मानवाधिकार
- व्यक्ति के अधिकार तीन प्रकार के होते है: 1. प्राकृतिक अथवा मौलिक, 2. संवैधानिक, 3. सामाजिक । मौलिक अधिकारो को ही प्राकृतिक अथवा मानवाधिकार भी कहा जा सकता है;
- मानवाधिकार सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर सृष्टि के समापन तक स्थिर होते है । उनमें कभी कोई बदलाव नहीं आता;
- मानवाधिकार का उल्लंघन अपराध, संवैधानिक अधिकारो का उल्लंघन गैरकानूनी तथा सामाजिक अधिकारो का उल्लंघन अनैतिक माना जाता है;
- प्रत्येक व्यक्ति के मानवाधिकारो की सुरक्षा समाज का दायित्व होता है, स्वैच्छिक कर्तव्य मात्र नहीं;
- प्रत्येक व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता उसका मौलिक अधिकार है । कोई भी अन्य इस स्वतंत्रता की सीमा नहीं बना सकता;
- प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक व्यवस्था में सहभागी होना उसके लिये बाध्यकारी है । सामाजिक व्यवस्था के समक्ष सम्पूर्ण समर्पण उसकी मजबूरी है;
- परिवार सामाजिक व्यवस्था की प्रथम तथा विश्व समाज व्यवस्था की अंतिम इकाई है । प्रत्येक व्यक्ति को असीम स्वतंत्रता प्राप्त है जो उसे अपनी स्वेच्छा से परिवार के साथ जोड़नी आवश्यक है;
- मानवाधिकार व्यक्ति की असीम स्वतंत्रता है और सहजीवन उसके अधिकारों का पूर्ण समर्पण । सहजीवन प्रत्येक व्यक्ति के लिये बाध्यकारी है, स्वैच्छिक नहीं;
- दुनियां में किसी भी व्यक्ति के लिये अकेला रहना न संभव है न उचित । यदि कोई व्यक्ति दूसरो की सुरक्षा में भागीदार नही बनना चाहता तो कोई अन्य उसकी सुरक्षा की गांरटी क्यो लेगा;
- व्यक्ति का सिर्फ एक ही प्राकृतिक अधिकार होता है असीम स्वतंत्रता तथा एक दायित्व होता है सहजीवन । स्वतंत्रता के चार भाग है, 1. जीवन की, 2. अभिव्यक्ति की, 3. सम्पत्ति की, 4. स्वनिर्णय की । सहजीवन के तीन भाग है: 1. पारिवारिक, 2. स्थानीय, 3. राष्ट्रीय ।
- किसी भी इकाई में सम्पूर्ण समर्पण के बाद भी व्यक्ति की ईकाई से अलग होने की स्वतंत्रता हमेशा सुरक्षित रहती है । किसी भी परिस्थिति में किसी समझौते के अंतर्गत संबंध विच्छेद की स्वतंत्रता में कटौती नही की जा सकती;
- परिवार, गांव, राष्ट्र आदि इकाईयां समाज व्यवस्था की ईकाईयां मानी जाती है । किसी भी व्यक्ति की उसकी सहमति के बिना राज्य भी अपने साथ जुड़कर रहने के लिये बाध्य नहीं कर सकता;
- कोई भी संविधान व्यक्ति को मौलिक अधिकार न दे सकता है और न ले सकता है । संविधान उसकी स्वतंत्रता की सुरक्षा की गांरटी मात्र देता है । चाहे संविधान परिवार का हो स्थानीय हो अथवा राष्ट्रीय;
- प्रत्येक व्यक्ति के मानवाधिकारों की सुरक्षा समाज व्यवस्था का दायित्व है । मनमाने तरीके से बने मानवाधिकार संगठन विश्व में और विशेषकर भारत में मानवाधिकार के नाम पर दुकानदारी चलाते है । उनका मानवाधिकार से कोई संबंध नहीं है;
- सभी मानवाधिकार संगठनों का भारत में रिकार्ड बहुत खराब है । इन्हें निरूत्साहित करना चाहिये;
- सिर्फ मनुष्य को ही मानवाधिकार प्राप्त हैं, पशु, पक्षी, पेड़-पौधों को यह अधिकार प्राप्त नही है;
- समाज संपूर्ण विश्व का एक होता है । समाज राष्ट्रों या समूहों का संघ नहीं हो सकता । समाज सिर्फ व्यक्तियों का समूह होता है जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के मौलिक अधिकार समान होते है;
- व्यक्ति चाहे कितना भी अधिक शक्तिशाली क्यों न हो, व्यवस्था हमेशा उसके उपर होती है । दुर्भाग्य से व्यवस्था के ऊपर व्यक्ति बनाये जा रहे है जो गलत है;
- दुनियां में यह भ्रम फैला हुआ है कि राष्ट्र सम्प्रभुता सम्पन्न इकाई है जो मौलिक अधिकारों में फेरबदल कर सकती है । यह भ्रम दूर होना चाहिये;
- इस्लाम और साम्यवाद घोषित रूप से मौलिक अधिकारों को अस्वीकार करते है । इस्लाम और साम्यवाद का अस्तित्व समाज के लिये सबसे बड़ा संकट है । पूरी दुनियां को चाहिये कि इन दो विचारधारा के लोगों को या तो सामाजिक व्यवस्था मानने के लिये सहमत करे या बाध्य करे;
- मानवाधिकार की सुरक्षा के लिये सबसे पहला काम इस्लामिक तथा साम्यवादी विचारों पर दबाव बनाना है;
- कोई बड़े से बड़ा अपराधी भी समाज व्यवस्था की सहभागिता से वंचित नहीं किया जा सकता । इसका अर्थ हुआ कि किसी दण्ड प्राप्त अपराधी को भी किसी कानून के अंतर्गत संसद की सहभागिता से तब तक नहीं रोका जा सकता जब तक संसद संविधान संशोधन की अन्तिम अधिकार प्राप्त इकाई है;
