कट्टर धार्मिक विचारधारा का प्रभाव: बच्चों से समाज तक
कट्टर धार्मिक विचारधारा का प्रभाव: बच्चों से समाज तक
यह बात सिद्ध हो चुकी है कि हमारी समस्या मुसलमान नहीं, बल्कि इस्लाम का वह संगठित विचारवाद है जो अनेक मुसलमानों का ब्रेनवॉश कर उन्हें कट्टर बना देता है। हाल ही में रायपुर में दो ऐसे नाबालिग बच्चे पकड़े गए, जिनका पूरी तरह ब्रेनवॉश किया जा चुका था। वे विदेशी आतंकवादी संगठनों के संपर्क में थे और भारत में बच्चों के बीच कट्टरता फैलाने तथा हिंसक योजनाएँ बनाने में जुटे हुए थे। उनकी उम्र मात्र 15–16 वर्ष बताई जाती है। ऐसे और भी बच्चों की खोजबीन जारी है।
कुछ दिन पहले सात–आठ वर्ष की उम्र के दो–तीन बच्चों को भी गिरफ्तार किया गया। वे अपने साथ खेलने वाले बच्चों की पानी की बोतलें चोरी-छिपे बाथरूम में ले जाकर उनका पानी फेंक देते थे और उसमें पेशाब भर देते थे। जब उस पानी को पीने से बच्चे बीमार पड़े, तब जांच की गई। जांच के दौरान कैमरों में स्पष्ट दिखा कि ये वही बच्चे बोतलें बाथरूम में ले जा रहे थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि इतनी कम उम्र के बच्चों में इतनी कट्टरता आती कहाँ से है? आठ वर्ष की उम्र में तो बच्चे कुरान भी नहीं पढ़ते। यह स्पष्ट है कि उनके माता–पिता से मिलने वाले संस्कार ही इसकी शुरुआत करते हैं, और फिर आगे चलकर मदरसे तथा धार्मिक शिक्षा उन्हें और कट्टर बना देती है। बड़े होकर वे वही कट्टरता अपने बच्चों को भी सिखाते हैं।
इसीलिए धार्मिक कट्टरता से मुक्ति के लिए दो दिशाओं में एक साथ कार्य करना आवश्यक है—पहला, कट्टरपंथी तत्वों पर आवश्यक बल-प्रयोग और कानूनी कार्रवाई; दूसरा, उन्हें मिलने वाली धार्मिक कट्टर शिक्षा को रोकना। मदरसों पर नियंत्रण, उनकी गतिविधियों की जांच और कट्टरता फैलाने वाली शिक्षा को बंद कराना जरूरी है। भय का वातावरण बनाना भी कभी-कभी आवश्यक होता है, और साथ ही उनमें सामाजिक संस्कार डालना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। दोनों मोर्चों पर समान रूप से काम करना होगा।
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