समझ से परे है कि गांधी की प्रशंसा करने पर गांधीवादी और सावरकरवादी, दोनों ही क्यों चिढ़ते हैं
हमारा भारत आज अमेरिका के दबाव को अवश्य महसूस कर रहा है, किंतु ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मोहन भागवत जिस दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, वह अत्यंत सकारात्मक और सही है। मुझे तो यह भी जानकारी मिली कि ट्रंप ने नरेंद्र मोदी को फोन किया था, लेकिन मोदी जी ने साफ कह दिया कि इतनी गंभीर चर्चा केवल फोन पर नहीं हो सकती। इसका अर्थ यह है कि भारत बहुत सोच-समझकर और संतुलित कदम उठा रहा है।
एक ओर भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अपनी सशक्त स्थिति बनाने की दिशा में कार्य कर रहा है, वहीं दूसरी ओर हमारे ही कुछ लोग गांधी और सावरकर के नाम पर झगड़ा कर अपनी ‘दुकानदारी’ चमकाने में लगे हुए हैं। न आज गांधी हैं और न ही सावरकर, फिर भी उनके नाम पर विवाद खड़ा करना एक स्थायी कारोबार बना हुआ है।
मुझे सबसे अधिक आश्चर्य इस बात पर होता है कि यदि कोई संघ का व्यक्ति गांधी की प्रशंसा कर दे, तो सारे गांधीवादी तुरंत उसके विरोध में खड़े हो जाते हैं, और वही व्यक्ति यदि सावरकर की प्रशंसा करे तो सावरकरवादी भी विरोध करने लगते हैं। समझ से परे है कि गांधी की प्रशंसा करने पर गांधीवादी और सावरकरवादी, दोनों ही क्यों चिढ़ते हैं!
दरअसल, गांधीवादी और सावरकरवादी दिखने में भले ही एक-दूसरे के विरोधी हों, लेकिन भीतर से दोनों को अपनी ‘दुकानदारी’ पर खतरा दिखाई देता है। उन्हें डर है कि यदि गांधी और सावरकर के बीच का विवाद समाप्त हो गया, तो उनकी-अपनी वैचारिक राजनीति का आधार ही खत्म हो जाएगा।
इसीलिए मेरा मानना है कि अब हमें गांधी और सावरकर की बहस से बहुत आगे बढ़कर भविष्य की ओर देखना चाहिए। देश की नई दिशा इन्हीं पुराने झगड़ों से मुक्त होकर तय होगी।
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