- समानता की सिर्फ एक परिभाषा होती है कि प्रत्येक व्यक्ति को समान स्वतंत्रता । इसके अतिरिक्त समानता की सारी परिभाषायें असमानता पैदा करती है । समानता के नाम पर असमानता पैदा करके वर्ग विद्वेष बढ़ाना राजनीति का मुख्य आधार है ।
वैसे तो सारी दुनियां में मानवाधिकार के विषय में स्पष्ट धारणा का भाव है किन्तु भारत में यह अभाव बहुत व्यापक है । आमतौर पर यह धारणा बनी हुयी है कि संविधान मौलिक अधिकार देता भी है और ले भी सकता है । आम लोग कहते हैं कि संसद को संविधान संशोधन के असीम अधिकार होने चाहिये और अपराधियों को संसद प्रवेश से वंचित किया जाना चाहिये । अच्छे-अच्छे विद्वान भी यह बात ठीक से नही समझ पाते है कि व्यक्ति के प्राकृतिक अधिकार क्या है जिनमें उसकी सहमति के बिना कोई कटौती नहीं हो सकती । अनेक नासमझ तो राष्ट्र को अंतिम इकाई मान लेते है तथा समाज को राष्ट्र से नीचे सिद्ध करते रहते है । कई नासमझ तो व्यक्ति की अभिव्यक्ति की अथवा सम्पत्ति की अधिकतम सीमा भी बनवाने का प्रयास करते रहते है जबकि अभिव्यक्ति अथवा सम्पत्ति की कोई सीमा या तो व्यक्ति स्वयं की मर्जी से बना सकता है अथवा विश्व समाज की व्यवस्था से । वैसे तो किसी व्यक्ति को दंड देना भी विश्व व्यवस्था के कानूनों के अंतर्गत ही होना चाहिये । इसी व्यवस्था के अन्तर्गत दुनियां के साथ-साथ भारत भी न्यायपालिका का यह दायित्व है कि वह किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों के विरूद्ध किये गये किसी संविधान संशोधन को रद्द कर दे । मुस्लिम और साम्यवादी देशो को छोडकर दुनियां भर के न्यायालय इस दायित्व से बंधे है । यही कारण है कि इस्लामिक साम्यवादी विचारधारा दुनियां के मानवाधिकार के लिये सबसे बड़ा खतरा है । सबसे पहले इस विचारधारा से निपटना चाहिये ।
यह बात भी विचारणीय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छा के अनुसार किसी अन्य के साथ सहजीवन शुरू करना उसकी बाध्यता है, स्वतंत्रता नहीं । कोई व्यक्ति इस बाध्यता से इंकार नही कर सकता । यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य की सुरक्षा में भागीदारी नहीं कर सकता है तो समाज उसकी स्वतंत्रता की गांरटी क्यो दे । इसलिये यह धारणा भी गलत है कि व्यक्ति अकेला रह सकता है । यह धारणा भी गलत है कि व्यक्ति के मौलिक अधिकार समय-समय पर कम ज्यादा होते रहे है । मेरे विचार से सृष्टि के प्रारम्भ से अंत तक मानवाधिकार समान है । भारत में मानवाधिकार के नाम पर ब्लैकमेल करने वालो की बाढ़ सी आयी हुयी है । मानवाधिकार के नाम पर अपराधियों के पक्ष में खड़ा होना तथा राज्य को कटघरे में खड़ा करना एक प्रकार का व्यवसाय बन गया है । इस तरह के व्यवसायियों से भी समाज को मुक्त करना चाहिये । जिस तरह समाज में एकात्म मानववाद के नाम पर किसी विचारधारा को प्रश्रय दिया जा रहा है उससे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि एकात्म मानववाद के साथ-साथ सर्वात्म मानववाद की चर्चा आगे बढ़ायी जाये जिस पर अभी ध्यान नहीं दिया जा रहा है । सर्वात्म मानववाद अधिक महत्वपूर्ण है ।
मानवाधिकार संरक्षण तथा सहजीवन का तालमेल आवश्यक है । इसके लिये हमें कुछ कदम उठाने चाहिये ।
- विश्व संविधान बनना चाहिये जिसके निर्माण में दुनियां के प्रत्येक व्यक्ति की बराबर भूमिका हो;
- भारत के संविधान में भारत के प्रत्येक व्यक्ति की समान भूमिका होनी चाहिये;
- परिवार और गांव व्यवस्था को स्वतंत्र अधिकार दिये जाने चाहिये जिससे कोई भी व्यक्ति स्वतंत्रता पूर्वक परिवार से निकल सके । इसी तरह राष्ट्रीय व्यवस्था को भी यह स्वीकार करना चाहिये कि कोई भी व्यक्ति कभी भी देश छोड़कर तब तक जा सकता है जब तक उसने कोई अपराध नहीं किया हैं ।
भारत सरकार को यह स्वीकार करना चाहिये कि वह इस्लामिक या साम्यवादी व्यवस्था का अंग न होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था का अंग है । उसे लोकतांत्रिक विश्व का पूरा-पूरा सम्मान और सहभागिता करनी चाहिये । मानवाधिकार संरक्षण प्रत्येक व्यक्ति का महत्वपूर्ण दायित्व है और इस दायित्व को हम सबको पूरा करना चाहिये ।
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