सरकार ने मनरेगा का बजट घटाया है, लेकिन इस निर्णय के औचित्य पर गंभीर और तार्किक बहस नहीं हुई।

मैंने मनरेगा का नाम बदलकर जी-राम-जी किए जाने से संबंधित पूरी चर्चा ध्यानपूर्वक सुनी। दुर्भाग्यवश, दोनों पक्षों की दलीलों में कोई ठोस तर्क दिखाई नहीं दिया। यह तथ्य है कि सरकार ने मनरेगा का बजट घटाया है, लेकिन इस निर्णय के औचित्य पर गंभीर और तार्किक बहस नहीं हुई।
यदि हम समग्र रूप से विचार करें, तो एक ओर विपक्ष लगातार यह कहता है कि भारत की अर्थव्यवस्था रसातल की ओर जा रही है—उत्पादन घट रहा है, विकास दर गिर रही है, डॉलर लगातार महँगा हो रहा है, और अन्य अनेक नकारात्मक संकेत दिए जाते हैं। दूसरी ओर सरकार का दावा है कि भारत की अर्थव्यवस्था अत्यंत मजबूत है और धन की कोई कमी नहीं है।
ऐसी स्थिति में यह समझना कठिन हो जाता है कि इन परस्पर विरोधी दावों के बीच नए बिल या बजट कटौती का वास्तविक औचित्य क्या है। यदि सचमुच भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर हो रही है, तो मनरेगा जैसे खर्चीले कार्यक्रम के बजट में कटौती को कुछ हद तक तर्कसंगत माना जा सकता है। लेकिन यदि अर्थव्यवस्था मजबूत है, तो फिर इस प्रकार के खर्च कम करने की आवश्यकता ही क्यों पड़ रही है—इस प्रश्न का उत्तर स्पष्ट नहीं है।
इसके अतिरिक्त, यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस योजना का मूल नाम नरेगा (NREGA) था, न कि मनरेगा। बहुत बाद में इसमें महात्मा गांधी का नाम जोड़ा गया, क्योंकि गांधी परिवार इसे अपने राजनीतिक प्रभाव से जोड़कर देखता था। वर्तमान सरकार ने उस शब्द को हटाया है, क्योंकि उसके अनुसार गांधी नाम को जबरदस्ती योजना में जोड़ा गया था।
दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि नरेगा अपने मूल स्वरूप में एक अत्यंत उपयोगी योजना थी। किंतु मनरेगा बनने के बाद इसमें किए गए अनेक अनावश्यक और अव्यवहारिक बदलावों के कारण यह योजना काफी हद तक नुकसानदायक हो गई। इसलिए नरेगा जैसी उपयोगी योजना को पूरी तरह बंद करना उचित नहीं होगा। आवश्यकता इस बात की है कि इसमें किए गए गलत और अनावश्यक परिवर्तनों के विकल्प खोजे जाएँ और योजना को उसके मूल उद्देश्य के अनुरूप पुनः प्रभावी बनाया जाए।