तव्य अधिकार दोनों की चिन्ता करना। शराफत में व्यक्ति को निरभिमानी होना चाहिये और समझदारी में स्वाभिमानी। शराफत में निर्णय भावना प्रधान तथा हृदय महत्वपूर्ण होता है, समझदारी में निर्णय विवेक प्रधान तथा मस्तिष्क पूर्ण महत्व होता है। सामान्यकाल में शराफत गुण मानी जाती है और आपत्तिकाल में घातक एव मूर्खता। सामान्यकाल मे असंबद्ध, असामाजिक दो नम्बर के लोगों से दूरी बनाकर रखने की आवश्यकता है। इस समय उन्हे नैतिक शिक्षा, हृदय परिवर्तन आदि प्रयत्नों के माध्यम से शराफत की और मोड़ने की आवश्यकता होती है। आपात्काल में इन दो नम्बर वालों से दूरी समाप्त करने की आवश्यकता होती है। इस समय न नैतिक शिक्षा की आवश्यकता है, न ही चरित्र निर्माण की। यह समय है असंबद्ध अनैतिक, असामाजिक लोगों से सामंजस्य की। सामान्यकाल में ध्रुवीकरण सामाजिक अर्थात् एक नम्बर विरूद्ध अन्य होता है। आपत्तिकाल मे ध्रुवीकरण समाज विरोधी अर्थात् तीन नम्बर विरूद्ध अन्य का होना चाहिये। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपत्तिकाल में दो नम्बर के लोगों से सन को तो कोई छेड़छाड़ करनी ही नहीं चाहिये, समाज को भी मित्रवत् व्यवहार बनाकर रखना चाहिये। यदि आपत्तिकाल में शासन या समाज चरित्र निर्माण, नैतिकता, आध्यात्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आबादी नियंत्रण, भौतिक विकास आदि को प्राथमिकता देता है तो यही माना जायगा कि वह परिस्थितियों को आपात्काल के समान महसूस नहीं कर रहा है, अथवा वह इतना नाममझ है कि स्वयं को उसके अनुरूप बदल नहीं पा रहा है अथवा वह इतना धू्रर्त है कि सबकुछ समझते हुए भी नामसझ बनकर समाज को धोखा दे रहा है।
सृष्टि को बने चाहे हजारों वर्ष हुए हों अथवा लाखों अथवा करोड़ों, जब से भी यह सृष्टि बनी है तब से दो प्रवृत्तियों के बीच निरंतर संघर्ष चल रहा है । एक को कहते है सामाजिक और दूसरी को समाज विरोधी। यह युद्ध लगातार चलता आ रहा है, अब भी चल रहा है और भविेष्य में भी चलता रहेगा। न कभी सामाजिक प्रवृत्ति के लोग समाप्त हुए है न ही समाज विरोधी प्रवृति के लोग। किन्तु कई बार सामाजिक प्रवृत्ति के लोग मजबूत हो जाते हैं तथा दुष्ट लोग जंगलो में छिपने को मजबूर हो जाते हैं तथा कई बार दुष्ट लोग मजबूत हो जाते हैं एवं सामाजिक लोग गुलामों की तरह जीवन जीने को मजबूर हो जाते हैं। प्रारंभिक काल मे इस संघर्ष को देवासुर संग्राम कहते थे, रामायण काल मे मनुष्य और राक्षस की लड़ाई तथा अब सामाजिक और समाज विरोधी के बीच का संघर्ष कहते हैं। शब्द भले ही बदल गये हों किन्तु अर्थ कभी नहीं बदला है।
सामान्यतया सामाजिक लोगों की संख्या लगभग एक प्रतिशत तथा समाज विरोधियों की संख्या भी लगभग उतनी ही हुआ करती है। विशेष काल में यह संख्या कुछ कम ज्यादा होती रहती है। बीच के नब्बे से लेकर अठान्नवे प्रतिशत लोगों को असंबद्ध या तटस्थ माना जाता है जिन्हे हम असामाजिक कहा करते हैं । एक ट्रेन एक्सिडेंट के कराहते हुए यात्रियो की सेवा सहायता करने वाले सामाजिक, शरीफ, यात्रियों को कराहते हुए देख सुनकर भी चुप रहने वाले तटस्थ असामाजिक तथा उनका सामान लूट ले जाने वाले व्यक्ति समाज विरोधी, अपराधी माने जाते हैं। जो तटस्थ या असामाजिक होते हैं वे अपराधी बिल्कुल नही होते । ये पूरी ईमानदारी से अपना काम करते हैं। न किसी की सहायता करते हैं न छीनते हैं। अपना खाली समय ताश खेलने, क्रिकेट देखने, भजन गाने या परिवार में व्यतीत करते हैं। ऐसे तटस्थ लोग अस्थिर हुआ करते हैं। यदि शरीफ लोग मजबूत होते हैं तो ये लोग उनके सहयोगी हो जाते है और यदि दुष्ट मजबूत होते हैं तो ये उनकी चापलूसी किया करते हैं।
