इस्लाम कितनी समस्या कितना समाधान
इस्लाम_कितनी_समस्या_कितना_समाधान
किसी भी व्यवस्थित समाज मे संगठन हमेशा अव्यवस्था फैलाते है क्योकि संगठन मजबूतो से सुरक्षा और कमजोरो का शोषण करते है। व्यवस्थित समाज व्यवस्था मे संगठन सिर्फ शोषण के उद्देश्य से बनते है क्योकि सुरक्षा की उन्हे आवश्यकता है ही नही । संगठन मे शक्ति होती है, अपनत्व होता है, न्याय नही होता। संगठन मे संगठन सर्वोच्च होता है, समाज नही। कोई संगठन यदि धर्म का नकाब लगा ले तो वह और भी अधिक घातक हो जाता है और ऐसा धार्मिक संगठन अगर सत्ता के साथ जुड जाये तो फिर वह संगठन समाज विरोधी मान लिया जाता है क्योकि वह खतरनाक बन जाता है। इस प्रकार के तीन संगठन वर्तमान चर्चा मे है:- 1. इस्लाम 2. साम्यवाद 3. संघ । साम्यवाद धर्म के साथ नही जुडा सिर्फ सत्ता के साथ जुडा। संघ धर्म और सत्ता के साथ भी जुडा किन्तु वह इस्लाम से सुरक्षा के लिये बना । इस्लाम एक मात्र ऐसा संगठन है जिसने धर्म की नकाब लगाकर सत्ता के साथ तालमेल किया और सुरक्षा की अपेक्षा विस्तारवादी प्रयत्न करता रहा। इस्लाम का प्रभाव विश्वव्यापी है, साम्यवाद का प्रभाव समापन की दिशा मे है तो संघ का सिर्फ भारत तक सीमित। साम्यवाद दुनिया की सबसे अधिक खतरनाक विचारधारा है तो इस्लाम सर्वाधिक खतरनाक संगठन। साम्यवाद मे संगठनात्मक की अपेक्षा वैचारिक मंथन अधिक प्रभावी है तो इस्लाम मे विचार मंथन की जगह संगठनात्मक प्रवृत्ति। यह स्पष्ट है कि यदि कोई भी संगठन धर्म के साथ जुडे तो उसमे नासमझ और भावना प्रधान लोगो की संख्या अधिक होती है । सिर्फ नेतृत्व चालाक लोगो का होता है। इस्लाम मे तो लगभग ऐसे ही लोगो की बहुतायत है किन्तु साम्यवाद एक ऐसा समूह है जिसमे कोई भावना प्रधान या नासमझ होता ही नही। साम्यवाद मे जो भी व्यक्ति जुडता है वह पूरी तरह चालाक माना जाता है और इस्लाम के साथ जुडा हुआ व्यक्ति पूरी तरह नासमझ है।
हम साम्यवाद और इस्लाम का आकलन करे तो साम्यवाद पूरी दूनियां मे असफल हो गया और इस्लाम पूरी दूनियां मे संदेह के घेरे मे आ गया। ऐसी परिस्थिति मे भारत मे साम्यवाद और इस्लाम का गठजोड हुआ। इस्लाम नासमझ लोगो का समूह होता है और साम्यवाद चालाक लोगो का। साम्यवादियो को अपनी बंदूक को शक्ति देने के लिये एक इस्लामिक कंधे की आवश्यकता थी और नासमझ इस्लाम कंधे के रूप मे प्रयुक्त होने लगा। इस तरह भारत मे साम्यवाद और इस्लाम मिलकर एक खतरनाक शक्ति के रूप मे स्थापित हो गये। दुनियां के लिये साम्यवाद अब कोई समस्या नही है। लेकिन भारत के लिये यह गठजोड एक समस्या तो बन गया क्योकि मुसलमान हमेशा मरने मारने के लिये तैयार रहता है और साम्यवादी मरने मारने से हमेशा बचता है । इसलिये दोनो का गठजोड घातक हुआ।
