भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना
कुछ मान्य सिद्धान्त है।
- धर्म और विज्ञान एक दूसरे के पूरक होते है वर्तमान समय में इन दोनों के बीच संतुलन बिगड़ गया है।
- जो कुछ प्राचीन है, वही सत्य है ऐसा अंधविश्वास ठीक नहीं। जो कुछ प्राचीन है वह पूरी तरह असत्य है, ऐसी आधुनिकता भी ठीक नहीं। सत्य और असत्य का निर्णय विद्वानो को विचार मंथन के द्वारा करना चाहिये।
- किसी भी यथार्थ को अंतिम सत्य कभी नहीं मानना और कहना चाहिये। प्रकृति मे अंतिम सत्य होता ही नहीं। किसी विचार को अंतिम सत्य कहकर प्रचारित करने वाले बुरी नीयत के लोग होते हैं।
- प्रकृति के रहस्य असीम हैं। पुराने रहस्यों पर विज्ञान पर्दा उठाता है तो नये रहस्य उसके सामने आ जाते हैं।
- भारतीय मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति जितना गंभीर विचारक होता है वह उतना ही बड़ा नास्तिक होता है। विचारक पूजा-पाठ अथवा भक्ति और उपासना की अपेक्षा चिंतन पर अधिक जोर देते हैं।
- श्रद्धा और विचार बिल्कुल अलग-अलग होते है। ब्राम्हण प्रवृत्ति के लोग विचार प्रधान होते हैं तो अन्य तीन प्रवित्तियों के लोग श्रद्धा प्रधान। दोनों व्यवस्था के लिये एक दूसरे के पूरक होने चाहिये।
- विचार विहीन श्रद्धा व्यक्ति को मुर्खता की ओर बढ़ा सकती है तो श्रद्धा विहीन विचार धूर्तता की ओर।
मैं बचपन से ही आर्य समाज से जुड़ा रहा। प्रारंभ से ही मुझे स्वामी दयानंद के दो विचार याद रहे। (I). भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना अस्तित्वहीन समस्याएँ है। (II). प्रत्येक व्यक्ति को सत्य को ग्रहण करने तथा असत्य को छोड़ने के लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये। इन दो बातों पर मैंने बचपन से ही बहुत विचार किया कि यदि कभी मुझे स्वामी दयानंद का कोई कथन सत्य से दूर प्रतीत हो तो मैं स्वामी जी के कथन को मानू अथवा अपने निष्कर्ष को। मैने इस संबंध मे बीच का मार्ग निकाला कि यदि ऐसी कोई स्थिति आती है तो मै स्वामी जी के कथन को असत्य नहीं कहूँगा किन्तु उसे सत्य भी न मानकर अपने निष्कर्ष को सत्य मानूँगा। मैं स्पष्ट कर दू कि मैने बचपन में ही अष्टांग योग के माध्यम से बहुत आगे तक जाकर चिंतन मंथन में क्षमता प्राप्त की थी। यदि मै 17 वर्ष की उम्र में ही राजनीति के कीचड़ में नही फंसा होता तो संभव है कि मेरी दिशा कुछ भिन्न होती।
बचपन में ही मुझे परिवार ने यह बताया कि भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, जादू-टोना का अस्तित्व भी है और उसका प्रभाव भी होता है। आर्य समाज ने मुझे यह बताया कि ये सब अस्तित्वहीन है और इनका कोई प्रभाव नहीं होता। मैंने इस विषय में अनुसंधान शुरू किया। मैं कई माह तक श्मशान में सोकर अनुभव करता रहा। अन्य भी कई प्रकार से मैने सत्य को खोजने के प्रयास किये। 