वैचारिक कसौटी पर ‘व्यक्ति’ 1 GT 453
वैचारिक कसौटी पर ‘व्यक्ति’ 1 GT 453
व्यक्ति को अधिकतम अहिंसा और राज्य को उचित हिंसा करनी चाहिए:
आज से हम वैचारिक धरातल पर एक नई श्रृंखला शुरू कर रहे हैं, जो करीब 15 दिन चलेगी और इस श्रृंखला के माध्यम से हम यह बताने का प्रयत्न करेंगे कि आदर्श व्यक्ति में कौन-कौन से गुण होने चाहिए। मेरे विचार से आदर्श व्यक्ति का सबसे पहला और महत्वपूर्ण गुण यह होना चाहिए कि वह किसी भी परिस्थिति में न स्वयं हिंसक हो, न हिंसा का समर्थन करें। वर्तमान दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति में हिंसा के प्रति विश्वास बढ़ रहा है और आमतौर पर लोग जाने-अनजाने में हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। भारत में हिंसा के प्रति जो विश्वास बढ़ा है उसके दो प्रमुख कारण हैं- पहला राज्य का उचित हिंसा के स्थान पर न्यूनतम हिंसा का प्रयोग करना बहुत घातक हुआ है। आम नागरिकों में अपनी सुरक्षा के लिए कानून पर से विश्वास घटता गया है और समानांतर सुरक्षा की कोशिश की जाने लगी है। यदि राज्य ही सुरक्षा की गारंटी नहीं देगा तो आम लोगों में अपनी सुरक्षा के लिए कानून तोड़ने की मजबूरी स्वाभाविक है। हिंसा बढ़ने का दूसरा कारण यह है कि सावरकरवादी, मुसलमान और कम्युनिस्ट पूरी तरह हिंसा को प्रोत्साहित करने लगे, साथ ही गांधीवादी भी सावरकरवाद के विरोध में साम्यवादी और मुस्लिम हिंसा के समर्थक हो गए। परिणाम हुआ कि अहिंसा का समर्थक भारत में कोई बचा ही नहीं। बौद्ध लोग भी धीरे-धीरे कम्युनिस्ट हो गए और हिंसा के समर्थक हो गए। अहिंसा के समर्थक सिर्फ गांधी और महावीर ही सामने दिखते हैं। इन दोनों की अहिंसा में भी बहुत फर्क था। महावीर की अहिंसा सिद्धांतों पर अधिक मजबूती से खड़ी है, जबकि गांधी की अहिंसा व्यावहारिक धरातल पर दिखाई देती है। इस तरह महावीर की अहिंसा की तुलना में गांधी की अहिंसा ज्यादा उपयोगी है। अब पूरे समाज को इस दिशा में गंभीरता से सोचना चाहिए। वर्तमान समय में अहिंसा को व्यक्ति के स्वभाव में आदर्श रूप में मान्य करने की आवश्यकता है।
अहिंसा हमेशा व्यावहारिक धरातल पर सफल होती है, सैद्धांतिक धरातल पर उचित नहीं मानी जाती है। यही कारण है कि बुद्ध और जैन की अहिंसा ने हीं भारत को गुलाम बना दिया और गांधी की अहिंसा ने भारत को स्वतंत्र करा दिया। स्पष्ट है कि भारत प्राचीन समय से वर्ण व्यवस्था के अनुसार हिंसा और अहिंसा में भेद करता था अर्थात हमारी सुरक्षा के लिए हिंसा बहुत जरूरी थी और सुरक्षा की जिम्मेदारी सिर्फ राज्य की थी, समाज की नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में तब तक हिंसा का सहारा नहीं ले सकता जब तक उसने वर्ण व्यवस्था के अनुसार राज्य की जिम्मेदारी न संभाल ली हो। सबसे बड़ी बुराई आई कि बुद्ध और जैन ने अहिंसा को सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया और गांधी के मरने के बाद हमारे राजनेताओं ने भी अहिंसा की अव्यावहारिक परिभाषा को नहीं समझा। परिणाम हुआ कि बुद्ध और जैन के बाद हम गुलाम हो गए, गांधी के बाद हम अराजकता की ओर बढ़ गए। ठीक यही स्थिति भारत के अतिरिक्त दुनिया के अन्य देशों में भी हुई। यहूदी संतुलित हिंसा के पक्षधर थे इसाई सैद्धांतिक हिंसा के, पक्ष में चले गए। परिणाम हुआ कि दुनिया में हिंसक मुसलमानों का वर्चस्व बढ़ने लगा इसलिए मेरा यह सुझाव है कि हिंसा और अहिंसा के बीच चर्चा करते समय समाज को सैद्धांतिक हिंसा का पालन करना चाहिए और राज्य को कभी भी अहिंसा का पालन नहीं करना चाहिए। स्पष्ट है कि भारत की वर्ण व्यवस्था दुनिया के लिए आदर्श हो सकती है। मैंने अपने पूरे जीवन में कभी हिंसा का उपयोग नहीं किया क्योंकि मैं जानता था कि मैं क्षत्रिय नहीं हूं, मैं राज्य से जुड़ा हुआ नहीं हूं। मुझे किसी भी परिस्थिति में डंडे का उपयोग नहीं करना चाहिए। मैंने इस धर्म का जीवन भर पालन किया और मैं अपने आप को सफल मानता हूं।
