उत्तराधिकार का औचित्य और कानून
किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति के स्वामित्व का अधिकार उत्तराधिकार माना जाता है । इस संबंध में कुछ सिद्धांतो पर भी विचार करना होगा-
1 जो कुछ परम्परागत है वह पूरी तरह गलत है अथवा जो कुछ परम्परागत है वह पूरी तरह सही है । ऐसी अतिवादी धारणाओं से बचना चाहिए । देश, काल परिस्थिति अनुसार सिद्धांतों में संशोधन करना चाहिए ।
2 समाज में प्रचलित मान्यताओं को सामाजिक और वैचारिक धरातल पर चुनौती देकर ठीक करना चाहिए । कभी कानून का उपयोग नहीं करना चाहिए । सामाजिक स्वीकृति मिलने के बाद एक दो प्रतिशत लोग न माने तब कानून का उपयोग करना चाहिए ।
3 प्राचीन समय में जर जोरु जमीन को सर्वाधिक विवाद पूर्ण माना गया है । यह आज भी उतनी ही सच्चाई है ।
4 समाज में मान्य परम्पराओं को एकाएक बदलने के प्रयास की अपेक्षा धीरे-धीरे सुधारने का प्रयास करना चाहिए ।
5 परिवार के आंतरिक मामलों में कानून को न्यूनतम हस्तक्षेप करना चाहिए । अधिक हस्तक्षेप नुकसान करता है ।
6 किसी भी परिस्थिति में कोई ऐसा कानून नहीं बनना चाहिए जो परिवार की आंतरिक एकता को कमजोर करता हो ।
जर जोरु जमीन के महत्व को स्वीकार करते हुए भी हम यहाँ महिलाओं के संबंध में अलग से कोई चर्चा नहीं कर रहे है । हम तो सिर्फ जर अर्थात सम्पत्ति और जमीन की चर्चा तक सीमित हैं । वर्तमान समय में जमीन भी सम्पत्ति का ही एक भाग बन गई है । इस संबंध में प्राचीन व्यवस्था समय-समय पर बदलती रही है । उत्तराधिकार का कोई भी विवाद समाज में निपट जाता था, कानून के दायरे से बाहर था । जब कोई लड़का पिता से अलग होता था तो लड़के का कोई अधिकार नहीं माना जाता था बल्कि पिता स्वेच्छा से जो दे दे वही पर्याप्त था । पिता की मृत्यु के बाद भी यदि भाइयों में कोई बंटवारा होता था तो बड़ा भाई स्वेच्छा से जो दे दे वह ठीक था । वैसे भी जब परिवार के किसी सदस्य का विवाह होता था तो उस विवाह में वर पक्ष का परिवार इतनी सम्पत्ति बहू के स्वामित्व में देता था जो सामाजिक दृष्टि से पर्याप्त हो । लड़की का पिता भी वर को इसी तरह सम्पत्ति देता था । ये दोनों सम्पत्ति परिवार की न मानकर वर-वधु की व्यक्तिगत मानी जाती थी जिसे वे परिवार से अलग होते समय ले जा सकते थे । अंग्रेजो के शासनकाल में इस सामाजिक प्रक्रिया में कानून का दखल हुआ और पैतृक सम्पत्ति में भाईयों का कानूनी हक बनाया गया । प्राचीन व्यवस्था कानूनी नहीं थी इसलिए अलग अलग क्षेत्रों में दाय भाग या मिताक्षरा के रुप में प्रचलित थी । मुसलमानों में कुछ और अलग तरह की थी । बाद में इन मान्यताओं को कानूनी स्वरुप देकर और उलझा दिया गया । महिलाओं को सम्पत्ति में अधिकार देकर तो और अधिक अव्यवस्था पैदा कर दी गई । प्रचलित मान्यताओं को सामाजिक जागृति के बाद संशोधित करना चाहिए था किन्तु उन्हें जनजागरण की अपेक्षा कानून के द्वारा बदलने का प्रयास किया गया । 