भारतीय मुसलमानो मे भी दो प्रकार के लोग है:- 1. धर्म प्रधान 2. संगठन प्रधान। धर्म प्रधान लोग वे माने जाते हैं जो तौहिद, नमाज, रोजा, हज और जकात तक धर्म की सीमा समझते है। अन्य मामलो मे धार्मिक मुसलमान समाज के साथ चलते है, संगठन के साथ नही। संगठित मुसलमान इन पांच धार्मिक कार्यो का दिखावा करते है, किन्तु सारी शक्ति संगठन विस्तार मे लगाते है। इनके लिये महत्वपूर्ण होता है, पर्सनल लॉ या संख्या विस्तार। ये धर्म को व्यक्तिगत आचरण से न जोडकर संगठन शक्ति के साथ जोडकर देखते है। ये समाज से भी अपने संगठन को उपर मानते है तथा कानून से भी। कानून की जगह ये शरीया को ज्यादा महत्व देते है। इन संगठित मुसलमानो का भारत मे बहुत अधिक प्रभाव है और धार्मिक मुसलमानो की सख्या भी कम है तथा पहचान भी। इस तरह धार्मिक मुसलमान महत्वहीन हो गये और संगठित मुसलमान भारत मे पूरे मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधित्व करने लगे। इन्ही संगठित मुसलमानो मे किसी चालाक ने तबलीगी मुसलमानो के नाम से भी एक संगठन खडा कर लिया जो अन्य मुसलमानो की अपेक्षा अधिक नासमझ रहे। ऐसे ही तबलीगी वर्तमान समय मे भारत के लिये एक बहुत बडी समस्या के रूप मे प्रकट हुए। इन तबलीगीयों की मूर्खता के कारण भारत का संपूर्ण मुसलमान समूह देश की नजरो मे आ गया। वैसे ही लगभग छ: महिने से भारत के परेशान साम्यवादियों ने मुसलमानो को आगे करके मरने मारने का अभियान चला दिया था। भारत का अधिकांश संगठित मुसलमान नागरिकता कानून के विरोध के नाम पर सडको पर उतरने लगा था। सोशल मीडिया मे गायब रहने वाले मुसलमान भी बढ चढकर मोदी विरोध मे लिखने लगे थे। हर मुसलमान जेहाद के लिये तैयार दिख रहा था। धार्मिक मुसलमान और भी ज्यादा अलग थलग कर दिये गये थे। ऐसे ही काल खंड मे कोरोना और तबलीगी जमात का विस्फोट हुआ और संगठित मुसलमाने ने साम्यवादियो के साथ मिलकर तबलीगीयो का समर्थन करने की मूर्खता कर दी। इस मूर्खता का परिणाम हुआ कि भारत का पूरा मुसलमान तबलीगीयो के साथ जोड दिया गया। यह बात छिप गई कि तबलीगीयो का एक गुट ही इस कोरोना वाली मूर्खता मे शामिल था और दूसरा गुट नही। लेकिन पूरा मुस्लिम समूदाय खलनायक के रूप मे सिद्ध हो गया। स्वाभाविक है कि संघ परिवार को एक अच्छा अवसर मिला और इसने इस अवसर का भरपूर उपयोग किया क्योकि भारत का मुसलमान शाईनबाग आंदोलन से लेकर तबलीगी जमात तक मूर्खता पर मूर्खता करते जा रहा था। इस तबलीगी गुट ने मूर्खता की सारी सीमाएं तोड दीं, जब ये हिंसा करने लगे या पागलों सरीखे व्यवहार करने लगे।
