साहित्यकारों की सम्मान वापसी और भारत सरकार

पिछले दिनों जब से भारत की राजनैतिक व्यवस्था में एक सम्प्रदाय का एकाधिकारवादी हस्तक्षेप समाप्त होकर दूसरे सम्प्रदाय का हस्तक्षेप शुरु हुआ है तभी से राजनेताओं के साथ-साथ विचार प्रतिबद्ध साहित्कारों के बीच भी टकराव बढ़ गया है। इसी तरह राजनैतिक व्यवस्था के बदलते ही वामपंथी राजनेताओं के साथ-साथ वामपंथ से प्रतिबद्ध साहित्कारों से भी पूँजीवादी व्यवस्था से जुडे साहित्य प्रेमियो के बीच टकराव शुरु हो गया है। इन टकरावों में अपने प्रतिबद्ध साहित्कारों के पक्ष-विपक्ष वाले संगठित गिरोह भी खड़े दिखते है। कभी-कभी ऐसे ध्रुवीकरण के बीच का टकराव हिंसक भी हो जाता है। मेरे विचार में किसी भी प्रकार की हिंसा रोकना सम्पूर्ण व्यवस्था का काम है। किन्तु इस प्रकार के टकरावों को रोकने में निष्पक्ष और निरपेक्ष राजनेताओं को बीच में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए बल्कि उन्हें अन्दर-अन्दर प्रसन्न होना चाहिए कि अलग-अलग सम्प्रदाय के लोग आपस में टकराकर निष्पक्ष और निरपेक्ष लोगों की समस्या को कम कर रहे है।

    ऐसे ही बदले वातावरण में एक पक्ष विशेष के प्रतिबद्ध साहित्यकार श्री कलबुर्गी की हत्या हो गई। स्पष्ट है कि पिछले 67 वर्षो से साम्प्रदायिक मुसलमानों और वर्ग-संघर्ष प्रेमी वामपंथियों के सहयोग से एक राजनैतिक व्यवस्था चल रही थी। दुनिया जानती है कि उस राजनैतिक व्यवस्था ने अपने सहयोगी साहित्यकारों को बड़े-बडे सम्मान दिये। ऐसे ही सम्मानित कुछ साहित्यकारों की हत्याओं के विरोध में ऐसी ही प्रतिबद्ध विचारधाराओं से जुडे हुए तथा सम्मान प्राप्त साहित्यकारों मे से कुछ ने विरोध स्वरुप अपने सम्मान पदक वापस कर दिये। इस सम्मान वापसी में साहित्य का प्रश्न गौण था और नई राजनैतिक व्यवस्था में बढ़ते साम्प्रदायिक हिन्दुत्व के सशक्तिकरण के विरोध में अधिक था। मैं स्पष्ट हूँ कि भारत में तीन खतरनाक शक्तियों का सशक्तिकरण घातक है-1. वामपंथी संगठन 2. साम्प्रदायिक इस्लामिक विचारधारा 3. संगठित संघ परिवार। दुर्भाग्य से वामपंथी संगठन तथा साम्प्रदायिक मुसलमानों ने गठजोड़ कर लिया तथा संघ परिवार से उनका सीधा टकराव हुआ। यह टकराव ही सामाजिक सुरक्षा के लिए एक शुभ लक्षण है। साहित्यकारों की हत्या में भी ऐसे ही साम्प्रदायिक संगठनों के बीच आपसी टकराव स्पष्ट है। यह साफ-साफ दिखता है कि मोदी सरकार के पूर्व की व्यवस्था से जो साम्प्रदायिक संगठन लाभ उठा रहे थे वैसा ही लाभ अब मोदी के बाद नये साम्प्रदायिक संगठन उठाने की फिराक में है। दोनों ही पक्ष मोदी सरकार पर दबाव बनाना चाहते है। यह दबाव चूंकि द्विपक्षीय है अतः यह मोदी सरकार के लिए आक्सीजन का काम करेगा। मोदी जी लम्बे समय से इस टकराव पर लगभग चुप रहे और बोले भी तो बहुत सतर्क होकर, किन्तु दो-तीन दिनों से अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद सरीखे कुछ तटस्थ नेताओं ने पदक लौटाने वाले समूह की निंदा करके अनावश्यक एक गिरोह का पक्ष लिया। चुप रहना ज्यादा अच्छा होता और पदक लौटाने वाले एक गुटविशेष के साहित्यकारों का विरोध करने के लिए दूसरे गुट के लोगो को सामने आने दिया जाता। जिस तरह महाराष्ट्र में एक पाकिस्तानी गजल गायक अथवा पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री कसूरी का अनावश्यक विरोध करने में शिवसेना अलग थलग हो गई । वहाँ भी यदि तटस्थ लोग शिवसेना के पक्ष में खड़े हो जाते तो वातावरण बिगड़ जाता। परन्तु कार्यक्रम के आयोजक सुधीद्र कुलकर्णी की सूझबूझ से शिवसेना का मुँह काला हुआ। मैं अब भी समझता हूँ कि नरेन्द्र मोदी जी की सोच और कार्यप्रणाली बिल्कुल ठीक है और अन्य निरपेक्ष तटस्थ लोगों को भी चुप रहकर दोनों के बीच के विवाद का लाभ उठाना चाहिए। यदि इस विवाद में कोई हिंसा होती है, कोई कानून टूटता है तो उस हिंसा को रोकना, कानून की सुरक्षा करना, कानून का काम है, व्यवस्था का काम है, नेता का नहीं, समाज का नहीं, हमारा नहीं ।