70 वर्ष बीत गये । आज भी भारत की 90 प्रतिशत महिलाओं को यह नहीं पता कि सम्पत्ति में उनके कहां और कितने अधिकार है । यदि पता लग जाता तो पूरे देश में अराजकता फैल जाती । अधिकांश परिवार टूटकर कुरुक्षेत्र का मैदान बन जाते । मैं स्वयं अब तक नहीं जान पाया कि किसी महिला को पिता की सम्पत्ति में कब और कितना अधिकार है और पिता और पुत्र के मामले में कितना । मैंने बहुत प्रयास किया और नहीं समझ सका जबकि ऐसे अनेक मामलों में मुझे पंचायत भी करनी पडती है । स्पष्ट दिखा कि कानून का उददेश्य उत्तराधिकार के विवाद को कम करना नहीं था बल्कि महिला और पुरुष को दो वर्गो में बांटकर उनके बीच ऐसा झगड़ा लगाना था जिससे वकीलों का व्यवसाय चलता रहे, न्यायालय की भी सक्रियता बनी रहे और संसद भी बेकार न हो जाये । यहाँ तक कि यह भी पता नहीं है कि पुत्र को पिता के जीवित रहते क्या क्या उत्तराधिकार है ।
कुछ लोग उत्तराधिकार के नियम को ही समाप्त करने के पक्ष में है लेकिन उनके पास इस बात का कभी कोई उत्तर नहीं होता कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति का क्या होगा । कौन सी सम्पत्ति उसकी व्यक्तिगत मानी जायेगी और कौन सी परिवार की । ऐसा कहने वाले अधिकांश लोग किसी न किसी रुप से सत्ता के साथ अपना संबंध बनाये रखते है और इसलिए ऐसे लोगों को सत्ता का एजेंट मान लेना चाहिए । फिर भी सम्पत्ति के उत्तराधिकार की प्रचलित विधियाँ बिल्कुल ही अस्पष्ट है और इन सबसे हटकर एक बिल्कुल सहज सरल विधि का विकास करना चाहिए ।
अब तक भारत भी पश्चिमी जगत की व्यक्तिगत सम्पत्ति के अधिकार की अंध नकल करता रहा है । सम्पत्ति के अधिकांश विवाद इस अधिकार के ही परिणाम हैं । इसके कारण लोभ-लालच भी बढ़ता है, छल कपट भी बढ़ता है तथा पारदर्शिता भी कम हो जाती है । यदि सम्पत्ति का व्यक्तिगत स्वामित्व समाप्त कर दिया जाये और पारिवारिक स्वामित्व स्थापित कर दिया जाये तो सम्पत्ति के उत्तराधिकार का औचित्य अपने आप समाप्त हो जायेगा । किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद कोई सम्पत्ति परिवार से अलग है ही नहीं जो उसकी व्यक्तिगत है । अपवाद स्वरुप यदि कोई व्यक्ति बिल्कुल अकेला ही रहना चाहता है तो उसके लिए कुछ अलग से तरीका निकाला जा सकता है कि उसकी सम्पत्ति ग्राम सभा में विलीन हो जायेगी या कुछ और नियम बन सकते है । इस तरह की सरल विधि से महिला पुरुष का भाई बहन का पिता-पुत्र का सम्पत्ति संबंधी विवाद अपने आप समाप्त हो जायेगा । न्यायालय में सम्पत्ति संबंधी मुकदमें बहुत कम हो जाएंगे और वकीलो की एक फौज न्यायालयों से खाली होकर या तो खेती की ओर जायेगी या किसी अन्य उद्योग धंधो में लगेगी ।
मेरा स्पष्ट मानना है कि परिवार व्यवस्था को मजबूत और व्यवस्थित किये बिना समस्याओं का समाधान संभव नहीं है । इस परिवार सशक्तिकरण की सबसे बड़ी बाधा सम्पत्ति का अधिकार संबंधि विवाद है । यदि इस विवाद को सहज सरल विधि से दूर कर दिया जाये तो यह बहुत बडा सामाजिक हित होगा ।
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