अहिंसा सामाजिक आवश्यकता या संस्कार

आज तक कभी सम्पूर्ण विश्व में अहिंसा इतनी अधिक संकट में नहीं रही जितनी आज है । आज तो यह प्रश्न की ही विवादास्पद बन गया है कि हिंसा को रोकने के प्रयत्न हिंसा का विस्तार कर रहे हैं या नियंत्रण । पूरे विश्व में एक बहस जारी है और भारत भी इस बहस से अछूता नहीं है ।

पूरी दूनिया में प्रवृत्ति के आधार पर एक स्पष्ट विभाजन दिख रहा है (1) वे संस्कृतियां जो हिंसा और बल प्रयोग को पहला और सफल माध्यम मानती हैं । इनमें इस्लाम, कम्युनिस्ट, सिख, संघ परिवार आदि शामिल हैं । इस सूची में इस्लाम और नक्सलवाद तथा सिख और संघ परिवार की संस्कृति में परिस्थिति और मात्रा का अन्तर है । किन्तु हिंसा के मामले में इन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता । (2) ईसाई, हिन्दू, जैन, बौद्ध, गांधीवादी आदि । इनमें भी हिन्दू कुछ अधिक मध्यमार्गी होता है और जैन, बौद्ध या गांधीवादी अधिक अहिंसा के पक्षधर । यहूदी संस्कृति अब तक स्पष्ट नहीं है कि वह सुरक्षा के निमित्त हिंसा में बढ़-चढ़कर भाग ले रही है कि आक्रमण के लिए क्योंकि यहूदियों का टकराव अब तक सिर्फ इस्लामिक देशो से ही हुआ है । इसलिए उन पर अभी कोई धारणा बनाना ठीक नहीं ।

पहली श्रेणी के लोग अपनत्व प्रधान होते हैं, विचारों के स्थान पर भावना को वरीयता देते हैं, न्याय की अपेक्षा संगठन को महत्वपूर्ण मानते हैं जबकि दूसरी श्रेणी के लोग न्याय को अपनत्व और संगठन पर वरीयता देते हैं तथा भावना की अपेक्षा विचार को भी उचित महत्व देते हैं तथा भावना की अपेक्षा विचार को भी उचित महत्व देते हैं । पहले प्रकार के लोग सफलता को न्याय से ऊपर मानते हैं जबकि दूसरे प्रकार के लोग सफलता से न्याय को ऊपर । हम यह भी कह सकते हैं कि पहले प्रकार के लोग न्याय की तराजू पर सफलता को तौलते हैं और सफलता पर ही उनकी दृष्टि लगी रहती है जबकि दूसरे प्रकार के लोग सफलता की तराजू पर न्याय को तौलना उचित समझते हैं और सफलता-असफलता गौंण रहती है ।

       हिंसा तीन प्रकार की होती है (1) सामाजिक हिंसा (2) शासकीय हिंसा (3) आपराधिक हिंसा । सामाजित हिंसा तब बढ़ती है जब राज्य समाज को न्याय और सुरक्षा देने में विफल हो जावे तथा समाज का न्याय और सुरक्षा के लिए हिंसा पर विश्वास बढ़ता चला जावे । समाज में हिंसा बढ़ने का दूसरा कारण यह भी होता है कि पहले प्रकार के लोग हिंसा के सहारे निरन्तर आगे बढ़ते जावें और दूसरे प्रकार के लोगों के समक्ष अस्तित्व का संकट दिखने लगे । इस मामले में यदि हम भारत की विशेष चर्चा करें तो भारत में हिंसा विस्तार के दोनों ही कारक मौजूद है । शासकीय हिंसा और सामाजिक हिंसा के बीच एक विचित्र तालमेल होता है । शासकीय हिंसा जब आवश्यकता से कम होती है तब सामाजिक संस्था में विस्तार होता है और आपराधिक हिंसा में भी । जब शासकीय हिंसा संतुलित होती है तब सामाजिक हिंसा भी नियंत्रित होती है और आपराधिक हिंसा भी । किन्तु जब शासकीय हिंसा अनियंत्रित हो जाती है तब सामाजिक हिंसा भी शून्य हो जाती है और आपराधिक हिंसा भी । ऐसे समय में राज्य की तानाशाही स्थापित हो जाती है जो अहिंसा और गुलामी के बीच का भेद समाप्त कर देती है और जो बहुत दुखद होती है ।

       भारत मे हिंसा के निरन्तर विस्तार का कारण अहिंसा के पक्षधरों की नासमझी है । ये लोग शासकीय हिंसा और सामाजिक हिंसा का अन्तर ही नहीं समझते । इनके द्वारा शासकीय बल प्रयोग के विरोध का संस्कार हिंसा और अहिंसा के बीच असंतुलन पैदा करता है । सबसे दुखद बात यह होती है कि ये भोले लोग अहिंसक जैन, बौद्ध, हिन्दुओं की तो प्रशंसा मात्र करते हैं किन्तु हिंसक इस्लाम और साम्यवाद को सुरक्षा भी देते हैं और समर्थन भी । आज तक आपने किसी भी अहिंसक प्रमुख की आतंकवादियों के विरूद्ध या तो चुप्पी देखी होगी या अस्पष्ट बयान । किन्तु यदि संदेह के आधार पर कोई निर्दोष प्रमाणित हो जावे तो उसके पक्ष में बयानों की झड़ी आम बात है। ये लोग न्यायप्रियता के मामले में कुछ इतने अधिक संवेदनशील हो जाते हैं कि वे भूल जाते हैं कि उनका न्याय के पक्ष में दिया गया उक्त बयान व्यवस्था की कितनी क्षति पहुंचा सकता है । मुझे समझ में नहीं आता कि अहिंसा के पक्षधर, किसी घोषित हिंसक जमात के साथ बयान देने की अपेक्षा चुप भी रह जावे तब भी गनीमत है किन्तु वे तो बढ़-चढ़कर न्याय के संदर्भ पेश करने लगते हैं ।  