2004 तक के पचास वर्षो तक मेरे प्रयत्न जारी रहे। इस संबंध में मैने कई घटनाओं को प्रत्यक्ष से देखा और स्वयं अनुभव भी किये। जब भी मुझे कही भूत-प्रेत होने की सूचना मिली तो मैं उस स्थान पर जाकर पूरी खोज करता रहा। न तो मुझे कभी श्मसान में भूत-प्रेत दिखा या अनुभव हुआ न ही किसी अन्य जगह पर। अधिकांश घटनाए किसी भ्रम या जालसाजी का परिणाम सिद्ध हुई। मैंने सबके सामने ऐसी जालसाजियाँ सिद्ध भी करके बता दिया। मैं जब आपातकाल में जेल मे था तो मुझे एक जादूगर द्वारा कुछ जादू देखने को मिला। जेल मे ही मैने रिसर्च करके अपने साथियों को वे सारे खेल दिखा दिये। कई बार ऐसे भी अवसर आये, जब भूत-प्रेत पीड़ित व्यक्ति को मैंने मंत्र पढ़ने का बहाना बनाकर उस पर फूँक दिया तो वह व्यकित ठीक हो गया। मैने एक बार भूत-प्रेत का प्रभाव सिद्ध करने वालों को एक बहुत बड़ी राशि का इनाम देने की घोषणा की चुनौती दी। कई लोग आये। हजारों दर्शक एकत्रित हुए। झाड़-फूँक वालों ने पूरा प्रयत्न किया। किन्तु सफल नहीं हुए। मैंने अपने शहर ही नहीं बल्कि आस-पास के क्षेत्र तक भी किसी ऐसी जालसाजी ठगी को सफल नहीं होने दिया जो भूत-प्रेत, जादू-टोना, तंत्र-मंत्र के नाम पर फैलायी जा रही हो। सिर्फ हिन्दुओ तक ही नहीं बल्कि मुसलमानों, आदिवासियों तक में मेरा विलक्षण प्रभाव था। आमतौर पर लोग ऐसे मामलों में मुझसे सम्पर्क करते रहे।
इन सबके बाद भी कुछ ऐसी घटनाएँ हुई जिन्हे मैं न तो जालसाजी ही कह सका न अप्राकृतिक ही। मैंने कई बार ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर गिरते देखे। सारा दिमाग लगाने के बाद भी मुझे मानना पड़ा कि यह मामला भिन्न है। एक परिवार के सभी सदस्य जब भी घर में प्रवेश करते थे तो चाहे बालक हो अथवा वृद्ध, वे असामान्य हो जाते थे। उनके इलाज के लिये भी मुझे असमान्य प्रयत्न करने पड़े। एक दो ऐसे भी जादू मैंने देखे जिन्हे मैं नहीं समझ सका। मैंने जब भूत दिखाने की चुनौती दी और ओझा लोग भूत चढ़ाने का मंत्र पढ़ने लगे तब जिस पर भूत चढ़ रहा था वह भी उसका षड्यंत्र नहीं था। मैं आज तक नहीं समझा कि उस पर क्या प्रभाव था, और मेरे डांटते ही वह प्रभाव कैसे समाप्त हुआ । किन्तु यह सच है कि प्रभाव था और खत्म भी हुआ। एक भूत प्रभावित व्यक्ति के दोनों कानों में पीपल की लकड़ी सटाकर तथा उसके दोनों हाथो की उँगलियों के बीच लकड़ी लगाकर दबाते ही भूत उतारने का प्रयोग मैंने किया है। वह क्या था और कैसे उतर गया यह कारण और परिणाम मैं आज तक नहीं समझ सका। असामान्य गतिविधि के बच्चों को झाड़-फूँक से भी ठीक होते मैंने देखा है, और उन्ही बच्चों को डाक्टर से भी ठीक होते देखा है। यदि बीमारी थी तो दूर से फूँक देने से कई माह के लिये ठीक कैसे हुई यह रहस्य मैं अब तक नहीं सुलझा सका।
लम्बे समय तक पुरे प्रयत्न के बाद भी मै निश्चित रूप से यह नहीं कह सका कि भूत-प्रेत शारीरिक बीमारी है या मानसिक अथवा कोई प्राकृतिक प्रकोप भी है। अन्त मे हार थक कर मैंने रामानुजगंज छोड़ते समय यह निष्कर्ष लिखा कि प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों को भूत और सुलझ गये रहस्य विज्ञान कहे जाते है। जब तक हसने वाली गैस का शोध नहीं हुआ तब तक वह चमत्कार था और बाद मे विज्ञान बन गया। हिस्टीरिया की बीमारी का भी कुछ ऐसा ही इतिहास रहा है। संभव है कि आज हम जिन घटनाओं को असमान्य मान रहे है वे भविष्य मे विज्ञान द्वारा सामान्य प्रमाणित कर दी जावे और हम उन्हे भूत-प्रेत, जादू-टोना, तंत्र-मत्र की