भय का व्यापार

सारी दुनियां मे व्यापार का महत्व बढता जा रहा है । दुनियां की राजनीति मे पूंजीवाद सबसे आगे बढ रहा है। यहूदी व्यापार को माध्यम बनाकर लगातार अपनी बढत बनाए हुए हैं। व्यापार  की ताकत पर ही अंग्रेजो  ने भारत पर इतने लम्बे समय तक शासन किया। व्यापार अनेक राजनैतिक तथा सामाजिक  प्रणालियो मे शीर्ष स्थान रख रहा है।

            पुराने समय से ही व्यापार के अनेक तरीके प्रचलित रहे है । इन तरीको मे ही एक भय का व्यापार भी शामिल रहा है। ईश्वर या सत्ता का भय दिखाकर  हजारो वर्षो  से कुछ लोग अपनी दुकानदारी चलाते रहे है। आज भी ईश्वर के भय के नाम पर आशाराम, राम रहीम जैसे चालाक लोग  करोडो अरबो का धन इकठठा करते रहे है। भूत-प्रेत,  तंत्र-मंत्र भी ऐसा ही भय का व्यापार माना जाता है। अस्तित्वहीन धारणाओ को प्रचारित करके इन तंत्र मंत्रो के आधार पर अनेक लोग फलते फूलते रहे है। आजकल तो एक वास्तु शास्त्र भी बहुत प्रभावी  होता जा रहा है। इस तरह  भय के व्यापार का पुराना इतिहास रहा है जो वर्तमान मे वैज्ञानिक काल खंड मे भी लगभग उसी तरह प्रभावी है ।

              वर्तमान समय मे एक नये प्रकार के भय का व्यापार शुरू हो गया है। पर्यावरण  के नाम पर सम्पूर्ण भारत मे एक अदृश्य भय का वातावरण  बना दिय गया हैं। बंदना शिवा सरीखे सैकडो लोग इसी व्यापार के माध्यम से अपना जीवन यापन कर रहे है। जिन्होने जीवन मे कभी एक भी पेड नही लगाया  वे भी सडक चौड़ी करते समय कुछ हरे भरे पेडो की कटाई के विरोध मे खडे दिखते है। स्वाभाविक है कि यही उनका रोजगार है। मै देखता हॅू कि हमारे शहर  के पास तातापानी सडक किनारे एक छोटा सा पेड आवागमन मे बहुत बाधक  बना हुआ है । उस पेड के कारण कई एक्सीडेन्ट  भी हो चुके है। किन्तु वह पेड कानूनी प्रक्रिया  लम्बी होने के कारण कट नही सकता और यदि कट गया तो अनेक पेशेवर पर्यावरण वादी छाती पीटना शुरू कर देगे। आजकल तो बडे बडे शहरो मे पर्यावरण के नाम पर बीच सडक मे पेड-पौधे लगाने को प्रोत्साहित किया जा रहा है। कुछ जगहो  पर तो लगे हुए पेड हटाने के नाम पर इतना बडा नाटक खडा किया जाता है कि हंसी आती है। पेड को जड से उखाडकर मशीनो के द्वारा कही दुसरी जगह ले जाकर इस तरह लगाया जाता है जैसे कि कोई जीवित प्राणी हो।  पर्यावरण  के नाम पर पुरे देश मे कुछ निकम्मो का एक ऐसा गिरोह बना हुआ  है, जिनकी रोजी रोटा का यही मुख्य आधार है।

      जल  अभाव भी एक ऐसा ही माध्यम बना हुआ है। राजेन्द्र सिंह सहित अनेक लोग ऐसा हौवा खडा करते है जिनके आधार पर जल अभाव ही विश्व युद्ध का कारण बनेगा। यह बात लगातार फैलाई जाती है । इसी तरह की काल्पनिक  बात इतनी तेजी से फैलाई जाती है कि बहुत लोग इस बात को दूहराना शूरू कर देते है। कितनी  बचकाना बात है  कि जल अभाव को दुनियां  की सबसे बडी समस्या प्रचारित किया जाये, जबकि  ऐसी कोई समस्या आंशिक हो सकती है व्यापक नही। एक तरफ ऐसे लोग जल अभाव की बात करते है तथा पानी बचाव आंदोलन चलाते है तो इन्ही लोगो मे से दूसरी टीम पर्यावरण सूरक्षा के नाम पर हवाई जल सिचन अथवा  बडे शहरो मे सडको पर पानी छीटने की भी मांग करते है। बडे बडे शहरो मे बीच सडक पर पौधा रोपण करके उनकी सिचाई करना भी कुछ लोगो के लिये आवश्यक कार्य है तो जल अभाव का वातावरण  बनाकर पानी बचाव आंदोलन भी कुछ लोगो का रोजगार बन गया है।