मै मानता हॅू कि संगठित इस्लाम सारी दुनियां के लिये एक बहुत बडी समस्या है और उस समस्या से मिलजुलकर ही निजात पाई जा सकती है। मै यह भी मानता हॅू कि इस विश्वव्यापी समस्या से टकराव की शुरूआत भारत से ही होनी है। ऐसा लगता था कि भारत का मुसलमान टकराव के लिये कश्मीर को मुद्दा बनायेगा। किन्तु उस समय मुसलमान चूक गया और उसने नागरिकता कानून को टकराव का मुद्दा बनाने की पहल कर दी। भारत का मुसलमान अभी भी उन दिनो की कल्पना करता है, जब वे लोग भारत के शासक थे। वह कम से कम वैसी परिस्थितियां तो जरूर चाहता है जैसी स्वतंत्रता के बाद और नरेन्द्र मोदी के पूर्व की थी जिसमे सत्ता के साथ मिलकर साम्यवाद और इस्लाम भारत के हिन्दुओ को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखते थे। अब भारत के मुसलमानो को वे पुराने दिन सपने के समान दिख रहे है किन्तु कभी कभी उन्हे यह डर भी सताने लगता है कि कही संघ परिवार सत्ता पर हावी होकर मुसलमानो से बदला न लेने लगे और मुसलमानो को दूसरे दर्जे का नागरिक न बना दे। मै समझता हॅू कि संगठित इस्लाम ही हमारे लिये खतरनाक है धार्मिक इस्लाम नही। इसलिये सभी मुसलमानो को एक समान मानना समस्या को जटिल बना देगा। पूरी दुनिया भी इस स्थिति को स्वीकार नही करेगी कि हम भारत को मुस्लिम मुक्त बनाने की दिशा मे बढे। इस तरह का प्रयास उचित भी नही है। इसलिये भारत के आम नागरिको को सोच समझकर निर्णय लेना होगा। किसी हिन्दू संगठन के बहकावे मे आकर हम गृह युद्ध मे फंस जायेगे और समस्या सुलझने की अपेक्षा अधिक उलझ जायेगी। इसलिये हमे दो दिशाओ मे काम करना चाहिये। 1. हम साम्यवादी इस्लामिक गठजोड को पूरी तरह कुचलने की सीमा तक अपने को तैयार करे। 2. हम धार्मिक मुसलमानो को इतना आश्वस्त होने दे कि हम किसी भी प्रकार से हिन्दू-मुसलमान विभाजन नही मानते। धार्मिक मुसलमानो को पूरी तरह आश्वस्त करना होगा। टकराव हिन्दू-मुसलमान मे न होकर साम्प्रदायिकता और धर्म निरपेक्षता के बीच होना चाहिये, जिसमे से धर्म निरपेक्षता की साम्यवादी कांग्रेसी परिभाषा को बदल दिया जाना चाहिये। इस्लाम हमारे लिये समस्या नही है बल्कि हमारे लिये समस्या है संगठित इस्लाम और भारत के लिये उससे भी ज्यादा साम्यवादी इस्लामिक जठजोड। हमे चाहिये कि हम मुसलमानो मे इस बात की पहचान करे कि जो मुसलमान धार्मिक होने के साथ साथ समाज को सर्वोच्च मानता है वह हमारा भाई है जो मुसलमान समाज की अपेक्षा संगठन को सर्वोच्च मानाता है वह हमारा शत्रु है।
मुझे ऐसा लगता है कि धार्मिक मुसलमानो के सामने यह बहुत बडा संकट है कि वे किधर जायें। समाज उन्हे विश्वसनीय नही मानता और संगठन के साथ वे जुडना नही चाहते। ऐसी परिस्थिति मे वे कुआँ और खाई का संकट झेलते है। हमे चाहिये कि हम उनकी इस दुविधा को दूर करे। यदि ऐसे मुसलमानो को नमाज पढने मे दिक्कत हो तो समाज का कर्तव्य है कि धार्मिक मुसलमानो के लिये ऐसी सामाजिक व्यवस्था भी कर दे। यदि ऐसे धार्मिक मुसलमानो को संगठित मुसलमान के बहिष्कार का खतरा हो तो समाज धार्मिक मुसलमानो को प्रोत्साहित करे। कहीं न कहीं से तो शुरूआत करनी होगी और एक बार यदि इस तरह के प्रयत्न हो गये तो यह भारत के लिये बहुत अच्छा होगा।
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