जगह विज्ञान सम्मत घटनाएँ मानने लग जावे किन्तु जब तक विज्ञान प्रमाणित नहीं करता तब तक उन्हे किसी तर्क से असत्य सिद्ध करने का कोई औचित्य नहीं है। मैने रामानुजगंज मे जो प्रयोग किया उसके कारण वहाँ के आस-पास के लोग भूत प्रेत के नाम पर होने वाले छल कपट और जालसाजी से बच गये। कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लग गये कि आपका नाम बजरंग होने के कारण ही हो सकता है कि भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र आपसे डर कर दूर भागता है किन्तू मैं जानता हूँ कि इस कहानी मे कोई दम नहीं है। फिर भी इस कथन में कुछ सच्चाई दिखती है कि मेरे द्वारा भूत-प्रेत के अस्तित्व को अस्वीकार करने के कारण मेरा मानसिक मनोबल ऊँचा हैं इसलिये मैं इन सबसे प्रभावित नहीं होता। बल्कि टकराकर इनकी पोल खोल देता हूँ। मुझे, मेरे परिवार को तथा मेरे निकटवर्ती मित्रों को यदि भूत-प्रेत, तंत्र- मंत्र न मानने के कारण कोई सुरक्षा मिली हुई है तो फिर क्यों न अन्य लोग भी ऐसा ही प्रयास करे। न मानने वाले मानने वालो की तुलना मे अधिक संतुष्ट है। इसलिए मैं समझता हूँ कि इनके अस्तित्व के होने न होने की बहस से दूर रहते हुए इन्हे अस्वीकार कर दिया जाये।
मैं पिछले साठ वर्षो के अनुभव से यह बताने की स्थिति में हूँ कि धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से भूत-प्रेत की घटनाएं कम हो रही है। फिछले दस पंद्रह वर्षो से मैने रामानुजगंज शहर मे पत्थर गिरने की कोई भी घटना नहीं देखी। किसी व्यक्ति को भूत लगे ऐसी घटनाएँ भी बहुत ही कम हो गयी है। क्या प्रभाव है और क्यों भूत-प्रेत कम हो रहे हैं। यह समझ पाना मेरे बस की बात नही। किन्तु भूत प्रेत के नाम पर आज भी धूर्तों और ठगो का बाजार बंद नहीं हुआ है।
मैं अब तक नहीं कह पा रहा हूँ कि भूत प्रेत का अस्तित्व है या नहीं। किन्तु मेरी एक सलाह अवश्य हैं कि हम अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन मे भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र के अस्तित्व को बिल्कुल स्वीकार न करे। किन्तु यदि कोई अन्य ऐसा मानता है तो हम उसके समक्ष ऐसा कोई दावा भी न करे कि वह झुठ बोल रहा है अथवा ऐसी घटनाएँ असत्य है। क्योंकि असत्य कह देने मात्र से कोई बात असत्य नहीं हो जाती। यदि किसी व्यक्ति को किसी बीमारी का भूत-प्रेत से इलाज कराने पर विश्वास हो तो उसे हम समझा सकते है कि वह ऐसा न करे और डॉक्टर से इलाज करावे। किन्तु हम उसे जोर देकर न कहे अथवा कानून द्वारा उसे रोकने का प्रयास न करे तो अच्छा होगा। कई लोग अंध श्रद्धा उन्मूलन का अच्छा कार्य कर रहे है, इस तरह वैचारिक धरातल पर इन घटनाओं को चुनौती दी जा सकती है और दी भी जानी चाहिए किन्तु तोड़-मरोड़ कर या कुतर्क के माध्यम से मैं भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र को भ्रम सिद्ध करने पर अधिक जोर देने के पक्ष में नहीं हूँ । मैं चाहता हूँ कि विज्ञान निरंतर आगे बढ़कर ऐसे अंधविश्वास की पोल खोलता जाए जिससे हम प्रकृति के अनसुलझे रहस्यों को वैज्ञानिक धरातल पर सुलझाने में सफल हो सके।
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