           हम देखते है कि आमतौर पर कभी वातावरण गरम होने के कारण भयंकर  गर्मी के खतरे का समाज मे भय फैलाया जाता है तो कभी हिमयुग आने की कल्पना से समाज को भयभीत किया जाता है। दोनो ही बाते प्रतिवर्ष  किसी न किसी रूप मे बहुत वीभत्स स्वरूप देकर समाज मे प्रचलित की जाती है। कभी समझ मे नही आया कि दोनो मे से क्या सही है,  और यह खतरा तात्कालिक स्वरूप मे कितना बडा है। यह भी समझ मे नही आया कि इस प्रकार के खतरो को सामान्य समाज मे प्रचारित करना कितना आवश्यक है और क्या समाधान करेगा। स्पष्ट  दिखता है कि इस प्रकार के मौसमी वातावरण के काल्पनिक भय विस्तार मे भी कुछ लोगो का रोजगार निहित होता है।

       कुछ लोग ग्रीन हाउस गैस का खतरा भी तिल का ताड बना कर प्रस्तुत करते रहते है तो कुछ लोग डीजल पेट्रोल समाप्त होने का खतरा भी लगातार बताते रहते है। कुछ लोग बढती आबादी को भी  बहुत बडा संकट बताकर प्रचारित करते रहते है। वे हर मामले मे बढती आबादी को दोष देते है । सामान्य व्यक्ति  इस प्रकार के  भय से प्रभावित  तो होता रहता है किन्तु कुछ समाधान नही कर पाता। मानवाधिकार के नाम पर भी ऐसे अनेक कार्यक्रम चलते रहते है। तीस्ता शीतलवाड का नाम आपने सुना होगा। गुजरात की बडी प्रमुख मानवाधिकार वादी  की पोल खुली तो पता चला कि ये सबलोग भय के व्यापार के अतिरिक्त और कोई धंधा नही करते। ऐसे लोगो की संख्या भारत मे हजारो के रूप मे है जो किसी न किसी नाम पर समाज मे काल्पनिक भय का वातावरण बनाकर स्वयं को उसका मुखिया बना लेते है और जीवन भर उनकी दुकानदारी आराम से चलती रहती है।

            मै मानता  हॅू कि ऐसी समस्याए आंशिक रूप से होती भी है किन्तु ऐसी समस्याओ का तात्कालिक प्रभाव बहुत नाम मात्र का होता है और हजारो वर्षो के बाद ही उनका व्यापक प्रभाव संभावित है। दूसरी बात यह भी है कि उन समस्याओ के समाधान मे आंम लोग कोई भूमिका अदा नही कर सकते क्योकि ये बहुत उचे लेबल का मामला होता है । यहां तक कि इन समस्याओ के विस्तार देने वाले विकसित राष्ट्र ही भारत जैसे देश मे अपने एजेन्डो को सक्रिय करके इन समस्याओ को बढा चढाकर प्रचारित कराते है । यदि ठीक से खोजबीन  किया जाय तो पर्यावरण, मानवाधिकार, जल अभाव,  गर्मी सर्दी, मौसम, ग्रीन हाउस जैसी अनेक समस्याए विकसित राष्ट्र पैदा करते है। साथ ही इन विकसित राष्ट्रो का एजेन्डा इन्ही विकसित राष्टो के एजेन्ट गुप्त रूप से समाज सेवी संस्थाओ का बोर्ड लगाकर सामाजिक वातावरण मे भय का जहर घोलते है। ऐसे निकम्मे लोगो  की फौज छोटे छोटे शहरो तक स्थापित हो चुकी है। आवश्यकता इस बात की है कि इस प्रकार के अनावश्यक भय के वातावरण से समाज को मुक्त कराया जाय। साथ ही ऐसे पेशेवर लोगो की भी पोल खोली जाय जो अनावश्यक भय का वातावरण बनाकर अपनी रोजी रोटी चलाते रहते है।