आपातकाल में सैद्धांतिक सत्य की जगह व्यावहारिक सत्य का प्रयोग: सामाजिक श्रृंखला पर चर्चा करते समय हम दो दिनों तक अहिंसा पर चर्चा कर चुके हैं। आज हम सत्य पर चर्चा करेंगे। सैद्धांतिक रूप से सत्य बोलना बहुत अच्छा माना जाता है लेकिन व्यावहारिक धरातल पर सत्य बोलना बहुत कठिन होता है। इस सिद्धांत और व्यवहार के बीच का तालमेल आवश्यक हो जाता है लेकिन हम देख रहे हैं कि स्वतंत्रता के पहले सैद्धांतिक सत्य समाज में बहुत प्रचलित था और आज हम व्यावहारिक सत्य से भी नीचे असत्य की तरफ बढ़ते चले गए हैं। पहले समाज में लोग झूठ नहीं बोलते थे, न्यायालय में कभी-कभी बोलते थे, और अब समाज में तो झूठ आमतौर पर बोली जाती है न्यायालय में तो कभी सच बोला ही नहीं जाता। आखिर इतनी गिरावट का कारण क्या है?
मैंने इस संबंध में जब विचार किया तो यह पाया कि किसी भी समाज में कानून की मात्रा जितनी अधिक होती है उस समाज में सत्य बोलना उतना ही कठिन होता चला जाता है। यदि समाज में कानून की मात्रा 99% तक हो जाएंगे तो इसका यह साफ अर्थ है कि असत्य बोलने वालों की संख्या 99% बढ़ जाएगी। कानून और असत्य इन दोनों का चोली दामन का संबंध है। इसलिए यदि आप सत्य को स्थापित करना चाहते हैं तो कानून की मात्रा कम से कम कर दीजिए, सत्य समाज में स्थापित हो जाएगा।
सत्य सैद्धांतिक भी होता है और व्यावहारिक भी होता है। जब समाज की व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही हो तब व्यक्ति को सैद्धांतिक आधार पर सत्यवादी होना चाहिए, जब व्यवस्था पूरी तरह से गड़बड़ हो, आपको न्याय मिलने की संभावना कम हो, तब व्यक्ति को सैद्धांतिक सत्य छोड़कर व्यावहारिक सत्य का मार्ग पकड़ना चाहिए। मैंने अपने जीवन के प्रारंभ में ही यह महसूस किया कि हमें व्यावहारिक सत्य का मार्ग पकड़ना चाहिए क्योंकि व्यवस्था ठीक नहीं है। व्यावहारिक सत्य का मतलब यह है कि मैं ब्राह्मण हूं, मुझे झूठ नहीं बोलना चाहिए लेकिन मेरे लिए यह आवश्यक नहीं है कि मैं हर गुप्त बात को सबके सामने सत्य प्रकट कर दूं। परिस्थिति के अनुसार सत्य को छिपा तो सकता हूं, किंतु झूठ नहीं बोल सकता। फिर भी यदि मेरे सामने शत्रु खड़ा हो जाए तो शत्रु के सामने झूठ बोला जा सकता है। इस तरह मैंने बचपन में ही यह सिद्धांत बनाया कि पुलिस, न्यायालय एवं अन्य सरकारी विभाग और शत्रु के समक्ष में झूठ बोल सकूंगा। मैं ऐसे झूठ को झूठ नहीं मानूंगा लेकिन जब भी समाज में कोई बात बोलूंगा तो वह सच ही बोलूंगा झूठ नहीं बोलूंगा और यदि कहीं जरूरत पड़ी तो मैं सच बोलने से चुप रह जाऊंगा, अपने को बचा लूंगा। वर्ण व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए, क्षत्रिय को भी झूठ से बचना चाहिए, वैश्य झूठ का सहारा ले सकता है और शूद्र भी परिस्थिति अनुसार झूठ बोल सकता है। इस तरह कार्य विभाजन के अनुसार झूठ और सत्य इनकी अलग-अलग परिभाषाएं दी गई हैं और मैं समझता हूं कि यह परिभाषाएं बिल्कुल ठीक है। मैंने जीवन भर इन परिभाषाओं का प्रयोग किया और अपने को झूठ बोलने से बचा कर रखा।
Comments