       गांधी जी ने गुलामी का कालखण्ड देखा था । वे ईशा मसीह की अहिंसा से भी प्रभावित थे और कबीरपंथ से हो सकता है कि व्यवस्था आने के बाद वे अपने विचारों में संशोधन करते अथवा अपने आत्मबल तपोबल के सहारे समाजिक हिंसा को रोककर कुछ नया मार्ग सुझाते । क्या होता यह भूतकाल में समा चुका है । अब न तो कोई संशोधन की गुंजाइश रही है न ही किसी आत्मबल के प्रयोग की । इस बची है तो केवल एक बात कि अहिंसा और सरकारी बल प्रयोग का संतुलन मजबूत किया जाये । साठ वर्षों में जिस तरह समाज में हिंसा बढ़ रही है उस पर अब नये सिरे से बहस छिड़े । नये-नये उपाय हों, हिंसा को शस्त्र मानकर उपयोग करने वालों के विषय में न्याय और अव्यवस्था के नये मापदण्ड बनें तब अहिंसा का पक्ष मजबूत हो सकता है । अन्यथा कोई और मार्ग नहीं दिखता ।  

       संघ परिवार से अपेक्षा थी कि वह हिंसा और अहिंसा के बीच संतुलन बनाने में हिन्दू संस्कृति का पक्ष मजबूत करेगा किन्तु वह तो और भी अधिक हिंसा के प्रोत्साहन में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगा है । वेलेन्टाइन डे पर बल प्रयोग की अनुमति किसने दी है ? क्या अब हिन्दुत्व को बचाने के लिए इस्लामिक तंत्र का ही सहारा लेना पडे़गा ? सर्वोदय के लोग भले ही शराफत में धोखा खा रहे हों किन्तु कम से कम हिंसा के समर्थन में तो नहीं किन्तु संघ के लोगों के तो सामान्य व्यवहार में एक पक्षीय हिंसा की गंध आती है । आमूल-चूल चिन्तन करके मार्ग निकालने की आवश्यकता है ।

       एक ओर सम्पूर्ण समाज में हिंसा के प्रति विश्वास बढ़ रहा है तो दूसरी ओर कायरता का भी विस्तार स्पष्ट दिख रहा है । दो आतंकवादी पांच सौ लोगों को बंधक बना लेते हैं किन्तु हिंसा के इतने विस्तार बाद भी कोई हिम्मत नहीं करता । ये दो विपरीत प्रवृत्तियां एक साथ बढ़ रही है । मुझे तो लगता है कि आज कमजोर लोगों को दबाने और मजबूत से दब जाने की घातक मनोवृत्ति जोर पकड़ रही है । पूरा विश्व मानता है कि लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है । आज भारत में लोकतंत्र है। यदि लोकतंत्र विकृत है, दूषित है तो लोकतांत्रिक तरीके से सुधारा जा सकता है किन्तु हिंसा का समर्थन नहीं किया जा सकता । दुख होता है कि भारतीय लोकतंत्र में हिंसा के समर्थन में लगातार आवाजें बढ़ रही हैं । यह एक अशुभ संकेत है । साम्यवादी देश या मुस्लिम देश तो लोकतंत्र की छाया से ही दूर भागते हैं किन्तु इन संस्कृतियों के एजेण्ट भी किसी न किसी बहाने हिंसा के समर्थन का प्रयास करते रहते हैं, जो दूसरे रूप में लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाते हैं और भारत का आम भारतीय ऐसे खतरों के प्रति बेखबर हैं ।

       अब भारत की भारतीय संस्कृति को चुनौती स्वीकार करनी होगी । जो व्यक्ति या संस्कृति हिंसा के बल पर भारत में सफलता का ख्वाब देख रहा हो तो उसका पूरी सरकारी ताकत से फन कुचलना होगा । जो लोग अहिंसा के पक्ष में सीना तानकर खडे हो उन्हें संगठित करना होगा और जो हिंसा के समर्थक न्याय और कानून की दुहाई देकर हिंसक प्रवृत्ति की सुरक्षा में ढाल बनते हों उन्हें भी बेनकाब करना होगा । अब तक अहिंसा हमारी संस्कृति रही है जिसकी कमजोरियों का लाभ उठा-उठाकर हिंसक संस्कृति मजबूत होती रही है । अब अहिंसा को हम संस्कार की जगह अपनी आवश्यकता घोषित कर दें और अहिंसा की सुरक्षा के लिए किसी भी सीमा तक हिंसा की स्वीकृति दें क्योंकि सामाजिक अहिंसा की सुरक्षा का आस्तित्व व्यवस्था की संतुलित हिंसा पर ही निर्भर करता है । यदि प्रशासनिक बल प्रयोग में कमी की गयी तो हम हिंसा से तो बच ही नहीं सकेंगे, हमारी अहिंसा भी खतरे में पड़ जायेगी । इस मुद्दे पर समाज में व्यापक बहस छिड़नी चाहिए ।