जब शरीफ लोग मजबूत होते हैं तथा दुष्ट पराजित हो जाते हैं उसे सामान्य काल कहते हैं किन्तु जब शरीफ लोग पराजित और दुष्ट लोग शक्तिशाली होते हैं उसे आपत्तिकाल कहते हैं। सामान्यकाल में प्राथमिकताएँ अलग और आपत्ति काल मे अलग हुआ करती है। सामान्यकाल में ऋषि मुनि, आचार्य और विचारकों का कार्य है आध्यात्म, पूजापाठ चरित्र निर्माण, नैतिकता का प्रसार प्रचार, योगासन, आदि सामाजिक कार्य तथा शासन की प्राथमिकता होती है भौतिक विकास, स्वास्थ्य शिक्षा पर्यावरण, सड़क, बिजली, आदि अनेक जन सुविधा के कार्य। किन्तु जब आपत्तिकाल होता है, शराफत संकट मे आ जाती है, जब शासन की संपूर्ण प्राथमिकताएँ बदलकर अपराध नियंत्रण में आकर सिमट जाती है तथा ऋषि मुनि, आचार्य एवं विचारक भी अपने सामान्य कार्य छोड़कर अपराध नियंत्रण में शासन की सहायता में आ जाते हैं। रामायण काल में दुष्ट प्रवृति के लोगों की शाक्ति के समक्ष सामाजिक शक्तिया पराजित हो गई थी। आचार्यो, विद्वानों, विचारकों तथा ऋषि मुनियों ने स्थिति का ठीक-ठीक आकलन करके आपातकालीन प्राथमिकताएँ निर्धारित कर दी। धर्म का अर्थ बदल गया। आश्रम हथियार बनाने लगे तथा आश्रमों में भी मानवता के स्थान पर सुरक्षा की योजनाएँ बनने लगी। भगवान राम जिस आश्रम में गये वहां से उन्हे शस्त्र भी दिये गये और शस्त्र चलाने की ट्रेनिंग भी। जिस भगवान राम ने यज्ञ को श्रेष्ठतम कार्य कहकर विश्वामित्र के यज्ञ की सुरक्षा की थी उन्हीं ने मेघनाद के यज्ञ का यह कहकर विध्वंस कर दिया की आपातकाल मे यज्ञ महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि महत्वपूर्ण होती है यज्ञ से प्राप्त शक्ति। यदि उससे सामाजिक शक्ति मजबूत हो तो ऐसे यज्ञ की सुरक्षा करनी चाहिये और यदि समाज विरोधी शक्तियाँ मजबूत होती हो तो वैसे यज्ञ का विध्वंस करना ही धर्म है। महाभारत काल में भी कृष्ण ने आपातकालीन परिभाषाएँ लागू की। आपातकाल में शराफत घातक होती है। शराफत छोड़कर समझदारी से काम लेना ही उचित होता है। भगवान कृष्ण ने यदि युधिष्ठिर और अर्जुन को शराफत के स्थान पर समझदारी से काम लेने हेतु उपदेश तथा दबाव नहीं बनाया होता तो ये सब शराफत में मारे जाते। शरीफ भीष्म पितामह ने अपनी प्रतिज्ञा नही तोड़ी, अन्त तक राजगद्दी के प्रति वफादार बने रहे। दूसरी और कृष्ण ने परिस्थिति अनुसार अपनी प्रतिज्ञा का अर्थ बदलकर उसका उपयोग किया। आपातकाल में सत्य, धर्म, मानवता, शराफत आदि शब्दों का पूरा का पूरा अर्थ बदल जाया करता है। यही राम ने किया और यही कृष्ण ने किया और यही आज भी होना चाहीये। शराफत और समझदारी में बहुत फर्क होता है। शराफत का अर्थ होता है कर्तव्य करना, अधिकारों की चिन्ता नहीं करना। समझदारी का अर्थ होता है कर्तव्य अधिकार दोनों की चिन्ता करना। शराफत में व्यक्ति को निरभिमानी होना चाहिये और समझदारी में स्वाभिमानी। शराफत में निर्णय भावना प्रधान तथा हृदय महत्वपूर्ण होता है, समझदारी में निर्णय विवेक प्रधान तथा मस्तिष्क पूर्ण महत्व होता है। सामान्यकाल में शराफत गुण मानी जाती है और आपत्तिकाल में घातक एव मूर्खता। सामान्यकाल मे असंबद्ध, असामाजिक दो नम्बर के लोगों से दूरी बनाकर रखने की आवश्यकता है। इस समय उन्हे नैतिक शिक्षा, हृदय परिवर्तन आदि प्रयत्नों के माध्यम से शराफत की और मोड़ने की आवश्यकता होती है। आपात्काल में इन दो नम्बर वालों से दूरी समाप्त करने की आवश्यकता होती है। इस समय न नैतिक शिक्षा की आवश्यकता है, न ही चरित्र निर्माण की। यह समय है असंबद्ध अनैतिक, असामाजिक लोगों से सामंजस्य की। सामान्यकाल में ध्रुवीकरण सामाजिक अर्थात् एक नम्बर विरूद्ध अन्य होता है। आपत्तिकाल मे ध्रुवीकरण समाज विरोधी अर्थात् तीन नम्बर विरूद्ध अन्य का होना चाहिये। इसका स्पष्ट अर्थ है कि आपत्तिकाल में दो नम्बर के लोगों से सन को तो कोई छेड़छाड़ करनी ही नहीं चाहिये, समाज को भी मित्रवत् व्यवहार बनाकर रखना चाहिये। यदि आपत्तिकाल में शासन या समाज चरित्र निर्माण, नैतिकता, आध्यात्म, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आबादी नियंत्रण, भौतिक विकास आदि को प्राथमिकता देता है तो यही माना जायगा कि वह परिस्थितियों को आपात्काल के समान महसूस नहीं कर रहा है, अथवा वह इतना नाममझ है कि स्वयं को उसके अनुरूप बदल नहीं पा रहा है अथवा वह इतना धू्रर्त है कि सबकुछ समझते हुए भी नामसझ बनकर समाज को धोखा दे रहा है।
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